नैतिकता क्यों ? – पूनम नेगी

नैतिकता की नीति पर चलते हुए स्वास्थ्य के अनूठे वरदान पाए जा सकते हैं। इसकी अवहेलना जिंदगी में सदैव रोग-शोक, पीड़ा-पतन के उपद्रव खड़े करती हैं। अनैतिक आचरण से बेतहाशा प्राण-ऊर्जा की बरबादी होती है। साथ ही वैचारिक एवं भावनात्मक स्तर पर अगणित ग्रंथियां जन्म लेती हैं। इसके चलते शारीरिक स्वास्थ्य के साथ चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार का सारा ताना-बाना गड़बड़ा जाता है। आधुनिकता, स्वच्छंदता एवं उन्मुक्ता के नाम पर इन दिनों नैतिक वर्जनाओं व मर्यादाओं पर ढेरों सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं। इसे पुरातन ढोंग कहकर अस्वीकारा जा रहा है। नई पीढ़ी इसे रूढ़िवाद कहकर दरकिनार करती चली जा रही है। ऐसा होने और किए जाने के दूषित दुष्परिणाम आज किसी से छिपे नहीं हैं।

हलाँकि नई पीढ़ी के सवाल "नैतिकता क्यों?" की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। इसका उपयुक्त जवाब देते हुए उसे नैतिक जीवन के वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक लाभों का बोध कराया जाना चाहिए। प्रश्न कभी भी गलत नहीं होते, गलत होती है प्रश्नों की अवहेलना व उपेक्षा। इनके उत्तर न ढूँढ़ पाने के किसी भी कारण को वाजिब नहीं ठहराया जा सकता। ध्यान रहे प्रत्येक युग अपने सवालों के हल माँगता है। आज की नई पीढ़ी अपने नए प्रश्नों के ताजगी भरे सामाधान चाहती है। "नैतिकता क्यों?" यह वर्तमान का युग प्रश्न है। इस प्रश्न के माध्यम से नई पीढ़ी ने नए समाधान की माँग की है। इसे परंपरा की दुहाई देकर टाला नहीं जा सकता क्योंकि ऐसा करने से नैतिकता की नीति उपेक्षित होगी और इससे होने वाली हानियाँ बढ़ती जाएँगी।

नैतिकता क्यों? हमारी ऋषि मनीषा इस प्रश्न का सही उत्तर देती है- ऊर्जा के संरक्षण एवं ऊर्ध्वगमन हेतु। हमारे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के सभी रहस्य नैतिकता के अनुपालन में समाये हुए हैं। अनैतिक आचरण यानी इंद्रिय विषयों का अमर्यादित भोग, स्वार्थलिप्सा, अहंता एवं तृष्णा की अबाधित तुष्टि से हमारी प्राण-ऊर्जा का बेतरह अपव्यय तथा क्षरण होता है। इतना ही नहीं, ऐसा करने से जो वर्जनाएँ टूटती हैं, मर्यादाएँ ध्वस्त होती हैं, उनसे मन में अपराध-बोध की ग्रंथि पनपे बिना नहीं रहती। वैचारिक एवं भावनात्मक तल पर पनपी हुई ग्रंथियों से अंतचेतना में अगणित दरारें पड़ जाती हैं और समूचा व्यक्तित्व विश्रृंखलित-विखंडित होने लगता है। दूसरों को इसका बोध तब होता है, जब व्यक्ति का बाहरी व्यवहार असामन्य हो जाता है। यह सब होता है अनैतिक आचरण की वजह से। 

बीते दिनों पश्चिमी दुनिया के एक विख्यात मनोवैज्ञानिक रुडोल्फ विल्किन्सन ने इस संबंध में एक शोध-स्टडी की और अपने निष्कर्षों को "साइकोलॉजिकल डिसऑडर्स: कॉज एण्ड इफेक्ट" नाम से प्रकाशित कराया। इस स्टडी में उन्होंने इस सचाई को स्वीकारा है कि नैतिक मर्यादाओं का पालन करने वाले लोग मनोरोगों का शिकार नहीं होते। इसके विपरीत अनैतिक जीवनयापन करने वालों को प्राय: अनेक तरह के मनोरोगों का शिकार होते देखा गया है। 

समाज मनोविज्ञानी एरिक फ्रॉम ने भी अपने ग्रंथ "मैन फॉर हिमसेल्फ" में भी यही सचाई बयान की है। उनका कहना है कि अनैतिकत आचरण मनोरोगों का बीज है। विचारों एवं भावनाओं में इसके अंकुरित होते ही मानसिक संकटों की फसल उगे बिना नहीं रहती।

योगिवर भर्तृहरि ने "वैराग्य शतक" में कहा है-"भोगे रोग भयं" यानि कि भोगों में रोग का भय है। इसे यों भी कह सकते हैं कि भोग होंगे तो रोग पनपेंगे ही। नैतिक वर्जनाओं की अवहेलना करने वाला निरंकुश भोगवादी रोगों की चपेट में आए बिना नहीं रहता। इनकी चिकित्सा नैतिकता की नीति के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकती। कभी-कभी तो ये रोग इतने विचित्र होते हैं कि महावैद्य भी इन्हें समझने में विफल रहते हैं।

महाभिषक आर्य जीवक के जीवन की एक घटना है। आर्य जीवक तक्षशिला के स्नातक थे। आयुर्विज्ञान में उन्होंने विशेषज्ञता हासिल की थी। गरीब भिक्षुक से लेकर धनपति श्रेष्ठी एवं नरपति सम्राट, सभी उनसे स्वास्थ्य का आशीष पाते थे। मरणासन्न रोगी को तक को वे अपनी चमत्कारी औषधियों से पूर्ण स्वस्थ कर देते थे। सम्राट बिंबसार भी उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे; मगर इतने कुशल व योग्य चिकित्सक जीवक अपने एक रोगी को लेकर सदैव चिंतित बने रहते थे। उनके उस रोगी का रोग था भी बड़ा विचित्र। यों तो वह सभी तरह से स्वस्थ था, मगर उसकी दायीं आँख खुलती नहीं थी। उसकी इस परेशानी को लेकर जीवक अपनी सभी तरह की चिकित्सकीय पड़ताल कर चुके थे। मगर उन्हें उसकी आंख में कहीं कोई कमी नजर नहीं आ रही थी। थक-हार कर उन्होंने अपनी परेशानी महास्थविर रेवत को बतायी। महास्थविर रेवत भगवान बुद्ध के समर्थ शिष्य तथा मानवीय चेतना के सभी रहस्यों के कुशल मर्मज्ञ थे। उन्होंने जीवक की यह समस्या गंभीरता से सुनी। पूरी बात सुनकर अपने दोनों नेत्र बंदकर वे दो पल को ध्यानस्थ हुए, फिर हल्के से मुस्कुराकर बोले, "महाभिषक जीवक! तुम्हरे रोगी की समस्या शारीरिक नहीं वरन मानसिक है। उसने अपने जीवन में नैतिकता की नीति की अवहेलना की है। इसी वजह से वह मानसिक ग्रंथि का शिकार हो गया है।" कारण ज्ञात होने पर जीवक ने उनसे इसका समाधान पूछा तो उन्होंने जीवक को उस रोगी को भगवान बुद्ध के पास ले जाने को कहा। अपनी करुण दृष्टि उस रोगी पर डाली वह श्रद्धानवत होकर उनके चरणों में गिर गया और उसने अपने मन की सारी व्यथा कथा प्रभु को कह सुनाई। अपने अनैतिक कार्यों को प्रभु के सामने प्रकट करते हुए उनसे क्षमा मांगी। तब भक्तवत्सल भगवान ने उसे क्षमादान देते हुए कहा," वत्स नैतिक मर्यादाएं हमेशा पालन करनी चाहिए। आयु वर्ग, योग्यता, देश एवं काल के क्रम में प्रत्येक युग में नैतिक की नीति बनाई जाती है। इसका आस्थापूर्वक पालन करना चाहिए। नैतिकता की नीति का पालन करने वाला आत्मगौरव से भरा रहता है, जबकि इसकी अवहेलना करने वालों को आत्मग्लानि घेर लेती है।" प्रभु के इन आप्त वचनों ने उस युवक को क्षुब्ध मन को अपार शांति दी। उसे अनायास ही अपनी मनोग्रंथि से छुटकारा मिल गया। जीवक को तब भारी अचरज हुआ, जब उन्होंने उसकी दायीं आँख को सामान्यतया खुलते हुए देखा। तब अचरज में पड़े जीवक को संबोधित करते हुए भगवान तथागत ने कहा-"आश्चर्य न करो वत्स जीवक! नैतिकता की नीति स्वास्थ्य की उत्तम डगर है। इस पर चलने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता। वह स्वाभाविक रूप से शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होता है।"

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