श्रीमद्भगवद्गीता - तनाव प्रबंधन की कारगर कुंजी - पूनम नेगी



अपनी तर्कपूर्ण शिक्षाओं और प्रकाशपूर्ण प्रेरणाओं के कारण श्रीमद् भगवदगीता को वैश्विक ग्रंथ की मान्यता हासिल है। वर्तमान की तनावपूर्ण परिस्थितियों में गीता स्ट्रैस मैनेजमेंट की अत्यन्त कारगर कुंजी साबित हो रही है। देश-विदेश के नामचीन मैनेजमेंट गुरु भगवदगीता के प्रबंधन सूत्रों का लाभ उठा कर उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल कर रहे हैं। गीता के प्रबंधन सूत्रों को अपने प्रतिष्ठानों में लागू करने वाली देशभर की नामी-गिरामी कम्पनियां इनके नतीजों से काफी उत्साहित व प्रसन्न हैं। एचआर( ह्यूमन रीर्सोसेज) प्रबंधकों की मानें तो भागमभाग और गलाकाट प्रतिस्पधा के वर्तमान दौर में इस ग्रन्थ को मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट आचार संहिता कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

गीता में प्रतिपादित प्रबंधन सूत्रों का अनुसरण कर कोई भी व्यक्ति सहज ही अपनी उन्नति और विकास कर सकता है। गीता कहती है, "योग: कर्मसु कौशलम्।" यानी कार्यफल में समता रूपी निपुणता प्राप्त कर लेना। किसी कार्य में समग्र रूप से निमग्न हो जाना ही योग है। कार्य के संग अनासक्त भाव ही निष्काम कर्म है। आसक्ति ही कर्म का बंधन बनती है। हमारे प्रत्येक कर्म के पीछे निहित उद्देश्य ही कर्मफल के रूप में हमारे सामने आता है और हमें उस भोग को भोगना ही पड़ता है। मगर गीता के सूत्रों पर पूरी निष्ठा से अमल करने से लक्ष्यसिद्धि सहज ही की सकती है। गीता के इन्हीं दिव्य सूत्रों के नतीजों से उत्साहित होकर आज पूरी दुनिया में गीता का प्रशासकीय प्रबंधन के ज्ञान भंडार के रूप में अध्ययन-मनन किया जा रहा है। इसमें वर्णित व्यावहारिक ज्ञान न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी कुशल प्रबंधन का अचूक मंत्र साबित हो रहा है। देश-विदेश की कई मल्टीनेशनल कम्पनियां श्रीमद्भगवतगीता के श्लोकों का इस्तेमाल कर्मचारियों में नई ऊर्जा का संचार करने के लिए कर रही हैं। कर्मचारियों को गीता का ज्ञान देने के लिए बाकायदा मोटिवेशनल ओरेटर-लेक्चरर और धर्मगुरुओं को आमंत्रित किया जा रहा है। सुप्रसिद्ध मोटिवेशनल ओरेटर विवेक बिंद्रा के मुताबिक सर्वेक्षण में पाया गया है कि आज विभिन्न कम्पनियों में काम करने वाले 80 फीसद से अधिक कर्मचारी अपनी दक्षता के अनुरूप काम नहीं कर पाते, सिर्फ दस फीसद कर्मचारी ही कम्पनी को आगे ले जाने के लिए अपना पूरा योगदान देते हैं। ऐसे में नकारात्मक कार्यस्थितियों तथा कर्मचारियों की काम के प्रति अरुचि जैसे कारणों से ज्यादातर कम्पनियों की उत्पादकता घट जाती है। इन समस्याओं का समाधान गीता के बहुत सुंदर सूत्रों में दिया गया है। गीता के पहले अध्याय में भगवान श्री कृष्ण जिस तरह शांत भाव से अर्जुन की सारी बात सुनते हैं, उसी तरह कम्पनी के वरिष्ठों को भी अपने अधीन कर्मचारियों की बात पूरी गहराई से सुननी व समझनी चाहिए। ऐसे ही दूसरे अध्याय के श्लोक "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन..." निष्काम कर्म का उपदेश देता है तथा छठा अध्याय तनाव कम करने का। जैसी मनुष्य की मन:स्थिति होती है, उसी के अनुरूप वह काम करता है। यह फॉर्मूला घर-बाहर, हर जगह लागू होता है। यदि कंपनी नुकसान झेल रही है तो गीता में इसका सरल उपाय है- पहले आचार फिर विचार एवं अंत में प्रचार।

विभिन्न कंपनियों ने गीता के इन्हीं प्रबंधन सूत्रों को लागू कर अपने कर्मचारियों की कार्यक्षमता व कौशल बढ़ाने में आशातीत सफलता पाई है। मारुति सुजुकी इंडिया के प्रोजेक्ट निदेशक एल.के. गुप्ता का कहना है कि गीता के प्रबंधन सूत्रों का कंपनी के सभी कर्मचारियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। उनमें ना केवल नई ऊर्जा का संचार हुआ बल्कि हमारा सक्सेस रेट भी 80 फीसद के ऊपर पहुंच गया। "रिलैक्सो" के मैनेजिंग डॉयरेक्टर आर.के.दुआ भी कहते हैं कि उनके कर्मचारियों की दक्षता बढ़ाने में गीता के सूत्र बहुत मददगार साबित हुए हैं। "एसोटैक रिएलटी" के मैनेजिंग डायरेक्टर नीरज गुलाटी का भी कहना है कि गीता के सूत्रों पर अमल से उनकी कंपनी के कर्मचारियों की कार्यदक्षता में 60 से 70 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। ब्योम नेटवर्क के चीफ मैनेजर उमंग दास और रोटरी इंटरनेशनल के सुधीर मंगला की मानें तो गीता की शिक्षाओं ने उनकी कंपनी के कर्मचारियों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया है। वस्तुत: गीता सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान नहीं बल्कि समग्र जीवन दर्शन है जो समूची विश्व वसुधा को "सर्वे भवन्तु सुखिन:" का पाठ पढ़ाता है। इसलिए आज दुनियाभर के कई उच्च शिक्षण-प्रबंधन संस्थान और स्कूल गीता को पाठ्यक्रमों का हिस्सा बना रहे हैं। अमेरिका, जर्मनी व नीदरलैंड जैसे कई विकसित देशों ने अपने देश के शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल कर रखा है। अमेरिका के न्यूजर्सी स्थित सैटानहॉल विश्वविद्यालय में तो हरेक छात्र को गीता का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ना अनिवार्य है। 

इसके पाठ्यक्रम में शामिल होने से नई पीढ़ी को न सिर्फ जीवन मूल्यों की शिक्षा मिलेगी वरन उनके व्यक्तित्व का भी संतुलित विकास होगा। यही वजह है कि देश के सभी विश्वविद्यालयों में योग के साथ यूजीसी की ओर से तैयार पाठ्यक्रम में गीता को सम्मिलित किया गया है। इस बाबत एक दिलचस्प जानकारी यह है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा व गुजरात आदि कुछ राज्यों ने भी गीता के सूत्रों के बहुआयामी लाभों को समझकर अपने राज्य के शैक्षिक पाठ्यक्रम में गीता के साथ ही रामायण के प्रबंधन सूत्रों को शामिल कर सराहनीय कार्य किया है। भारत की सबसे धनी मुम्बई नगरपालिका ने भी अपने विद्यालयों में गीता की पढ़ाई शुरु कर एक प्रशंसनीय कदम उठाया है। मगर इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि वोटों की राजनीति के चलते देश के कई राज्यों में यह स्थिति अब तक नहीं बन पायी है। शिक्षा के भगवाकरण का आरोप लगाने वाले संकुचित मानसिकता वाले लोग केन्द्र सरकार के इस कदम लाख का विरोध करें, मगर देश का बुद्धिजीवी वर्ग इस पहल का खुलेदिल से स्वागत कर रहा है। बताते चलें कि हरियाणा व मध्यप्रदेश सरकार के मुताबिक स्कूली पुस्तकों को समावेशी बनाने की दृष्टि से पाठ्यक्रम में गीता के कुछ अंशों के साथ ही विभिन्न धर्म-संप्रदायों के विषय भी विद्यार्थियों के ज्ञानवर्धन के लिए शामिल किये गये हैं। इनमें पैगम्बर हजरत मोहम्मद की जीवनी, वाकया-ए-कर्बला और गुरु नानक देव, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, जीजस क्राइस्ट का जीवन दर्शन व शिक्षाएं भी शामिल हैं। बात साफ है। इनमें से कोई भी पाठ अपनी प्रकृति में धार्मिक या साम्प्रदायिक नहीं है। इनसे न किसी का न धर्म बिगड़ता है, न किसी धर्म का प्रचार होता है। दूसरी बात, इसे अनिवार्य बनाने की किसी मंशा का आरोप भी इसी बात पर खत्म हो जाता है कि जिन कक्षाओं की उर्दू पाठ्य-पुस्तकों में इन पाठों को शामिल किया गया है, उनमें परीक्षा में आधार पर कक्षा में रोकने का भी प्रावधान नहीं है। फिर भी यदि किसी छात्र-छात्रा को इन पाठों के पढ़ने में रुचि न हो तो वे इन पाठों को वैकल्पिक विषय मान सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि जनवरी 2012 में जब मध्यप्रदेश के स्कूलों में गीता-सार पढ़ाए जाने के शासन के निर्णय के विरुद्ध जब कैथोलिक बिशप कौंसिल द्वारा मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी तो तथ्यों का अवलोकन करने के बाद कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी कि गीता मूलतः भारतीय दर्शन की पुस्तक है न कि भारत के हिन्दू धर्म की। इस दृष्टि से गीता के व्यवहारिक जीवन में उपयोगी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इससे जुड़े जो पाठ स्कूल की नैतिक शिक्षा की पुस्तकों में शामिल किये गये हैं, उन्हें धार्मिक या साम्प्रदायिक नजरिए से देखना गलत है। बताते चलें कि मध्यप्रदेश में वर्ष 2011-12 से गीता के व्यवहारिक एवं नैतिक मूल्यों पर आधारित विभिन्न पाठ्य सामग्री, कक्षा 1 से 12 की भाषा की पुस्तकों में समाहित है। ये पुस्तकें शासकीय पाठशालाओं के साथ ही अनुदान प्राप्त मदरसों में भी चल रही हैं और इस सम्बंध में अभी तक किसी प्रकार की कोई आपत्ति सामने नहीं आयी है। 

गौरतलब हो कि देश में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक डा. होमी जहांगीर भाभा का कहना था कि वैज्ञानिकों को ऐसा रास्ता चुनना चाहिए जिसमें वैज्ञानिक कर्मों के साथ आध्यात्मिकता की पावन संवेदना भी निहित हो। उनकी प्रिय पुस्तक थी श्रीमद्भगवदगीता और उनकी प्रेरणा का मूलस्रोत था महाभारत की युद्धभूमि का वह चित्र जिसमें योद्धावेश में सुसज्जित भगवान श्रीकृष्ण विषादग्रस्त अर्जुन को गीता का ज्ञान दे रहे हैं। उंगली में प्रज्वलित चक्र है, तनी हुईं त्योरियां मगर ओठों पर शांत मुस्कान। भीत अर्जुन उनके पांवों को पकड़े हैं। उनका कहना था कि यह चित्र हमारे परमाणु ऊर्जा सम्पन्न समर्थ व विकसित राष्ट्र का है। गांधी जी भले ही हमारे राष्ट्रपिता हैं मगर मेरी दृष्टि में श्रीकृष्ण हमारे राष्ट्र के आदि पिता हैं। उनके हाथों में प्रज्वलित सुदर्शन चक्र ऐसा लगता है मानो उन्होंने इस चक्र के रूप में प्रचंड परमाणु ऊर्जा को धारण कर रखा हो। उनकी तनी हुई त्योरियां आक्रांता शत्रुओं के लिए साहसिक प्रत्युत्तर हैं जिसे देख शत्रु भयभीत एवं आतंकित हैं। साथ ही उनके ओंठो की मुस्कान इस सत्य का आश्वासन है कि हम शांति के पक्षधर हैं और अर्जुन के रूप में वे देश की कायरता और क्लीवता को अपने पांवों की ठोकर से प्रचंड पौरुष एवं महापराक्रम में रूपांतरित कर रहे हैं। श्रीकृष्ण मुझे इसलिए प्रेरित करते हैं क्योंकि वे विश्व के महानतम अध्यात्मवेत्ता व दार्शनिक होने के बावजूद महाशस्र "प्रज्वलित चक्र" थामे हैं जो उनके सतत कर्मशील होने का परिचायक है। जरा विचार कीजिए! गीता के प्रणेता के इस चित्र की कितनी अद्भुत व्याख्या की है डा. भाभा ने। वे "श्रीमद्भगवदगीता" की अमूल्य शिक्षाओं की अहमियत को भलीभांति जानते थे। संभवत: इसीलिए उन्होंने आजादी के कुछ ही समय बाद गीता को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित करने की मांग की थी। वे सही मायने में गीता के निस्पृह कर्मयोगी थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्री ने जब उन्हें केबिनेट मंत्री पद देने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने अति विनम्रता से भगवान श्रीकृष्ण की वाणी का स्मरण कराया-

"श्रेयान्स्वधमा विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधम निधनं श्रेय: परधर्मा भयावह:।। "

अर्थात स्वयं के कर्त्तव्य का पालन कमतर होते हुए भी दूसरे के कर्त्तव्य से श्रेष्ठ है। अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए मरना भी कल्याणकारक है, लेकिन दूसरे का कर्त्तव्य तो भय देने वाला है। उनकी इस आध्यात्मिक नि:स्पृहता के सामने शास्त्री जी जैसे त्यागमूर्ति भी नतमस्तक हुए बिना न रह सके थे। अपनी मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व डा. भाभा ने अपने सहयोगियों से कहा था कि देश के लोग जिस दिन वैज्ञानिक अध्यात्म के महत्व को पहचान लेंगे, उस दिन से अपना राष्ट्र पुन: विश्वगुरु बन जाएगा। 



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