कम्यूनिस्ट – रूस से भारत तक फर्जीबाड़ा ही फर्जीबाड़ा - साजी नारायण सी के (राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय मजदूर संघ)

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एक बात तो है कि कम्यूनिस्ट तिल का ताड़ बनाने में माहिर होते हैं | गोयबल्स के ये चेले झूठ का पुलिंदा भी इतनी खूबी से बांधते हैं, कि वह आ...


एक बात तो है कि कम्यूनिस्ट तिल का ताड़ बनाने में माहिर होते हैं | गोयबल्स के ये चेले झूठ का पुलिंदा भी इतनी खूबी से बांधते हैं, कि वह आमजन को सच लगने लगता है | इतिहास को तोड़ने मरोड़ने में भी ये शातिर लोग माहिर होते हैं | अब रूस की उस "महान अक्तूबर क्रांति" की ही बात करें, जो क्रांति थी ही नहीं | सचाई तो यह है कि यह जनता द्वारा  लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकार का सैन्य तख्तापलट भर था |
रूसी लेखक और इतिहासकार अलेक्जेंडर सोलजेनित्सिन को 1 9 70 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने उस तथाकथित "महान अक्तूबर क्रांति" के बारे में इस प्रकार टिप्पणी की - "'अक्तूबर क्रांति' विजेता, बोल्शेविकों द्वारा फैलाया गया झूठा भ्रमजाल है, जिसे पश्चिम के प्रगतिशील तबके द्वारा पूरी तरह से स्वीकार कर लिया गया ।
यह विरोधाभास इस बात से भी स्पष्ट दिखाई देता है कि केरल में जहाँ आज भी कम्युनिस्ट पार्टियों के अंतिम अवशेष बचे हुए हैं, वे भी इस "महान अक्टूबर क्रांति" की 100 वीं वर्षगांठ मनाने को लेकर गंभीर नहीं है, जो 25 अक्टूबर 2016 से शुरू हुई थी और 25 अक्तूबर, 2017 को समाप्त होने जा रही है | जबकि वह पिछली शताब्दी की उस तबके के लिए सबसे बड़ी प्रेरक घटना थी ।
सचाई तो यह है कि "महान अक्तूबर क्रांति" और कुछ नहीं, केवल उस सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी की अगुवाई में चल रही सरकार का तख्तापलट थी, जिसे भारी जन समर्थन से लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया था तथा जो जार शाही सत्ता के खिलाफ थी और बिना किसी पूर्वाग्रह के काम कर रही थी । होने को तो वह भी एक कम्युनिस्ट सरकार ही थी, जिसे बल पूर्वक उस बोल्शेविक नामक तानाशाही कम्युनिस्ट समूह द्वारा परास्त किया गया, जिसे जन समर्थन भी प्राप्त नहीं था । यह तो महज सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी और लेनिन की बोल्शेविक पार्टी के बीच का सत्ता संघर्ष था, अब कोई उसे क्रान्ति कहे तो मजे से कहता रहे ।
इतिहास के साम्यवादी आधिकारिक संस्करण के अनुसार, लेनिन के नेतृत्व में अक्टूबर क्रांति के माध्यम से रूस में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई । कम्युनिस्टों के लिए, 'क्रांति' का अर्थ है विपरीत विचारधारा की सरकार के खिलाफ, उस मजदूर वर्ग द्वारा सशस्त्र विद्रोह कर सत्ता हथियाना, जो कथित रूप से दबाये गए थे । इस बात के कई उदाहरण हैं कि कैसे दुनिया भर में कम्युनिस्ट दलों ने अपने शासन काल में इतिहास को विकृत कर अपने कैडर और साथ ही देश के लोगों को गुमराह किया, ताकि उन्हें बरगलाया जा सके। 1917 की यह "महान अक्टूबर क्रांति" भी ऐसी ही एक गाथा है |
क्रांति याकि रक्तरंजित उपद्रव -
1905 की रूसी क्रांति के उस खूनी रविवार ने 1917 में अक्तूबर "क्रांति" (जिसे बोल्शेविक क्रांति भी कहा जाता है) को प्रेरित किया था, जो झार सरकार के कुशासन के खिलाफ विद्रोह था | यही वह घटना थी, जिसके परिणाम स्वरूप सेंट पीटर्सबर्ग में सोवियत संघ का जन्म हुआ | जब प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ, तब तत्कालीन झार सम्राट ने सेना का नेतृत्व किया और जर्मन शत्रुओं के खिलाफ लड़ने के लिए सैन्य शिविरों में गया। युद्ध में जाने से पहले, उनकी जर्मन पत्नी को देश पर राज करने के लिए महारानी के रूप में ताज पहनाया गया । इससे रूस के देशभक्त लोगों के मनोमस्तिष्क में असंतोष पैदा हुआ। इस आग में घी डाला रूसी शहर सेंट पीटर्सबर्ग के नाम परिवर्तन ने, जिसका नाम बदलकर जर्मन नाम "पेट्रोग्राम" कर दिया गया | फिर क्या था, लोगों की देशभक्ति की भावनायें भड़क उठीं । रूसी लोग उस समय और नाराज हो गए, जब रूसी शासक ने जर्मनी के साथ शांति वार्ता प्रारम्भ की । इसके अतिरिक्त युद्ध ने रूस में आर्थिक संकट भी पैदा कर दिया । सरकार सैनिकों को समय पर वेतन प्रदान करने और अपने लोगों को सस्ती दरों पर आवश्यक खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करने में असमर्थ रही । इसी दौरान कारखानों में काम करने वाले मजदूरों ने भी मजदूरी में वृद्धि के लिए आन्दोलन शुरू कर दिया । कार्यस्थलों की अफरातफरी, गरीबी, अकाल, युद्ध में हार आदि सब कुछ एकसाथ आये । "स्टेट ड्यूमा" या लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई रूसी संसद भी 1916 में ज़ार सम्राट के खिलाफ हो गई । ये परिस्थितियां पर्याप्त से भी अधिक थीं, जिनका लाभ लेकर कम्युनिस्टों ने लोगों को आसानी से सरकार के खिलाफ प्रेरित कर दिया।
किन्तु इसी समय कम्यूनिस्टों ने युद्ध के खिलाफ अभियान चलाया, जिसका देशभक्त रूसी नागरिकों द्वारा विरोध किया गया | हालात यह बने कि मार्क्सवाद से प्रभावित सोशल डेमोक्रेट को देश से भागकर स्विट्जरलैंड में रहना पड़ा | लेकिन इसी अवधि में जर्मनी और फ्रांस जैसी अन्य देशों के सोशल डेमोक्रेट ने रूसी सोशल डेमोक्रेट्स को निराश किया, जब उन्होंने कम्यूनिस्टों की अंतर्राष्ट्रीय नीति का उल्लंघन करते हुए युद्ध के दौरान राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर अपने-अपने देशों का समर्थन किया । युद्ध में फ्रांसीसी कम्युनिस्टों ने जर्मनी का और जर्मन कम्युनिस्टों ने फ्रांस का विरोध किया । क्रांति को लेकर जो सपना रूसी कम्युनिस्टों ने देखा था, वह एक झटके से टूट गया | वे तो दुनिया भर के कम्युनिस्टों में पारस्परिक समर्थन की उम्मीद लगाए बैठे थे ।
फरवरी "क्रांति"
रूसी इतिहास में यदि कोई "क्रांति" कही जा सकती है, तो वह है "फरवरी क्रांति", जो रूसी जूलियन कैलेंडर के अनुसार 23  से 27 फरवरी, 1 9 17  को हुई | (हम लोग जो ग्रेगोरियन कैलेंडर उपयोग करते हैं, उसके अनुसार यह तिथि 8 से 12 मार्च है) | इस दौरान जार सम्राट के खिलाफ निरंतर आन्दोलन हुआ | ग्रेगोरीयन कैलेंडर के अनुसार, हम 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं, किन्तु रूसी जूलियन कैलेंडर के अनुसार यह तिथि 23 फरवरी है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से ही प्रारम्भ कर पेट्रोगैड में मजदूर कई बार हड़ताल पर गए। अधिकांश कारखानों को बंद कर दिया गया । छात्रों और शिक्षकों ने भी श्रमिकों की हड़ताल का समर्थन किया | सम्राट ने सेना को हड़ताल को सख्ती से कुचलने के निर्देश दिए, जिसे मानने से सैनिकों ने इनकार कर दिया, क्योंकि आन्दोलन कारियों में महिलायें भी सम्मिलित थीं | वस्तुतः वे भी विद्रोही मूड में आ चुके थे, और फिर सैन्य बल भी हड़ताल में शामिल हो गया ।
सम्राट ने राज्य में ड्यूमा को गैरकानूनी घोषित कर दिया, लेकिन ड्यूमा ने कानून और व्यवस्था की स्थिति का प्रभार संभाल लिया । सैन्य नेताओं और राज्य ड्यूमा ने सम्राट को पदत्याग के लिए कहा, इसके बाद 3 मार्च, 1917 को रूसी संसद के नेता प्रिंस जॉर्जिया येवजेनिएविच लवॉव के नेतृत्व में एक संसदीय सरकार का गठन किया गया । सम्राट को घर में ही नजरबन्द कर दिया गया और इसके साथ ही हड़ताली समाजवादी दलों ने सैनिकों और मजदूरों की भागीदारी के साथ पेट्रोगैड में एक सोवियत शासन की स्थापना की।
लेकिन जब सोशलिस्टों ने पेट्रोगैड में प्रांतीय सरकार के समानांतर सोवियत शासन स्थापित किया, तो रूसी समाज में जुड़वां पावर सेंटरों (डीवोइस्टेलिटी) जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई । "फरवरी क्रांति" के बाद देश ने दोनों के बीच सत्ता संघर्ष देखा । सोवियत परिषदों का नेतृत्व मेन्शेविक और सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी ने किया, जिनके सुधार कार्यक्रम मार्क्सवादी नहीं थे, किन्तु लोकतांत्रिक थे । उससमय तो प्रांतीय सरकार भी सोवियत के विचारों को स्वीकार करने के लिए तैयार थी, लेकिन बाद में, एक अग्रणी वकील और सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी के नेता, अलेक्जेंडर केरेनस्की भी प्रांतीय सरकार में शामिल हो गए | व्लादिमिर लेनिन के नेतृत्व वाली बोल्शेविक पार्टी उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी थी ।
"फरवरी क्रांति" के समय में लेनिन निर्वासित थे । युद्ध के कारण, जार शासन के अंत के बाद भी, वे रूस नहीं पहुंच सके । तब लेनिन ने जर्मनी के साथ गुप्त बातचीत की, जो रूस के साथ युद्ध कर रहा था। जर्मनी के खिलाफ युद्ध कर रहे रूस के युद्ध प्रयासों को कमजोर करने के लिए, जर्मन अधिकारियों ने लेनिन और उसके लोगों को रूस में युद्धग्रस्त इलाकों तक एक ट्रेन के माध्यम से पहुँचने में मदद की। इस प्रकार अप्रैल 1 9 17 में लेनिन रूस पहुंच गये ।
भले ही लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक ने रूस में "सोवियत को सभी शक्तियों" जैसे नारे गुंजाये, लेकिन उनका जन समर्थन बहुत कम था । यही कारण था कि जब लेनिन ने रूसियों को युद्ध विराम और त्सारिस्ट शासन के खिलाफ लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया, तब केवल 10000 लोग और एक कमजोर चरमपंथी कम्युनिस्ट पार्टी ही उनके समर्थन में थी |
18 जून को, प्रांतीय सरकार ने पुनः युद्ध शुरू करने का आदेश दिया, लेकिन सेना और साथ ही मजदूर इसके खिलाफ थे और वे हड़ताल पर चले गाय । लेकिन अजीब बात यह हुई कि लेनिन ने इस हड़ताल को खारिज कर दिया। इतिहासकारों के सामने यह एक बड़ा सवाल है कि उस समय, जबकि सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू करने का सबसे अच्छा मौका था, बोल्शेविक क्रांति के लिए तैयार क्यों नहीं हुए । उनके इस रुख के कारण सैनिकों और श्रमिकों के बीच उनका समर्थन बहुत कम हो गया । इसके बजाय, बोल्शेविक ने पेट्रोगाड में सामूहिक सशस्त्र प्रदर्शनों का नेतृत्व किया और  "सोवियत के लिए सभी शक्ति" की मांग की। ट्रॉट्स्की और अन्य बोल्शेविकों को गिरफ्तार कर लिया गया । लेनिन को फिनलैंड से भागना पड़ा | 7 जुलाई को, डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता पद से हट गए और सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी के नेता केरेनस्की रूसी प्रधान मंत्री बन गए | यह सरकार लगभग कम्युनिस्ट थी । लेकिन अगस्त में जब सेना सरकार के खिलाफ हो गई, तब सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी के नेता केरनेस्की और प्रांतीय सरकार के सदस्यों ने बोल्शेविकों से मदद मांगी । दूसरी तरफ बोल्शेविक ने अवसरवाद का परिचय देते हुए सरकार के खिलाफ अपना रुख बदल लिया । फलस्वरूप बोल्शेविकों की सहायता से, सरकार ने सैन्य विद्रोह को दबा दिया।
परिणाम स्वरूप सितंबर में ट्रॉट्स्की और अन्य जेल से बाहर आये और ट्रॉट्स्की ने सोवियत का नेतृत्व किया । अक्टूबर में, लेनिन पेट्रोग्राम वापस आये, उसके बाद बोल्शेविक ने एक संकल्प पारित कर मांग की कि प्रांतीय सरकार को हटाया जाना चाहिए। रूसी जूलियन कैलेंडर के अनुसार 25 अक्टूबर को महज 24 घंटे में यह अक्टूबर "क्रांति" संपन्न हुई | हम लोग जिस ग्रेगोरियन कैलेंडर का उपयोग करते हैं, उसके अनुसार यह 7 नवंबर था । जब प्रांतीय सरकार विंटर पैलेस में सत्र चल रहा था, बोल्शेविक द्वारा बनाई गई सैन्य क्रांतिकारी समिति ने भवन में प्रवेश किया और सरकार के सभी सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया। उस समय तक लेनिन छुपे हुए थे, उसके बाद वे बाहर आये और प्रांतीय सरकार के अंत की घोषणा की । यह सैन्य तख्तापलट केवल 24 घंटों में हो गया, जिसे "महान अक्तूबर क्रांति" के रूप में जाना जाता है | और इस प्रकार फरवरी में सत्ता में आई प्रांतीय सरकार के स्थान पर अक्टूबर में सोवियत सरकार सत्तारूढ़ हुई । भले ही सरकार को बदलने और मार्क्सवादी व्याख्या की प्रेरणा तब तक छुपे हुए लेनिन द्वारा दी गई थी, किन्तु वस्तुतः इस सैन्य तख्तापलट का नेतृत्व ट्रॉट्स्की ने किया था।
सैन्य तख्तापलट का प्रबंधन करने के लिए लेनिन और उसके लोगों ने जो वित्तीय प्रबंधन किया, उसके स्रोत के बारे में जानना दिलचस्प है । जी एडवर्ड ग्रिफिन ने अपनी पुस्तक द क्रीचर फ्रॉम जैकइल द्वीप The Creature from Jekyll Island के पृष्ठ क्रमांक १२३ पर बोल्शेविक के वित्तीय स्रोतों के बार में गंभीर आरोप लगाये हैं :
"बोल्शेविक क्रांति जनता द्वारा नहीं हुई, इसे बाहरी लोगों द्वारा नियोजित, वित्तपोषित और संगठित किया गया था। कुछ वित्तपोषण जर्मनी से आया था जो आशा करता था कि आंतरिक समस्याएं से जूझता रूस, उसके खिलाफ युद्ध बंदी को विवश हो जाएगा । लेकिन अधिकाँश धन और नेतृत्व इंग्लैंड और अमेरिका में फाइनेंसरों से आया था। "
पुस्तक से यह भी पता चलता है कि क्रांति के पहले से ही और बाद में भी लेनिन और ट्रॉट्स्की इन फाइनेंसरों के साथ घनिष्ठ संपर्क में रहे । कुछ इतिहासकारों का यह भी आरोप है कि जर्मन गुप्तचर सेवा के अलेक्जेंडर परवस नामक एक जासूस ने इस अभियान के संचालन में लेनिन और ट्रॉट्स्की की मदद की । यह उन कई उदाहरणों में से एक है कि कम्युनिस्ट अपनी उद्देश्य पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने में संकोच नहीं करते।
लोगों ने "क्रांति" के नेताओं को अस्वीकार किया
तथाकथित क्रांति के तुरंत बाद, 25 नवंबर, 1917 को रूस की संविधान समिति के चुनाव हुए। यह आम तौर पर अक्तूबर क्रांति को लेकर लोगों के समर्थन के बारे में एक जनमत संग्रह जैसा था । लेकिन ट्रॉट्स्की, लेनिन इत्यादि के नेतृत्व में बोल्शेविक, जिनने सत्ता हासिल की थी, जन समर्थन नहीं पा सके तथा चुनाव हार गए । जिस सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी को इन्होने उखाड़ फेंका था, उसे 41 प्रतिशत वोट मिले, जबकि बोल्शेविकों का उनसे लगभग आधे, अर्थात महज 23.5 प्रतिशत । कम्युनिस्ट सरकार के पूरे इतिहास में, यूएसएसआर में 1990 से पहले हुआ, यह अंतिम लोकतांत्रिक और स्वतंत्र चुनाव था।
चुनाव के बाद सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी के नेता विक्टर चेर्नोव की अध्यक्षता में 18 जनवरी, 1 9 18 को एक संविधान समिति गठित की गई । लेकिन जनादेश खोने से नाराज बोल्शेविकों के भय से अगले ही दिन चेर्नोव  को यूरोप भागना पड़ा | और इस प्रकार लोकतांत्रिक भावना को पूरी तरह नष्ट कर कम्युनिस्ट सरकार में आई । इसीलिए कई इतिहासकारों का मानना है कि अक्टूबर क्रांति सैन्य तख्तापलट के अतिरिक्त कुछ और नहीं है, जिसे बोल्शेविकों ने जनादेश का अपमान कर कारित किया |
चार साल तक चला गृहयुद्ध
इसके बाद, लेनिन, ट्रॉट्स्की, स्टालिन आदि के नेतृत्व में गठित इस अल्पसंख्यक सरकार के काल में चार साल तक लगातार रूस में गृहयुद्ध चला | मजे की बात यह कि कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने इसे भी अक्टूबर "क्रांति" के खाते में गिना । दमनकारी कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ चले इस नागरिक युद्ध के दौरान उदारवादियों ने 1918 में एक बहुत कमजोर "व्हाइट आर्मी" का गठन किया, जिसमें कुछ सैन्य अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, सम्राट के समर्थक और अन्य शामिल थे। सोवियत की "लाल सेना" के खिलाफ लड़ रही "व्हाईट आर्मी" का, अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और जापान जैसी पश्चिमी शक्तियों ने समर्थन किया । "व्हाइट आर्मी" के समर्थन में रूसी सीमा के अंदर व्लादिवोस्तोक में उनकी सैन्य संचालित परेड भी हुई | बोल्शेविक शासन के खिलाफ लड़ने के लिए, एक यूक्रेनी एन.आई.मखनो के नेतृत्व में, एक "ब्लैक आर्मी" भी बनी, जिसने लाल सेना में शामिल होने से मना कर दिया था । इसके अलावा बोल्शेविक शासन के खिलाफ लड़ने वालों में किसानों की "ग्रीन आर्मी" भी थी । सोवियत नौसैनिकों, कुछ लाल सेना के सैनिकों और बोल्शेविक सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ रहे लोगों द्वारा किये गए सशस्त्र विद्रोह को "क्रोन्दाद विद्रोह" के नाम से जाना जाता है।
बोल्शेविक ने इस विरोध से निबटने के लिए भीषण नरसंहार, अत्याचार, उत्पीड़न आदि का इस्तेमाल किया, ताकि 1918 में शुरू हुए इस नागरिक युद्ध को दबाया जा सके । कम्युनिस्टों द्वारा किए गए ये अत्याचार इतिहास में "लाल आतंक" के रूप में जाने जाते है। बोल्शेविक केंद्रीय कार्यकारी समिति के अध्यक्ष, याकोव स्वेर्ड्लोव स्वयं सितंबर 1 9 18 में आधिकारिक तौर पर इसे "लाल आतंक" घोषित कर चुके थे। 16 जुलाई 1918 को सुबह, लेनिन के आदेश पर अपने घर में ही नजर बंद ज़ार सम्राट, उनके परिवार और कर्मचारियों की क्रूरता पूर्वक हत्या कर दी गई। बोल्शेविक शासन के दौरान हुए प्रसिद्ध "क्रोंस्तद्त विद्रोह" को दबाने के नाम पर सेना ने लगभग 10,000 लोगों को मार डाला । यह व्यापक गृह युद्ध 1923 तक लगभग चार साल तक जारी रहा । आखिरकार बोल्शेविक ने सफलतापूर्वक सभी विरोधियों को समाप्त करने में सफलता पाई, क्योंकि वे ठीक से संगठित नहीं थे ।
 अक्टूबर "क्रांति" से प्राप्त शिक्षा -
गृहयुद्ध की अवधि के दौरान विश्व के समक्ष यह सिद्ध हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी कितनी निरंकुश और दमनकारी हैं । और कम्युनिस्ट दलों ने यह सीखा कि वे केवल राजनीतिक विरोधियों का विनाश करके ही अस्तित्व में रह सकते हैं और सत्ता हासिल कर सकते हैं । कहने को तो साम्यवाद के मूल दुश्मन पूंजीवादी थे, लेकिन लेनिन ने अपने ही साथी रहे मार्क्सवादी क्रांतिकारियों के खिलाफ ही "क्रांति" का नेतृत्व किया। उसके बाद, स्टालिन ने भी राजनीतिक विरोधियों का विनाश जारी रखा।
मार्क्सवाद औद्योगिक श्रमिकों को गले लगाता है, किन्तु किसानों को बाहरी समझता है। जब बोल्शेविक सरकार ने किसानों के खिलाफ कदम उठाये और कम्युनिस्ट तरीके से उनके अनाज पर कब्जा किया, तब सोवियत भी बोल्शेविकों के खिलाफ हो गये ।
ट्रॉट्स्की "विश्व क्रांति" का सपना संजोये थे | उनका मानना था कि केवल एक देश में क्रांति होने से कुछ नहीं होगा, कम्यूनिज्म को अन्य सभी देशों में भी फैलाना चाहिए। हालांकि सोवियत गठन और क्रांति के बाद लगभग रूसी गृहयुद्ध के समय, जर्मनी और हंगरी में यह प्रयोग किया भी गया, किन्तु यह बुरी तरह असफल हुआ ।
"क्रांति" की बैलेंस शीट (क्या खोया क्या पाया)
ट्रोटस्की ने रूस को रक्तरंजित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी, किन्तु अंत में उसे भी साम्यवादी क्रूरता का सामना करना पड़ा । बाइबिल में (मैथ्यू 26:52) कहते हैं "जो भी तलवार उठाते हैं, उनका विनाश भी तलवार से ही होगा ।" कम्युनिस्ट इतिहास में ट्रॉट्स्की इस नीतिवचन का जीवन्त उदाहरण बने । स्टैटिन के साथ त्रात्स्की के विवाद के बाद, उन्हें रूस से भाग जाना पड़ा | उसे पहले तुर्की और उसके बाद मैक्सिको में भारी सुरक्षा के बीच रहना पड़ा । स्टालिन के हत्यारे गिरोह ने उसका पीछा करते हुए कई बार उसकी ह्त्या के प्रयत्न किये । और अंत में 1940 में मैक्सिको के अपने अध्ययन कक्ष में कुल्हाड़ी से सर कुचलकर ट्रॉटस्की की हत्या कर दी गई ।
एक मोटे अनुमान के अनुसार कम्युनिस्ट रूस में विचार भिन्नता के चलते कम से कम 2 मिलियन लोगों की हत्याएं की गईं । यह संख्या हिटलर द्वारा मारे गए लोगों की संख्या से भी ज्यादा है | इतिहासकारों ने हिटलर को एक खलनायक के रूप में दर्शाया, जबकि कम्युनिस्ट स्टालिन को नहीं |शायद इसका कारण यह है कि हिटलर युद्ध में पराजित हुआ | सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन स्थापित होने के बावजूद, आर्थिक विकास हासिल नहीं किया जा सका । गरीबी को समाप्त नहीं किया जा सका, क्योंकि वितरण में समानता नहीं थी । यह पूरी तरह झूठ की बुनियाद पर खड़ा समाजवाद था, जिसने बाहरी दुनिया को कपोल कल्पित सफलता के किस्से सुनाये और जब 199 0 में यह लौह आवरण हटा, तब विश्व को वास्तविकता की जानकारी मिली । तब तक, भारत सहित समूची दुनिया में कम्युनिस्टों ने अपने कैडर को भ्रमित कर रखा था और उनको यूएसएसआर के काल्पनिक कम्युनिस्ट "स्वर्ग" के बारे में गाते बजाते भ्रमित और प्रेरित किया था । अंततः रूसी लोगों के दमन से अक्टूबर 1917 में शुरू हुई "क्रांति" का दर्दनाक अनुभव 199 0 में गोरबाचेव के सुधारों के माध्यम से लोकतंत्र की स्थापना के साथ समाप्त हुआ।
इतिहास का घुमाव
यह सोवियत मार्क्सवादी इतिहासकार थे जिन्होंने रूस में हुए सैन्य तख्तापलट को फरेब पूर्वक "क्रांति" कहा । सबसे लोकप्रिय किताब जिसने बाहर की दुनिया में अक्तूबर "क्रांति" को प्रसिद्धि दी, वह थी "दस दिन", जिसे एक अमेरिकी कम्युनिस्ट जॉन रीड ने लिखा था तथा जो पहली बार 1919 में प्रकाशित हुई । इसके दूसरे संस्करण की प्रस्तावना स्वयं लेनिन ने लिखी थी, जो इसे रूसी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रदत्त समर्थन को दर्शाता है। लेकिन कई अन्य पश्चिमी इतिहासकारों ने तथाकथित अक्टूबर "क्रांति" के पीछे के वास्तविक इतिहास को उजागर किया और रूस के कम्युनिस्टों द्वारा किये गए भीषण उत्पीड़न की कहानी का वर्णन किया | सोलगेनित्सिन ने अपनी प्रसिद्ध 'द गुल्लाग आर्किपेलगो' में स्पीगेल के एक साक्षात्कार का कुछ इस प्रकार वर्णन किया है
 '' 25 अक्टूबर 1917 को पेट्रोग्राम में एक हिंसक 24 घंटे का तख्तापलट हुआ । लियोन ट्रोट्स्की द्वारा इसकी योजना बहुत शानदार ढंग से और अच्छी तरह बनाई गई थी | उस दौर में देशद्रोह का आरोपी लेनिन अपनी जान बचाने के लिए छुपा हुआ था । जिसे हम '1917 की रूसी क्रांति' कहते हैं, वह वास्तव में फरवरी की क्रांति को कहा जाना चाहिए... .. मैंने उसे 'रेड व्हील' में वर्णित किया है । "
गैर-कम्युनिस्ट इतिहासकारों का कहना है कि एक दिन रूस के लोगों या पेट्रोग्राम के लोगों द्वारा भी " अक्टूबर की "महान क्रांति" को भुला दिया जाएगा । विद्रोह में भाग लेने वाले अराजकतावादी, पीटर अरशिनोव का भी यही मानना था |
अलेक्जेंडर बर्कमैन जो पहले रूसी क्रांति के प्रशंसक थे, सत्ता में आने के बाद कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा की गई क्रूरता को देखकर निराश हो गए और बोल्शेविक मिथ नामक पुस्तक लिखी । यह अलग बात है कि पुस्तक लिखने के बाद उन्हें 1921 में रूस से पलायन करना पड़ा । रूस छोड़ने के बाद उनके द्वारा रचित पुस्तक "रूसी त्रासदी" बहुत प्रसिद्ध हुई ।
भारत में आज कम्युनिस्ट मुख्य रूप से केरल, त्रिपुरा और जेएनयू तक ही सीमित है, वे भी अपने विकृत इतिहास पर चर्चा से घबराते हैं | शायद यही कारण है कि उन्होंने तथाकथित "ग्रेट अक्तूबर क्रांति" की 100 वीं वर्षगांठ का कोई समारोह या जश्न नहीं मनाया । यही हश्र कार्ल मार्क्स के 200 वें जन्म वर्ष का भी होने वाला है, जो 5 मई 2017 से 5 मई 2018 तक चल रहा है । कम्युनिस्टों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए, देखो हम लोगों ने स्वामी विवेकानंद की 150 वीं जयंती और आरएसएस के संस्थापक डॉ हेडगेवार और पूर्व सर संघचालक श्री गुरुजी की 100 वीं जयंती केरल सहित पूरे भारत में कितने व्यापक और भव्य रूप से मनाया था ।

साभार आधार : ओर्गेनाईजर
अनुवाद हरिहर शर्मा 


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क्रांतिदूत : कम्यूनिस्ट – रूस से भारत तक फर्जीबाड़ा ही फर्जीबाड़ा - साजी नारायण सी के (राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय मजदूर संघ)
कम्यूनिस्ट – रूस से भारत तक फर्जीबाड़ा ही फर्जीबाड़ा - साजी नारायण सी के (राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय मजदूर संघ)
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क्रांतिदूत
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