आधुनिक जीवन शैली और नेताओं का भविष्य !


आपने ऋषि वाल्मीकि कि वह कहानी पढी होगी, जिसमें उनके ह्रदय परिवर्तन की गाथा है | डाकू वाल्मीकि से ऋषि ने पूछा कि तुम इतने पाप करते हो, किसके लिए ? डाकू ने जबाब दिया - परिवार के पालन पोषण को | ऋषि का अगला प्रश्न था - क्या तुम्हारा परिवार तुम्हारे कर्मों के फल में भी तुम्हारा साथ देगा ? जरा अपने परिजनों से पूछो तो सही | और जैसा कि हम सब जानते हैं, उनके परिवार का कोई सदस्य कर्मफल में सहभागी बनने को तैयार नहीं हुआ | आधुनिक राजनेताओं में से कुछ की दुर्दशा सोचने को बाध्य करती है कि सत्ता का अर्थ क्या ? जब परिवार मृत्यु उपरांत कर्मफल तो दूर की बात है, इस जन्म में भी साथ नहीं देता |

दो दिन पूर्व 72 वर्षीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रियरंजनदास मुंशी, लगभग एक दशक तक गुमनामी की जिदंगी बिताने के बाद, यह फानी दुनिया छोड़ गए। उनका जन्म 13 नवंबर 1945 को दिगापुर पूर्व जिले में हुआ था जो कि अब बांग्लादेश में हैं। वे भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे, बंगाल में कम्यूनिस्टों के मुकाबले कांग्रेस की सरकार बनवाने में उनकी अहम भूमिका रही |

वे पहली बार महज 26 साल की उम्र में लोकसभा के लिए चुने गए। उसी साल उन्हें भारतीय युवा कांग्रेंस का अध्यक्ष बनाया गया। किन्तु आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने उन्हें हटा कर अपनी करीबी अंबिका सोनी को युवक कांग्रेंस का अध्यक्ष बना दिया। वे इस अपमान को नहीं भूले और इंदिरा गांधी की हार के बाद पार्टी छोड़कर देवराज अर्स की कांग्रेंस (एस) में शामिल हो गए | हालांकि राजीव गांधी के कार्यकाल में वे पुनः कांग्रेस में सम्मिलित हुए |

पांच बार लोकसभा सांसद रहे इस जुझारू नेता को 12 अक्टूबर 2008 को दिल का दौरा पडा व उसके बाद रक्त का चक्का जम जाने के कारण उन्हें पक्षाघात हो गया। वे बिस्तर पर लेटे रहते थे। उनकी हालत यह थी कि वे अपने शरीर का भार उठाने या सूप का चम्मच अपने मुंह तक ले जाने के काबिल नहीं रहे। प्रियरंजनदास मुंशी ने करीब नौ साल तक यह स्थिति झेली। उन्हें शुरू में एम्स में भर्ती करवाया गया। उन्हें सैमसैल उपचार के लिए जर्मनी के हसेलडोर्फ में भी ले जाया गया मगर वे ठीक नहीं हो पाए और उनके दिमाग ने काम करना शुरू नहीं किया। बाद में उन्हें भारत लाकर अपोलो अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया। चूंकि वे केंद्रीय मंत्री रहे थे अतः उनके ईलाज का सारा खर्च सरकार उठा रहीं थी।

किन्तु आधुनिक जीवन शैली की विडम्बना देखिये कि जीवन के अंतिम दौर में उनके परिवार ने भी उनसे मुंह मोड़ लिया | तीन साल बाद 2011 में अपोलो के प्रमुख डा प्रतापचंद्र रेड्डी ने यह कहा कि उनकी हालत में सुधार होने की कोई संभावना नहीं है और उनका कोई ऐसा ईलाज नही किया जा रहा है जो कि उनके घर पर न हो सकता हो। अतः बेहतर होगा कि उनका परिवार उन्हें घर ले जाए। मगर उनकी पत्नी दीपामुंशी ने उन्हें घर ले जाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि इन्हें संभाल पाना मेरे बस का नहीं है। घर में उनका इकलौटा बेटा था जोकि दिल्ली पब्लिक स्कूल में पढ़ रहा था।

जब तक यूपीए की सरकार रही तब तक कोई समस्या नहीं आई थी। उनके अस्पताल का बिल सरकार चुकाती रही। जब केंद्र मे मोदी सरकार सत्ता में आई तो तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डा हर्षवर्धन ने एक सवाल के जवाब में बताया कि चूंकि प्रियरंजन दास मुंशी ने देश के लिए बहुत कुछ किया है इसलिए देश का कर्तव्य है कि वह उनके लिए कुछ करे। इसके साथ ही ईलाज का सिलसिला जारी रहा और सरकार अस्पताल के बिल अदा करती रही। बताया जाता है कि उन पर हर दिन एक लाख रुपए खर्च हो रहे थे। लेकिन क्या पैसा ही सबकुछ है | अपने अंतिम समय में परिजनों की उपेक्षा का यह दंश कितना भीषण रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है |

दूसरी और जार्ज फर्नीडीस हैं, जिनकी देखभाल पिछले अनेक वर्षों से उनकी पत्नी लैला कबीर कर रही है। वे अलमाइजर रोग से पीडित है और यह समझने बूझने में असमर्थ है कि उनके साथ व उनके आस-पास क्या हो रहा है

साभार आधार नया इण्डिया रिपोर्टर डायरी श्री विवेक सक्सेना 
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