हिन्दुत्व की साक्षात प्रतिमूर्ति पंडित मदन मोहन मालवीय – पूनम नेगी

महामना पंडित मदन मोहन मालवीय हिन्दुत्व की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। वे उन तेजस्वी महापुरुषों में से थे, जिन्होंने हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान की सेना के लिए ही जन्म लिया था और अपने जीवन के अंतिम समय तक इस महान पुनीत लक्ष्य को पूरा करने हेतु समर्पित भावना से लगे रहे। मालवीय जी का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 को प्रयाग में श्रीमद्भगवत के प्रख्यात व्याख्याकार पंडित ब्रजनाथ जी के घर हुआ था। धर्मशास्त्रों एवं संस्कृत के महान विद्वान पिता के संस्कारों का पुत्र पर पड़ना स्वाभाविक था। अतः मदनमोहन बचपन से ही धर्मशास्त्रों एवं संस्कृत के प्रति रूचि लेने लगे। बाल्य काल से ही उनके हृदय में हिन्दूधर्म के संस्कारों के प्रति निष्ठा उत्पन्न हो गई। वे अपनी आयु के छात्रों के साथ त्रिवेणी किनारे जाकर गायत्री का जाप करते, मंदिरों के दर्शन करते। बिना संध्या किए पानी तक नहीं पीते थे। मालवीय जी के जीवन का प्रत्येक पल देशहित के चिंतन एवं कार्यों में व्यतीत हुआ था। उन्नति का कोई भी ऐसा विषय या क्षेत्र नहीं, जिसमें उन्होंने अग्रणी भूमिका न निभाई हो। मालवीय जी हमारी सभ्यता-संस्कृति के सामासिक विग्रह एवं एक प्रबल प्रकाश स्तम्भ थे। उन्होंने सदियों के शोषण, अत्याचार एवं विध्वंस से दबी-कुचली भारतीय आत्मा को प्राचीन ॠषियों के सनातन एवं शाश्वत संदेशों से पुनः जागृत करने और नव-निर्माण की नूतन उम्मीदों के संचार द्वारा उनमें साहस, शौर्य, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन की भावना भरने का प्रयास किया।

भारतमाता को गुलामी की जंजीर से मुक्त कराने में जिन वीर सपूतों का योगदान रहा, उनमे पंडित मदन मोहन मालवीय का नाम उल्लेखनीय है। महामना भारत की नेतृत्व प्रतिभा को भली-भांति पहचानते थे एक सुनहरे भविष्य की रूप-रेखा उनकी कल्पना में उभर चुकी थी जिसे साकार करने के लिए समाज के सर्वाधिक क्रियाशील अंग के सहयोग की आवश्कता थी। उन्होंने अनुभव किया कि आदर्श चरित्रों क अधिकारी युवक-युवतियां ही भविष्य का सामना कर सकते हैं, परन्तु उन्हें ऐसी शिक्षा के माध्यम से तैयार करना होगा जो आधुनिक होने के साथ-साथ धर्म और नीति पर भी पर्याप्त बल दे। स्वराष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव की वृध्दि के लिए और मानवता को आध्यात्मिक गंगा में नहलाने के लिए ही उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। महामना महापुरुष और श्रेष्ठ आत्मा थे। उन्होंने समर्पित जीवन व्यतीत किया तथा धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदि बहुत से क्षेत्रों में उत्कृष्ट सेवाएं की। धमकियों से निडर और प्रलोभनों से अनाकर्षित उन्होंने अन्याय और क्रूरता से संघर्ष किया तथा साहस और दृढ़तापूर्वक अपने उद्देश्य की नैतिकता पर दृढ़ विश्वास के साथ अपने देशवासियों के सामूहिक हित और उत्कृष्ट के लिए अंतिम सांस तक काम किया। निःसंदेह उनका व्यक्तित्व उनकी महान उपलब्धियों से कहीं अधिक प्रतिष्ठित था। वे अध्यात्मिक सद्गुणों, नैतिक मूल्यों तथा सांस्कृतिक उत्कर्ष के असाधारण संश्लेषण थे। वे निःसंदेह अजातशत्रु थे। 

धार्मिक मामलों में उनके विचार-शास्त्र की प्रमाणिकता तथा उदारवाद का मिश्रण थे। सनातन धर्म के मूलभूत सिध्दांतों की उनकी व्याख्या निश्चित ही बहुत उदार थी। वह मानवता की भावना से सर्वजनीन प्रेम से तथा मानवहित के प्रति निःस्वार्थ निष्ठा से ओत-प्रोत थी । उन्होंने अपने ढंग से हरिजनों के उत्थान तथा हिन्दू समाज के शेष भाग से उनके निकट सम्मिलन (इंटीग्रेशन) में बहुत योगदान किया। भारतीय संस्कृति को जिन महार्षियों ने अपने जीवन का सारा अस्तित्व सौंप कर उसे अक्षुण्य और सुबोध बनाया है, उनमें मालवीय का नाम प्रथम पंक्ति में है। प्राचीन परंपराओं और नूतन मान्यताओं के संधि-स्थल से महामना ने आधुनिक भारतीय, संस्कृति और राष्ट्रीयता को जो संदेश दिया, उसे आने वाली पीढ़ी युग-युग तक स्मरण करेगी। स्वतंत्रता प्राप्त कर ‘अपने देश में अपना राज’ के संदेश से उस महापुरुष ने हमें जो प्रेरण दी, उससे भारत के नव-निर्माण की दिशा-दृष्टि मिलती है। मालवीय जी द्रष्टा थे, जिस भी क्षेत्र में उन्होंने स्वप्न देखा उसे पूरा किया। मालवीय जी जीवन भर सत्य, न्याय और परस्पर सौहार्द, परदुःख आदि से प्रभावित रहे। दैनिक "लीडर" के प्रधान संपादक श्री सी.वाई. चिंतामणि ने एक बार लिखा था, "महात्मा गांधी के मुकाबले में अगर कोई व्यक्ति खड़ा किया जा सकता है तो वह अकेले मालवीय जी महाराज हैं और बहुत से मामलों में वह उनसे भी बढ़ कर हैं। मालवीय जी के जीवन में जब तक सांस रही तब तक वे देश की उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहे।" 

मालवीय जी का नाम लेते ही एक पवित्र तथा शालीन और प्रतिभाशाली महामानव की याद ताजा हो जाती है। उनके व्यक्तित्व में एक अनोखा आकर्षण था और उनकी वाणी में इतनी मिठास, लेकिन इतनी शक्ति थी कि असंख्य लोग स्वतः ही उनकी ओर खिच जाते थे और उन पर उनका स्थायी प्रभाव पड़ता था। उन्होंने अपने लंबे कर्तव्य परायण जीवन के द्वारा हमारे सामने यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि समाज और देश की सेवा में कभी भी विश्राम करने की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि वे स्वतः अपने जीवन के प्रारम्भ से अंत तक देश की सेवा में संलग्न रहे। आज भी उनका विविधतापूर्ण जीवन हमें एक नया संदेश देता हे और कर्तव्यपथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। 

मदन मोहन बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि थे। बचपन में घर में एकांत स्थान न होने के कारण वे प्रायः अपने सहपाठी के घर जाकर पढ़ते थे। उस समय भारत पर अंग्रेजो का शासन था और देश की स्थिति बहुत गंभीर और दयनीय हो चुकी थी। अंग्रेजी विद्यालयों में हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति के विरोध में बहुत दुष्प्रचार होता था। मदन मोहन जब भारत की दुर्दशा और अंग्रेजो के अत्याचार के बारे में सोचते थे तो उनका मन अंग्रेजों के प्रति घृणा से भर जाता था। उनके संस्कारों ने उन्हें देशभक्ति का पाठ पढाया। हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति के प्रति मदन मोहन का गहरा लगाव था। इसका विरोध वे चुपचाप सहन न कर सके। उन्होंने अपने कुछ साथियों के मदद से 'वाग्वर्धिनी सभा' की स्थापना की। इस सभा के माध्यम से उन्होंने जगह -जगह भाषण देकर अंग्रेजो द्वारा हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध किये जाने वाले प्रचार का विरोध किया।

पढाई के प्रति मदन मोहन की रूचि भांपकर उनके पिता ने उनका दाखिला म्योर सेंट्रल कॉलेज में करा दिया था। म्योर सेंट्रल कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक पंडित आदित्यराम भट्टाचार्य ने उन्हें संस्कृत के अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया। मदन मोहन मालवीय अंग्रेजी सभ्यता के विरोधी थे। उन्होंने एक प्रहसन लिखा था 'जेंटलमैन'। इस प्रहसन में उन्होंने अंग्रेजी सभ्यता की खिल्ली उड़ाई थी।

पढाई करने के उपरांत उन्हें एक विद्यालय में अध्यापक की नौकरी मिल गयी। मालवीयजी के सभी छात्र उनका बहुत सम्मान करते थे। उनकी शिक्षण शैली इतनी सुरुचिपूर्ण थी कि छात्रों को उनका पढाया हुआ पाठ पूरी तरह समझ आ जाता था। अध्यापन काल में भी उनकी सामाजिक रुचियों का दायरा प्रयाग से निकलकर देश के विभिन्न नगरों तक फैलने लगा। वे अपने सेवा- क्षेत्र में पूरे भारत को शामिल करना चाहते थे। सन 1886 में कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में होने जा रहा था, तो मालवीय जी अपने गुरु पं. आदित्यराम भट्टाचार्य के साथ उसमें शामिल होने के लिए गए। यह अधिवेशन मालवीय जी के वास्तविक राजनीतिक जीवन का शुभारम्भ था। अधिवेशन में उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर वहां उपस्थित सभी लोग मालवीय जी से बहुत प्रभावित हुए। मालवीय जी के भाषण और उनके विचारों से कालाकांकर राजा रामपाल सिंह इतने प्रभावित हुए की उन्होंने मालवीय जी को 'हिंदुस्तान' पत्र का संपादक बना दिया। उस समय मालवीय जी ने उनसे कहा ,"राजा साहब, मैं ब्राह्मण हूँ। मेरे कुछ नियम है, परम्पराएं है। आपका प्रस्ताव मैं इस शर्त पर स्वीकार कर सकता हूँ कि जब आप मदिरा का सेवन किये हों तो मैं आपके पास नहीं आऊँगा।" राजा साहब ने शर्त मान ली।
सन 1887 में मालवीय जी ने अध्यापक पद से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे कालाकांकर जाकर 'हिंदुस्तान' पत्र का संपादन करने लगे। यहाँ उनके व्यक्तित्व का एक विराट पक्ष उभरकर सामने आया। मालवीय जी के संपादन में 'हिंदुस्तान' ने बड़ी ख्याति अर्जित की। उनके प्रभावित लेखों को जन मानस बड़ी रूचि से पढता था। पत्र में जनता और सरकार, दोनों की कमियों और उपलब्धियों पर निष्पक्ष एवं निर्भीकतापूर्वक लेख छपते थे। मालवीय जी ने ढाई वर्ष तक 'हिंदुस्तान' का संपादन किया। इस अवधि में उन्होंने पत्र को एक सामाजिक दर्जा दिलवाने में सफलता प्राप्त की। सन 1889 में वे कालाकांकर छोड़कर प्रयाग आ गये। वहां उन्हें अंग्रेजी पत्र 'इंडियन ओपेनियन' के संपादन का कार्य किया। संपादन के साथ-साथ मालवीय जी देश की सामाजिक समस्याओं को दूर करने के बारे में भी सोचते थे। भारतीयों में हिन्दू धर्म संस्कृति के प्रति जागरूकता लाने के लिए वे एक हिन्दू विश्वविधालय स्थापित करना चाहते थे। अपने इस विचार को जनमानस तक पहुँचाने के उददेश्य से उन्होंने पत्र 'अभ्युदय' का प्रकाशन आरम्भ कर दिया। इस पत्र के माध्यम से वे जनमानस को अवगत कराते थे कि शिक्षा और सुधार कार्यों के नाम पर अंग्रेज अधिकारी हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतों पर प्रहार करते है; अपने धर्म को श्रेष्ठ बताने के लिए वे ज्यादा से ज्यादा हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन का प्रलोभन देते है; यह सब देखकर मालवीय जी को बड़ा दुःख होता था। वे किसी भी धर्म को छोटा या बड़ा नहीं मानते थे परन्तु किसी एक धर्म की श्रेष्ठता बताने के लिए दूसरे धर्म का अपमान करना उन्हें सहन नहीं था। मालवीय जी एक शिक्षित और धार्मिक परिवार में पैदा हुए थे, इसलिए बचपन से ही उनके हृदय में हिन्दू संस्कार कूट-कूटकर भरे हुए थे। 

कुछ मित्रों ने उन्हें वकालत पढने और वकालत के माध्यम से देशसेवा करने के लिए प्रेरित किया। मित्रों के आग्रह पर मालवीय जी प्रयाग उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। कुछ दिनों में ही उन्होंने कई मुक़दमे जीतकर सभी को हतप्रभ कर दिया। वकालत में मालवीय जी ने खूब ख्याति अर्जित की। धीरे-धीरे उनका नाम देश के उच्चकोटि के वकीलों में लिया जाने लगा। मालवीय जी कभी झूठा मुकदमा नहीं लेते थे। वे अत्यंत कुशाग्र होने के साथ-साथ परम विवेकी भी थे। वे अपने तर्कों को इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते कि विरोधी पक्ष के वकील को उसके खंडन की कोई युक्ति नहीं मिलती थी। वकालत से मालवीय जी को जो उपलब्धि हासिल हुई, उससे न तो उनके मन में कभी अहंकार का भाव आया और न ही उन्होंने उसे अपनी अंतिम उपलब्धि माना। उनके हृदय में तो तीव्र आकांक्षाएं थी। उनका सबसे बड़ा स्वप्न काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करना था। उनके पिता ने उनसे कहा था कि यदि तुम्हें अपना यह स्वप्न पूर्ण करना है तो वकालत छोडनी पड़ेगी। मालवीय जी ने कुछ समय बाद ही वकालत छोड़ दी। सन 1906 में मालवीय जी ने कुम्भ के पावन पर्व पर 'सनातन धर्म महासभा' का शुभारम्भ किया। इसी समय 'काशी विश्वविद्यालय' की स्थापना का प्रस्ताव भी पारित हुआ। सन 1907 में काशी नरेश की अध्यक्षता में आयोजित एक सभा में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया। सभा में उपस्थित कई सदस्यों ने इसकी सफलता पर संदेह व्यक्त किया; लेकिन अंत में यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। प्रस्ताव की स्वीकृति से मालवीय जी का उत्साह बढ गया। वे इस योजना को कार्यान्वित करने के प्रयासों में जुट गए। विश्वविद्यालय का निर्माण कार्य शुरू करने में काफी धन की आवश्यकता थी। कोई अकेला व्यक्ति इतना धन नहीं दे सकता था। मालवीय जी ने निश्चय किया कि वे पूरे देश में घूम -घूमकर विश्वविद्यालय के लिए धन राशि एकत्र करेंगे। मालवीय जी ने पूरे देश का दौरा करना शुरू कर दिया। वे विश्वविद्यालय के मानचित्र को साथ ले कर चलते थे और घर-घर जाकर अपनी राष्ट्रीय शिक्षा योजना के बारे में बताते थे। वे जहाँ-जहाँ भी गए; उन्हें विश्वविद्यालय के लिए दान में कुछ न कुछ अवश्य मिला। 4 फरवरी, 1916 को वसंत पंचमी (सरस्वती पूजा) के दिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया गया। उसके उदघाटन समारोह में गांधीजी सहित देश-विदेश के कई गणमान्य व्यक्ति शामिल हुए।

मालवीय जी ने शिक्षा के बाद जिस विषय पर सबसे ज्यादा प्रभावशाली भाषण दिया, वह 'शर्तबंद कुली प्रथा' थी। मालवीय जी ने इस प्रणाली का विरोध वायसरॉय लोर्ड हार्डिंग के समय में किया। उन्होंने लोर्ड हार्डिंग के समक्ष इस प्रणाली को तत्काल समाप्त करने की अपील की। इस प्रणाली को समाप्त करने के लिए दिए गए भाषण में उन्होंने कहा था -"इस प्रणाली ने पिछले कई सालों से समाज का शोषण किया है। हमारे कितने ही भाई-बहन इस विनाशकारी प्रणाली के शिकार बने और कितने शारीरिक व मानसिक यातना भुगत रहे है। अब समय आ गया है क़ि इस प्रणाली को समाप्त कर देना चाहिए।" मालवीय जी का प्रयास सफल रहा और लोर्ड हार्डिंग ने इस प्रणाली को समाप्त करने घोषणा कर दी।

सन 1919 में अंग्रेजी सरकार ने रोलट एक्ट पारित किया। इस एक्ट में समस्त भारतीयों की मानवीय अस्मिता का मखौल उड़ाया गया था। मालवीय जी ने इसका विरोध करते हुए विधान परिषद् में उत्तेजित भाषण दिए। गांधीजी ने भी इस एक्ट का विरोध करते हुए घोषणा की, 'यदि इस एक्ट को स्वीकार किया गया तो मैं सत्याग्रह आन्दोलन शुरू कर दूंगा, परिणाम चाहे कुछ भी हो।' रोलट एक्ट के विरोध के लिए पंजाब के जलियाँवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया गया था। वहां एकत्रित हजारों लोगों पर जनरल डायर ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। आदेश पाते ही अंग्रेज सैनिकों ने गोली चला दी। इसमें सैंकड़ों निर्दोष भारतीय मारे गए और अनेक घायल हुए। अंग्रेजो के इस कुकृत्य से पूरा देश स्तब्ध रह गया। देश भर में इन्कलाब की लहर दौड़ गयी। मालवीय जी ने विधान सभा में उपस्थित होकर जोरदर शब्दों में इसका विरोध किया। अपने तर्कों से उन्होंने इस हत्याकांड को अनधिकृत और अमानवीय सिद्ध किया। इस सम्बन्ध में मालवीय जी ने सरकार को भी आरोपी सिद्ध किया।

मालवीय जी हृदय में दीन-दुखियों के लिए अपार सहानुभूति थी। एक बार मालवीयजी प्रयाग में शाम के समय घूम रहे थे। रास्ते में चलते हुए उन्हें एक भिखारिन दिखाई पड़ी। वह बहुत वृद्ध हो चुकी थी और पीड़ा से कराह रही थी। मालवीय जी ने उसके पास जाकर पूछा ,"आपको क्या कष्ट है माताजी?" मालवीय जी के अपनत्व भरे शब्दों को सुन कर भिखारिन के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। कराहते हुए उसने बताया,"मेरे शरीर में घाव हो गए हैं। मेरे परिवार वालों ने मुझे त्याग दिया है।" सड़क पर आते-जाते लोगों ने मालवीय जी को भिखारिन के पास खड़े देखा तो वहां भीड़ लग गयी। कई लोग भिखारिन के कटोरे में सिक्के डालने लगे। मालवीय जी ने कहा, "मित्रों! इन्हें धन की नहीं, चिकित्सा की आवश्यकता है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है क़ि हमारे बुजुर्ग इस तरह त्याग दिए जाते हैं।" मालवीय जी ने उस वृद्धा को तांगेपर बिठाया और इलाज के लिए अस्पताल तक पहुँचाया।
मालवीयजी हर परिस्थिति में निर्भय और आशावादी रहते थे। उनकी आशावादिता उन्हें ही नहीं, बल्कि अन्य लोगों को भी लाभान्वित करती थी। एक बार पं शिवराम जी के भतीजे काशीप्रसाद गंभीर रूप से बीमार हुए। उन्हें तेज बुखार था। पं शिवराम जी बहुत चिंतित थे। वे मालवीयजी में गहरी आस्था रखते थे। उनका विचार था की एक बार यदि मालवीय जी रोगी के सिर पर हाथ रख दें तो वह अवश्य ही स्वस्थ हो जाएगा। मालवीय जी के किसी मित्र ने इसके बारे में बताया। मालवीय जी तुरंत शिवराम जी के यहाँ पहुंच गए। मालवीय जी ने रोगी के पिता से कहा ,"चिंता करने की कोई बात नहीं, यह अभी अच्छा हो जाएगा।" मालवीय जी के शब्दों का चमत्कार था या आस्था का आदर, यह बताना तो मुश्किल है, लेकिन रोगी आधे घंटे बाद ही स्वस्थ होने लगा।

मालवीयजी में मानवता कूट-कूटकर भरी हुई थी। उनके हृदय में देश और देशवासियों के प्रति अपार स्नेह था। उन्होंने शिक्षा, धर्म और राजनीति सभी क्षेत्रों में अग्रणी योगदान दिया।" जीवन भर देश की सेवा में लगे रहने वाले, मानवता के पुजारी महामना मदन मोहन मालवीय जी नवम्बर 1946 में परमात्मा में विलीन हो गए। 

खेद है कि यह भावना स्वराज के बाद कुछ शिथिल तथा विकृत सी होने लगी है। स्वार्थ की मात्रा बढ़ने लगी है। मालवीय जी पवित्र स्मृति में हमें अपने अंतःकलह को धोकर उनके ही पथ का अनुसरण करना चाहिए। वस्तुतः यही उनके प्रति सच्ची श्रध्दांजलि और सेवा की भावना होगी।

पूनम नेगी 
16 , अशोक मार्ग पटियाला कम्पाउण्ड
हजरतगंज, लखनऊ
मो. 9984489909


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