अयोध्या का गोरखपुर कनेक्शन और दो योद्धाओं की दोस्ती - परमहंस रामचंद्र दास व हाश‍िम अंसारी - संजय तिवारी


श्री राम जन्मभूमि विवाद ने देश की राजनीति तो बदला ही , देश की सोच भी बदली है। इस बदलाव की हवा के तेज गति पकड़ने में कई पड़ाव आते हैं लेकिन यह महज इत्तफाक भी हो सकता है कि अयोध्या विवाद का गोखपुर से बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है। यदि कुछ क्रम में देखें तो बहुत कुछ साफ़ दिखता है। जैसे , जब श्रीराम जन्मभूमि का वर्ष १९४९ से बंद ताला खुला तब प्रदेश में मुख्य मंत्री वीरबहादुर सिंह थे। वह गोरखपुर के ही थे। वह ताला खोलने का आदेश जिस जज ने दिया वह कृष्ण मोहन पांडेय भी गोरखपुर के थे। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति बनी तो गोरखनाथ मंदिर के महंत अवेद्यनाथ जी को ही इसका अध्यक्ष बनाया गया। आज प्रभु श्रीराम को तिरपाल में रहते 25 वर्ष हो चुके। इन 25 वर्षो में देश और दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका है। इसी श्री राम के नाम की राजनीति करती आ रही भाजपा को इस देश ने बागडोर सौप रखी है। प्रदेश की बागडोर उसी अवेद्यनाथ जी के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ जी के पास है। यानी फिर गोरखपुर की एक बड़ी भूमिका बन चुकी है। 

युगांतकारी फैसला 
अयोध्या के विवादित ढांचे को लेकर हिंदू-मुस्लिम समुदाय अपने-अपने दावे तो अरसे से कर रहे थे लेकिन इस चिंगारी को हवा दी 31 साल पहले फैजाबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश के एक आदेश ने। 1 फरवरी 1986 को दिये गये इसी आदेश से इस ढांचे पर 37 वर्षों से लगे ताले को खोलने का रास्ता साफ हुआ। इस आदेश में न्यायाधीश ने यह अनुमति भी दे दी थी कि दर्शन व पूजा के लिए लोग रामजन्मभूमि जा सकते हैैं। 25 जनवरी 1986 को अयोध्या के वकील उमेश चंद्र पांडेय ने फैजाबाद के मुंसिफ (सदर) हरिशंकर द्विवेदी की अदालत में विवादास्पद ढांचे को रामजन्मभूमि मंदिर बताते हुए उसके दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिए याचिका दाखिल की। यह कहते हुए कि रामजन्मभूमि पर पूजा-अर्चना करना उनका बुनियादी अधिकार है। मुंसिफ ने इस मामले में कोई आदेश पारित नहीं किया क्योंकि इस संदर्भ में मुख्य वाद हाईकोर्ट में विचाराधीन था। लिहाजा उन्होंने एप्लीकेशन को निस्तारित करने में असमर्थता जतायी। उन्होंने कहा कि मुख्य वाद के रिकार्ड के बिना वह आदेश पारित नहीं कर सकते। उमेश चंद्र पांडेय ने इसके खिलाफ 31 जनवरी 1986 को जिला एवं सत्र न्यायाधीश फैजाबाद की अदालत में अपील दायर की। उनकी दलील थी कि मंदिर में ताला लगाने का आदेश पूर्व में जिला प्रशासन ने दिया था, किसी अदालत ने नहीं।

एक फरवरी 1986 को जिला एवं सत्र न्यायाधीश कृष्ण मोहन पांडेय ने उनकी अपील स्वीकार की। इस मामले में जज ने फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी इंदु कुमार पांडेय और एसएसपी कर्मवीर सिंह को कोर्ट में तलब किया था। दोनों ने अदालत को बताया कि ताला खोलने से कानून व्यवस्था के बिगडऩे की आशंका नहीं है। जज ने इस मामले में बाबरी मस्जिद के मुख्य मुद्दई मोहम्मद हाशिम व एक अन्य पक्षकार के तर्कों को भी सुना। राज्य सरकार ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में वकील उमेश चंद्र पांडेय की याचिका का विरोध किया। यह कहते हुए कि रामजन्मभूमि के गेट पर लगे ताले को खोलने से कानून व्यवस्था भंग होने की आशंका है। न्यायाधीश ने सरकार की यह दलील ठुकराते हुए कहा कि रामजन्मभूमि पर ताला लगाने का कोई भी आदेश किसी भी अदालत में पूर्व में नही दिया है।

1 फरवरी 1986 को मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के बाद जज ने कहा कि वह मुकदमे का फैसला उसी दिन शाम 4.15 बजे करेंगे। शाम 4.15 बजे उन्होंने ताला खोलने का आदेश दिया। न्यायाधीश ने इस बात की भी अनुमति दी कि जनता दर्शन व पूजा के लिए रामजन्मभूमि जाए। अपने आदेश में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि राज्य सरकार अपील दायर करने वाले तथा हिंदुओं पर रामजन्मभूमि में पूजा या दर्शन में कोई बाधा और प्रतिबंध न लगाए। न्यायाधीश के आदेश देने के बमुश्किल 40 मिनट बाद ही सिटी मजिस्ट्रेट फैजाबाद रामजन्मभूमि मंदिर पहुंचे और उन्होंने गेट पर लगे ताले खोल दिये। इसके बाद से ही इस प्रकरण पर सभी पक्षकार अधिक सक्रिय हुए।

गजब की दोस्ती , अजब पैरवी 
राम मंद‍िर के पैरोकार रहे परमहंस रामचंद्र दास और बाबरी मस्ज‍िद के पैरोकार हाश‍िम अंसारी दोनों इस दुन‍िया में नहीं हैं। दोनों के बीच वैचार‍िक लड़ाई जरूर थी, लेक‍िन उनकी दोस्ती अटूट थी। अब शायद ही ऐसा द‍िखने को म‍िले। बता दें, दोनों एक ही साथ एक ही रिक्शे पर होकर कचहरी जाते थे। दिनभर की जिरह के बाद हसंते-बोलते एक ही रिक्शे से घर वापस आते थे। करीब 6 दशक तक यूं ही उन्होंने दोस्ती न‍िभाई। दूसरी ओर, मौजूदा समय में दोनों तरफ के जो पैरोकार हैं उनके जैसे रिश्ते नहीं दिखते हैं। दोनों तरफ के पैरोकार अपने-अपने सुरक्षा घेरे में आते हैं और अदालत में पैरवी करके चले जाते हैं, इनके बीच कोई उस तरह का संवाद होता नहीं द‍िखता। अयोध्या के महंत नारायणाचारी बताते हैं क‍ि उन दिनों में हम यह इंतजार किया करते थे क‍ि कब दोनों लोग खाली समय में दन्तधावन कुंड के पास आएंगे। अक्सर शाम होते वह एक साथ आते थे और ताश के पत्ते खेलते थे। यह खेल देर रात तक चलता था। चाय पी जाती थी, नाश्ता किया जाता था, लेकिन एक भी शब्द मंदिर-मस्जिद को लेकर नहीं बोला जाता था।
साकेत विद्यालय (अयोध्या) के पूर्व प्राचार्य बीएन अरोड़ा का कहना है क‍ि उनकी वैचारिक लड़ाई थी। वह अपने-अपने हक और आराध्या के लिए कचहरी में पैरवी करते थे। उनकी कोई भी व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। संस्कृत विद्यालय के आचार्य रहे पंडित धनंजय मिश्र की मानें तो हाशिम अंसारी गजब जीवट के आदमी थे। उनके चेहरे पर झुर्रियों के साथ-साथ मायूसी मैंने 20 सालों में कभी नहीं देखी। हाश‍िम अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा बचे हुए लोगों में से थे, जो दशकों तक अपने धर्म और बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और कानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ते रहे। अयोध्या संस्थान के सहायक प्रबंधक राम तीरथ कहते हैं कि मुझे यहां नौकरी करते हुए 30 साल का समय हो गया। हाश‍िम अंसारी के स्थानीय हिंदू साधु-संतों से उनके रिश्ते कभी खराब नहीं हुए। मैं जब भी उनके घर गया, हमेशा आस-पड़ोस के हिंदू युवक चचा-चचा कहते हुए उनसे बतियाते हुए मिले। जब महंत रामचंद्र परमहंस का देहांत की सूचना हाशिम अंसारी को मिली तो वह पूरी रात उनके पास रहे। दूसरे दिन अंतिम संस्कार के बाद ही वह अपने घर गए।

1949 से मुकदमें की पैरवी 
हाशिम के बेटे इकबाल अंसारी बताते हैं कि अब्बू (हाशिम) 1949 से मुकदमें की पैरवी शुरू की थी, लेकिन आज तक किसी हिंदू ने उनको एक लफ्ज गलत नहीं कहा। हमारा उनसे भाईचारा है, वो हमको दावत देते हैं। मैं उनके यहां सपरिवार दावत खाने जाता हूं। मौजूदा समय में मामले के पैरोकार हाजी महबूब बताते हैं कि दूसरे प्रमुख दावेदारों में दिगंबर अखाड़ा के रामचंद्र परमहंस से हाशिम की अंत तक गहरी दोस्ती रही। परमहंस और हाशिम ये दोनों दोस्त अब जीवित नहीं रहे, लेकिन उनकी दोस्ती अयोध्या-अवध की मिलीजुली गंगा-जमुनी तहजीब का केंद्र रहा है। हाशिम इसी संस्कृति में पले बढ़े थे, जहां मुहर्रम के जुलूस पर हिंदू फूल बरसाते हैं और नवरात्रि के जुलूस पर मुसलमान फूलों की बारिश करते हैं। हाशिम का परिवार कई पीढ़ियों से अयोध्या में रह रहा है। वो 1921 में पैदा हुए थे। 20 जुलाई 2016 को उनका देहांत हो गया। वहीं, 11 साल की उम्र में 1932 में हाश‍िम के पिता का देहांत हो गया था। दर्जा (कक्षा) दो तक पढ़ाई की थी। फिर सिलाई यानी दर्जी का कम करने लगे। फैजाबाद में उनकी शादी हुई। उनके दो बच्चे एक बेटा और एक बेटी हैं। उनके परिवार की आमदनी का कोई खास जरिया नहीं है। 6 दिसंबर 1992 के बलवे में बाहर से आए दंगाइयों ने उनका घर जला दिया, लेक‍िन अयोध्या के हिंदुओं ने उन्हें और उनके परिवार को बचा ल‍िया।

परमहंस रामचंद्र दास
साल 1913 में जन्मे 92 वर्षीय रामचंद्र परमहंस का 31 जुलाई 2003 को अयोध्या में निधन हो गया था। वे 1934 से ही अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े थे। दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या में परमहंस रामचन्द्र दास अध्यक्ष रहे, जिसमें श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ। महंत परमहंस रामचंद्र दास (१९१२ - ३१ जुलाई २००३) राम मन्दिर आंदोलन के प्रमुख संत व श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष थे। वे सन् ४९ से रामजन्म-भूमि आंदोलन में सक्रिय हुए तथा १९७५ से उन्होने दिगम्बर अखाड़े के महंत का पद संभाला। उन्होने कहा था कि
"मेरे जीवन की तीन ही अन्तिम अभिलाषाएं हैं। पहली- राम मन्दिर, कृष्ण मन्दिर, काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण। दूसरी- इस देश में आमूल-चूल गोहत्या बन्द हो। तीसरी- भारत मां को अखण्ड भारत के रूप में देखना। इसके लिए मैं जीवन भर संघर्ष करता रहा हूं और आगे जीवित रहा तो भी संघर्ष करता रहूंगा। मरने पर मैं मोक्ष नहीं चाहूंगा। मेरी अब एक ही कामना है जो मैं कह चुका हूं।"

परमहंस जी महाराज का पूर्व नाम चन्द्रेश्वर तिवारी था। १७ वर्ष की आयु में साधु जीवन अंगीकार करने के बाद उनका नाम रामचन्द्र दास हो गया। बिहार के छपरा जिला के सिंहनीपुर ग्राम में १९१२ में माता स्वर्गीय श्रीमती सोना देवी और पिता श्री पण्डित भगेरन तिवारी (सम्भवत: भाग्यरन तिवारी) के पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ था। महाराजश्री के पिताजी सरयूपारीय, शाण्डिल्य गोत्रीय धतूरा तिवारी ब्राह्मण थे।

चंद्रेश्वर बालक ही थे कि माता स्वर्ग सिधार गयीं। कुछ दिनों बाद पिता भी नहीं रहे। परिणामस्वरूप इनके शिक्षण एवं लालन-पालन का दायित्व घर में सबसे बड़े भाई यज्ञानन्द तिवारी के कंधों पर आ गया। परिवार में कुल चार भाई, चार बहनों का जन्म हुआ। परमहंस जी चारों भाइयों में सबसे छोटे थे। मंझले दोनों भाई अपनी अल्पायु में ही चल बसे, आज कोई बहन भी जीवित नहीं है। इस प्रकार परिवार में केवल दो भाई शेष रहे। सबसे बड़े यज्ञानन्द तिवारी और सबसे छोटे चन्द्रेश्वर तिवारी। बड़े भाई उनसे लगभग १७ वर्ष बड़े थे।

श्री चंद्रेश्वर तिवारी जब कक्षा १० में पढ़ते थे, तभी पास के किसी ग्राम में यज्ञ देखने गए और सन्तों के सम्पर्क में आ गए। ग्राम में रहकर १२वीं कक्षा पास की। उसके पश्चात्‌ साधु जीवन स्वीकार कर लिया। उस समय लगभग १५ वर्ष की आयु में हृदय में वैराग्य भाव जागृत हो गया था। पटना आयुर्वेद कालेज से आयुर्वेदाचार्य, बिहार संस्कृत संघ से व्याकरणाचार्य तथा बंगाल से साहित्यतीर्थ की परीक्षाएं पास कीं। परमहंस जी महाराज १९३० ई. के लगभग अयोध्या आ गए थे। अयोध्या में वे रामघाट स्थित परमहंस रामकिंकर दास जी की छावनी में रहे। (आज इसी स्थान पर श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर के लिए पत्थरों की नक्काशी का कार्य होता है।) महाराज जी के आध्यात्मिक गुरु ब्रह्मचारी रामकिशोर दास जी महाराज (मार्फा गुफा जानकी कुण्ड, चित्रकूट) थे। १९७५ में श्री पंच रामानन्दीय दिगम्बर अखाड़ा की अयोध्या बैठक के महन्त पद पर प्रतिष्ठित किए गए। इनके पूर्व गुरु का नाम श्री महन्त सुखराम दास जी महाराज (दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या) था। हरिद्वार में कुम्भ आयोजन के पूर्व देशभर से रामानन्द सम्प्रदाय के संतों के वृन्दावन में एकत्र होने की परम्परा है। इसी परम्परा के अनुसार १९९८ में वृन्दावन में वे अखिल भारतीय श्री पंच रामानन्दीय दिगम्बर अनी अखाड़ा के सर्वसम्मति से श्री महन्त चुने गए।

श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष जगद्गुरु रामानन्दाचार्य पूज्य स्वामी शिवरामाचार्य जी महाराज का साकेतवास हो जाने के पश्चात्‌ अप्रैल, १९८९ में परमहंस जी महाराज को श्रीराम जन्मभूमि न्यास का कार्याध्यक्ष घोषित किया गया। बाद में वे श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण समिति के अध्यक्ष भी चुने गए।

जगद्गुरु रामानन्दाचार्य पूज्य स्वामी भगवदाचार्य जी महाराज ने आपको "प्रतिवाद भयंकर' की उपाधि से सुशोभित किया था। महंत श्री ने विशिष्टाद्वैत की शिक्षा श्री अयोध्या प्रसादाचार्य जी से ग्रहण की थी। धर्मसम्राट पूज्य स्वामी करपात्री जी महाराज ने परमहंस जी के बारे में एक बार टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह व्यक्ति केवल विद्वान ही नहीं अपितु पुस्तकालय है।

संघर्ष गाथा

परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज ने श्रीराम जन्मभूमि में पूजा-अर्चना के लिए १९५० में जिला न्यायालय में प्रार्थनापत्र दिया। अदालत ने उस प्रार्थना पत्र पर अनुकूल आदेश दिए और निषेधाज्ञा जारी की। मुस्लिम पक्ष ने उच्च न्यायालय में अपील की, उच्च न्यायालय ने अपील रद्द करके पूजा-अर्चना बेरोक-टोक जारी रखने के लिए जिला न्यायालय के आदेश की पुष्टि कर दी। इसी आदेश के कारण आज तक श्रीराम जन्मभूमि पर श्रीरामलला की पूजा-अर्चना होती चली आ रही है।

श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति के ७७वें संघर्ष की शुरूआत अप्रैल, १९८४ की प्रथम धर्म संसद (नई दिल्ली) में हुई, जिसमें अयोध्या, मथुरा, काशी के धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव स्वर्गीय दाऊदयाल खन्ना जी के द्वारा रखा गया, जो सर्वसम्मति से पारित हुआ।

दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या में परमहंस रामचन्द्र दास जी की अध्यक्षता में ७७वें संघर्ष की कार्य योजना के संचालन हेतु प्रथम बैठक हुई थी, जिसमें श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ। परमहंस जी सर्वसम्मति से यज्ञ समिति के वरिष्ठ उपाध्यक्ष चुने गए।

जन्मभूमि को मुक्त कराने हेतु जन-जागरण के लिए सीतामढ़ी से अयोध्या तक राम-जानकी रथ यात्रा का कार्यक्रम भी इसी बैठक में तय हुआ था। उत्तर प्रदेश में भ्रमण के लिए अयोध्या से भेजे गए ६ राम-जानकी रथों का पूजन परमहंस जी महाराज के द्वारा अक्टूबर १९८५ में सम्पन्न हुआ था। पूज्य परमहंस जी महाराज की दूरदर्शिता के परिणामस्वरूप जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी शिवरामाचार्य जी महाराज के द्वारा श्रीराम जन्मभूमि न्यास की स्थापना हुई।

दिसम्बर १९८५ की द्वितीय धर्म संसद उडुपी (कर्नाटक) में पूज्य परमहंस जी की अध्यक्षता में हुई जिसमें निर्णय हुआ कि यदि ८ मार्च १९८६ को महाशिवरात्रि तक रामजन्मभूमि पर लगा ताला नहीं खुला तो महाशिवरात्रि के बाद ताला खोलो आन्दोलन, ताला तोड़ो में बदल जाएगा और ८ मार्च के बाद प्रतिदिन देश के प्रमुख धर्माचार्य इसका नेतृत्व करेंगे।

पूज्य परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज ने अयोध्या में अपनी इस घोषणा से सारे देश में सनसनी फैला दी कि "८ मार्च १९८६ तक श्रीराम जन्मभूमि का ताला नहीं खुला तो मैं आत्मदाह करूंगा।' जिसका परिणाम यह हुआ कि १ फ़रवरी १९८६ को ही ताला खुल गया। जनवरी, १९८९ में प्रयाग महाकुम्भ के अवसर पर आयोजित तृतीय धर्मसंसद में शिला पूजन एवं शिलान्यास का निर्णय परमहंस जी की उपस्थिति में ही लिया गया था। इस अभिनव शिलापूजन कार्यक्रम ने सम्पूर्ण विश्व के रामभक्तों को जन्मभूमि के साथ प्रत्यक्ष जोड़ दिया। श् श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष जगद्गुरु रामानन्दाचार्य पूज्य स्वामी शिवरामाचार्य जी महाराज का साकेतवास हो जाने के पश्चात्‌ अप्रैल, १९८९ में परमहंस जी महाराज को श्रीराम जन्मभूमि न्यास का कार्याध्यक्ष घोषित किया गया।

परमहंस जी महाराज की दृढ़ संकल्प शक्ति के परिणामस्वरूप ही निश्चित तिथि, स्थान एवं पूर्व निर्धारित शुभ मुहूर्त ९ नवम्बर १९८९ को शिलान्यास कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।

३० अक्टूबर १९९० की कारसेवा के समय अनेक बाधाओं को पार करते हुए अयोध्या में आये हजारों कारसेवकों का उन्होंने नेतृत्व व मार्गदर्शन भी किया। २ नवम्बर १९९० को परमहंस जी का आशीर्वाद लेकर कारसेवकों ने जन्मभूमि के लिए कूच किया। उस दिन हुए बलिदानश् के वे स्वयं साक्षी थे। बलिदानी कारसेवकों के शव दिगम्बर अखाड़े में ही लाकर रखे गए थे। अक्टूबर १९८२ में दिल्ली की धर्म संसद में ६ दिसम्बर की कारसेवा के निर्णय में आपने मुख्य भूमिका निभायी और स्वयं अपनी आंखों से उस ढांचे को बिखरते हुए देखा था जिसका स्वप्न वह अनेक वर्षोंश् से अपने मन में संजोए थे। अक्टूबर २००० में गोवा में केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल की बैठक में पूज्य परमहंस जी महाराज को मन्दिर निर्माण समिति का अध्यक्ष सर्वसम्मति से चुना गया। जनवरी, २००२ में अयोध्या से दिल्ली तक की चेतावनी सन्त यात्रा का निर्णय पूज्य परमहंस रामचन्द्र दास जी का ही था। २७ जनवरी २००२ को प्रधानमंत्री से मिलने गए सन्तों के प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व भी आपने ही किया।

मार्च २००२ के पूर्णाहुति यज्ञ के समय शिलादान पर अदालत द्वारा लगायी गई बाधा के समय १३ मार्च को पूज्य परमहंस की इस घोषणा ने सारे देश व सरकार को हिला कर रख दिया कि "अगर मुझे शिलादान नहीं करने दिया गया तो मैं रसायन खाकर अपने प्राण त्याग दूंगा।'

आन्दोलन को तीव्र गति से चलाने के लिए सितम्बर, २००२ को केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल की लखनऊ बैठक में परमहंस जी की योजना से ही गोरक्ष पीठाधीश्वर महन्त अवैद्यनाथ जी महाराज की अध्यक्षता में श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण आन्दोलन उच्चाधिकार समिति का निर्माण हुआ। २६ मार्च २००३ को दिल्ली में आयोजित सत्याग्रह के प्रथम जत्थे का नेतृत्व कर पूज्य परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज ने अपनी गिरफ्तारी दी। २९, ३० अप्रैल २००३ को अयोध्या में आयोजित उच्चाधिकार समिति की बैठक में परमहंस जी के परामर्श से ही श्रीराम संकल्पसूत्र संकीर्तन कार्यक्रम की योजना का निर्णय हुआ। इसके द्वारा दो लाख गांवों के दो करोड़ रामभक्त प्रत्यक्ष रूप से मन्दिर के साथ सहभागी बनेंगे। इसके बाद बीमारी की अवस्था में भी वे अपने संकल्प को दृढ़ता के साथ व्यक्त एवं देश, धर्म-संस्कृति की रक्षा हेतु समाज का मार्गदर्शन करते रहे।
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