स्वामी विवेकानंद का भारतीय युवाओं को सन्देश !


स्वामी विवेकानंद का नाम लेने भर से हिम्मत आती है, चित्र देखने से प्रेरणा मिलती है, उनके विचारों का अध्ययन करने से यह प्रेरणा जीवन समर्पण की बन जाती है | भारत के नौजवानों को ऐसी ही शिक्षा मिले यही विवेकानंद चाहते थे | भारत के ऊर्ध्वमुखी आध्यात्मिक चिंतन से युक्त, रक्षात्मक वृत्ति से मुक्त होकर स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को राष्ट्रीय चेतना का मार्गदर्शन दिया तथा भौतिक संस्कृति पर आक्रमण किया | 
किन्तु दुर्भाग्य कि आज देश में धर्म की, अध्यात्म की बात नहीं हो सकती क्योंकि धर्म निरपेक्षता है | यह धर्म निरपेक्षता है क्या इसे किसी ने स्पष्ट नहीं किया | किन्तु इसके चलते जीवन मूल्य मत सिखाओ | धर्म मत सिखाओ | चरित्र निर्माण, मनुष्य निर्माण शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए | किन्तु आज मनी मेकिंग शिक्षा दी जा रही है, मेन मेंकिंग नहीं | चरित्र, आत्मविश्वास और श्रद्धा सिखाने के क्या पाठ्यक्रम हैं ? श्रद्धा तोड़ो यही आधुनिकता | श्रद्धाविहीन समाज यही शिक्षा | क्या यह उचित है, इसका विचार करने की आवश्यकता है | 

भारतीय राष्ट्र न तो हिमालय से कन्याकुमारी तक फैले हुए इस भूखंड से बन सकता है और ना ही इसमें बसने वाले कोटि कोटि मनुष्यों के झुण्ड से | इन कोटि कोटि जन के समूह को इस विस्तृत भूभाग से बांधने वाला कोई सूत्र है तो वह है “धर्म” | बिना धर्म के भारतीय जीवन का चैतन्य ही नष्ट हो जाएगा |

धर्म के लिए ही श्रवण कुमार अपने अंधे माता पिता को कंधे पर लिए वन वन घूमा और धर्म के लिए ही प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यिपू का विरोध किया | राम ने एक पत्नी वृत का पालन करके धर्म की रक्षा की तो कृष्ण ने अनेकों विवाह करके धर्म का निर्वाह किया | इस प्रकार के विरोधाभासों की निराकृति केवल धर्म को समझकर ही हो सकती है | धर्म को आचरण में लाने वाले बाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसी, सूर, ज्ञानदेव, समर्थ, चैतन्य, नानक और विवेकानंद कवी थे, संत थे ऋषि थे, इसीलिए उनके शब्द राष्ट्र के शब्द हो गए | 

स्वामी विवेकानंद ने यूरोप में अपने भाषण में कहा था कि कोई राष्ट्र इसलिए महान और अच्छा नहीं होता कि पार्लियामेंट ने यह या वह पास कर दिया है | वरन इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं |

एक बात पर विचार करके देखो | मनुष्य नियमों को बनाता है, या नियम मनुष्य को बनाते हैं ? मनुष्य रुपया पैदा करता है, या रूपया मनुष्यों को पैदा करता है ? मित्रो पहले मनुष्य बनो | तब तुम देखोगे कि बाक़ी सब चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी | मनुष्य योनी में जन्म लिया है तो अपने पीछे कीर्ति छोड़ जाओ –

तुलसी आयो जगत में, जगत हँसे तुम रोये |

ऐसी करनी कर चलो, आप हँसे जग रोये ||

अगर ऐसा कर सको, तब तो तुम मनुष्य हो, अन्यथा तुम मनुष्य किस बात के ?



भारत के युवाओं को जो सन्देश स्वामी जी ने उस गुलामी के कालखंड में दिया, वह आज भी समीचीन है | उन्होंने कहा था –

प्रफुल्ल चित्त तथा हंसमुख रहने से तुम ईश्वर के अधिक निकट पहुँच जाओगे | किसी भी प्रार्थना की अपेक्षा प्रसन्नता के द्वारा हम ईश्वर के अधिक निकट पहुँच सकते हैं | ग्लानिपूर्ण या उदास मन से प्रेम कैसे हो सकता है ? अतः जो मनुष्य सदा अपने को दुखी मानता है, उसे ईश्वर की प्राप्ति नही हो सकती | हरेक को अपना बोझा खुद ढोना है, यदि तुम दुखी हो तो अपने दुखों पर विजय प्राप्त करो |

- बलहीन को ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती | अतः दुर्बल कदापि न बनो | तुम्हारे अन्दर असीम शक्ति है तुम्हे शक्तिशाली बनना है | अन्यथा तुम किसी भी वस्तु पर विजय कैसे प्राप्त करोगे ? शक्तिशाली हुए बिना तुम ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकोगे ? पर साथ ही अतिशय हर्ष, अर्थात उद्धर्ष से भी बचो | अत्यंत हर्ष की अवस्था में भी मन शांत नहीं रह पाता, मन में चंचलता आ जाती है | अति हर्ष के बाद सदा दुःख ही आता है | हँसी और आंसू का घनिष्ठ सम्बन्ध है | मनुष्य बहुधा एक अति से दूसरी अति की ओर भागता है | चित्त प्रसन्न रहे पर शांत हो |

- वेश्यापुत्र वशिष्ठ (महाभारत आदिपर्व)और नारद (श्रीमद्भागवत), दासीपुत्र सत्यकाम जाबाल (छान्दोग्योपनिषद), धीवर व्यास (महाभारत आदिपर्व), कृप, द्रोण और कर्ण आदि सबने अपनी विद्या या वीरता के प्रभाव से ब्राम्हणत्व या क्षत्रियत्व पाया |

- गर्व से बोलो कि मैं भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है | बोलो कि अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राम्हण भारतवासी, चांडाल भारतवासी, सब मेरे भाई हैं | भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत के देव देवियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरी शिशु सज्जा, मेरे यौवन का उपवन और बार्धक्य की वाराणसी है | भाई बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है | और रात दिन कहते रहो – हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे ! मुझे मनुष्यत्व दो, माँ मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो, मुझे मनुष्य बनाओ |

स्वामी विवेकानंद का सबसे अधिक जोर शिक्षा पर था | उन्होंने कहा –

मैं प्रत्यक्ष देखता हूँ कि जिस जाती की जनता में विद्या बुद्धि का जितना अधिक प्रचार है, वह जाती उतनी ही अधिक उन्नत है | भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या बुद्धि, राजशासन मुट्ठीभर लोगों के एकाधिकार में रखी गई है | यदि हमें फिर से उन्नति करनी है, तो हमें जनता में विद्या का प्रसार करना होगा |

यहाँ मुसलमान कितने सिपाही लाये थे ? यहाँ अंग्रेज कितने हैं ? चांदी के छः सिक्कों के लिए अपने बाप और भाई के गले पर चाकू फेरने बाले लाखों आदमी सिवा भारत के और कहाँ मिल सकते हैं ? सात सौ वर्षों के मुसलमान शासन में छः करोड़ मुसलमान, और सौ वर्षों के ईसाई राज्य में बीस लाख ईसाई क्यों बने ? क्यों हमारे सुदक्ष शिल्पी यूरोप वालों के साथ बराबरी करने में असमर्थ होकर दिनोंदिन लोप होते जा रहे हैं ? लेकिन वह कौन सी शक्ति थी जिससे जर्मन कारीगरों ने अंग्रेज कारीगरों के कई सदियों से जमे हुए दृढ आसन को हिला दिया |

केवल शिक्षा | शिक्षा | शिक्षा | 

हमारा वेदान्त कहता है – वह आईरिश अपने देश में चारों तरफ घृणा से घिरा हुआ रहता था – सारी प्रकृति उससे एक स्वर से कह रही थी कि बच्चू तेरे लिए और कोई आशा नहीं है, तू गुलाम ही पैदा हुआ और सदा गुलाम ही बना रहेगा | आजन्म सुनते सुनते बच्चू को उसीका विश्वास हो गया | बच्चू ने स्वयं को सम्मोहित कर डाला कि वह अतिनीच है | इससे उसका ब्रह्मभाव संकुचित हो गया | परन्तु जब उसने अमरीका में पैर रखा तो चारों ओर से ध्वनी उठी – “बच्चू तू भी वही आदमी है जो हम लोग हैं | आदमियों ने ही सब काम किये हैं, तेरे और मेरे समान आदमी ही सब कुछ कर सकते हैं | धीरज धर |” बच्चू ने सर उठाया और देखा कि बात तो ठीक है – बस उसके अन्दर सोया हुआ ब्रह्म जाग गया | मानो स्वयं प्रकृति ने ही कहा हो – “उठो, जागो, रुको मत, जब तक मंजिल पर ना पहुँच जाओ |”

वैसे ही हमारे लडके जो शिक्षा पा रहे हैं, वह नकारात्मक है | स्कूल में लडके कुछ नया नहीं सीखते, वरन जो खुद का है उसका भी सत्यानाश हो जाता है | और उसका परिणाम होता है – श्रद्धा का अभाव | जो श्रद्धा वेद वेदान्त का मूल मन्त्र है, जिस श्रद्धा ने नचिकेता को साहस दिया प्रत्यक्ष यम से प्रश्न करने का, जिस श्रद्धा के बल पर यह संसार चल रहा है, उसी श्रद्धा का लोप | 

आज हमें एक तरफ वह मनुष्य दिखाई पड़ता है, जो पाश्चात्य ज्ञान रूपी मदिरा से मत्त होकर अपने को सर्वज्ञ समझता है | वह प्राचीन ऋषियों की हंसी उड़ाया करता है | उसके लिए हिन्दुओं के सब विचार बिलकुल बाहियात चीज हैं, हिन्दू दर्शन शास्त्र बच्चों का कलरव मात्र है और हिन्दू धर्म मूर्खों का अंधविश्वास मात्र | 

दूसरी तरफ वह आदमी है जो शिक्षित तो है, पर जिस पर किसी एक चीज की सनक सवार है और वह उल्टी राह लेकर एक छोटी सी बात का अलौकिक अर्थ निकालने की कोशिश करता है | कुसंस्कारों को उचित सिद्ध करने के लिए दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा बचकाने न जाने क्या क्या तर्क उसके पास सदा मौजूद रहते हैं | इन दोनों संकटों से बचो | हमें निर्भीक साहसी मनुष्यों का ही प्रयोजन है | हमें हमारे युवाओं के खून में तेजी और स्नायुओं में बल की आवश्यकता है – लोहे के पुट्ठे और फौलाद के स्नायु चाहिए, नाकि दुर्बलता लाने बाले वाहियात विचार |

- अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है | अतः जहां तक हो सके अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरंतन निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पियो, उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्वलतर महत्तर और पहले से भी ऊंचा उठाओ | हमारे पूर्वज महान थे, उस खून पर हमें विश्वास करना होगा और अतीत के उनके कृतित्व पर भी | इस विश्वास और अतीत गौरव ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा | यहाँ बीच में दुर्दशा और अवनति के युग रहे हैं, पर मैं उनको अधिक महत्व नहीं देता | किसी विशाल वृक्ष से एक सुन्दर पका हुआ फल पैदा हुआ, फल जमीन पर गिरा, मुरझाया और सडा, इस विनाश से जो अंकुर उगा, संभव है वह पहले के वृक्ष से भी बड़ा हो जाए | अवनति के बाद भविष्य का भारत अंकुरित हो रहा है, उसके नवपल्लव निकल चुके हैं, ऊर्ध्वमूल वृक्ष का निकलना प्रारम्भ हो चुका है |

देश वासियों के आदर्श गुरू गोविन्दसिंह होना चाहिए, जिन्होंने देश के शत्रुओं के विरुद्ध लोहा लिया, हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने ह्रदय का रक्त बहाया, अपने पुत्रों को अपनी आँखों के सामने मौत के घाट उतरते देखा – पर जिनके लिए उन्होंने अपना और अपने पुत्रों का खून बहाया, उन्ही लोगों ने, सहायता करना तो दूर, उलटे उन्हें त्याग दिया | यहाँ तक कि उन्हें इस प्रदेश से भी हटना पडा | अंत में मर्मान्तक चोट खाए हुए सिंह की भान्ति यह नर केसरी शान्तिपूर्वक अपने जन्मस्थान को छोड़ दक्षिण भारत में जाकर मृत्यु की राह देखने लगा, परन्तु अपने जीवन के अंतिम क्षण तक उसने अपने कृतघ्न देशवासियों के प्रति अभिशाप का एक शव्द भी मुंह से नहीं निकाला | यदि तुम देश की भलाई करना चाहते हो तो तुममें से प्रत्येक को गुरू गोविन्द सिंह बनना होगा | तुम्हें अपने देशवासियों में हजारों दोष दिखाई दें, भले ही वे तुम्हारी बुराई के लिए लाख चेष्टा करें, वे तुम पर अभिशाप और निंदा की लाख बौछार करें, तब भी तुम उनके प्रति प्रेम पूर्ण वाणी का ही प्रयोग करो | यदि वे तुम्हे त्याग दें, तुम्हे पैरों से ठुकराएँ, तो तुम उसी वीर केसरी गोविन्दसिंह की भान्ति समाज से दूर जाकर नीरव भाव से मौत की राह देखो | हमें अपने सामने इसी प्रकार का आदर्श उपस्थित रखना होगा | पारस्परिक विरोध भाव को भूलकर चारों ओर प्रेम का प्रवाह बहाना होगा |

- कमरे में यदि सैंकड़ों वर्षों से अन्धकार फैला हुआ है, तो क्या घोर अन्धकार, भयंकर अन्धकार कहकर चिल्लाने से अन्धकार दूर हो जाएगा ? नहीं ! रोशनी जला दो, फिर देखो, अँधेरा अपने आप दूर होता है या नहीं | मनुष्य के सुधार का, उसके संस्कार का यही रहस्य है | उसके समक्ष उच्चतर बातें, उच्चतर प्रेरणाएं रखो | यदि तुमने उसे सत्य का ज्ञान करा दिया, तो निश्चय जानो मिथ्याभाव अवश्य दूर हो जाएगा |

- यदि तुम्हारा आदर्श, तुम्हारे जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य भगवान के बैकुंठ नामक स्थान में जाकर अनंत काल तक हाथ जोड़कर उनके सामने खडा रहना ही है तो इससे आत्महत्या कर डालना ज्यादा अच्छा है |
हम बीज को बोने के बाद पानी व खुराक से सींचकर उसे धरती पर उगने देते हैं और फिर बड़ा होने के लिए उसे पानी व हवा उपलव्ध करवाते हैं | वह उतना ही ग्रहण करता है जितना उसके लिए जरूरी है | फिर वह अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ता है | लेकिन यह मनुष्य बड़ा विचित्र प्राणी है, जो आवश्यकता से अधिक सतत संग्रह में लगा रहता है | 
स्वामी जी ने कहा था कि – “मेरी नजर में हर वह व्यक्ति देशद्रोही है, जो भूख और अन्धकार में जी रहे लोगों की चिंता किये बिना धन खर्च कर शिक्षित हो रहा है | ये बात मैं हर उस व्यक्ति के लिए कहना चाहूंगा जिसे अपने उस धन पर गुमान है, जो उसने गरीबों का खून चूस कर इकठ्ठा किया है |”

हमें ऐसे ह्रदय की आवश्यकता है जो समुद्र सा गंभीर और आकाश सा उदार हो | हमें संसार की किसी भी उन्नत जाति के समान उन्नतिशील होना चाहिए और साथ ही अपनी परम्पराओं के प्रति बही श्रद्धा और कट्टरता रखनी चाहिए जो केवल हिन्दुओं में आ सकती है |

भाइयो हम सभी को इस समय कठिन परिश्रम करना होगा | अब सोने का समय नहीं है | हमारे कार्यों पर भारत का भविष्य निर्भर है | देखिये भारतमाता तत्परता से प्रतीक्षा कर रही है | वह केवल सो रही है, उसे जगाईये और पहले की अपेक्षा और भी गौरव मंडित और अभिनव शक्तिशाली बनाकर भक्ति भाव से उसे उसके सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दीजिये |
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