नहीं बुझी १८५७ के बाद भी संघर्ष की मशाल - कूका बलिदानियों की अमर गाथा !

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भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में अनेक आन्दोलनों की मशाल जलाई गयी, जिनमे से एक प्रमुख मशाल थी “कूका आन्दोलन” की ! सिखों के नामधारी सम्प्...


भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में अनेक आन्दोलनों की मशाल जलाई गयी, जिनमे से एक प्रमुख मशाल थी “कूका आन्दोलन” की ! सिखों के नामधारी सम्प्रदाय के लोग “कूका” कहलाते है ! नामधारी सम्प्रदाय के संस्थापक श्री गुरु राम सिंह एक कट्टर विप्लवी थे ! कूका सम्प्रदाय के द्वारा किये गए सशस्त्र विद्रोह को “कूका विद्रोह/ आन्दोलन” के नाम से जाना जाता है ! 29मार्च, 1849 को ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत आने वाला पंजाब भारत का अंतिम राज्य था और 12 अप्रैल, 1857 को लुधियाना जिले के गांव "भैणी" से सतगुरु श्री राम सिंह के नेतृत्व में "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" का शंखनाद कर अंग्रेजी शासन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने में भी पंजाब की अग्रणी भूमिका थी ! भारत की स्वतंत्रता के लिए नामधारी सिखों द्वारा चलाये गए कूका आन्दोलन के दौरान 66 नामधारी सिख शहीद हुए ! नामधारी सिखों की शहादत को आजादी की लड़ाई के ऐतिहासिक पन्नों पर “कूका लहर” के नाम से अंकित किया गया है !

स्वतंत्रता का प्रथम शंखनाद करने वाले सतगुरु राम सिंह जी के आंदोलन से अंग्रेज कितने भयभीत थे, यह इस बात से प्रमाणित होता है कि सर्वप्रथम अमरीका के खतरनाक एवं हिंसक विद्रोहियों के लिए प्रयोग किया गया शब्द कूक्स, नामधारियों के लिए प्रयोग किया गया ! जापान के विद्रोहियों को कूकाई एवं अब असमी एवं नागा विद्रोहियों के लिए कूकी शब्द का प्रयोग किया जाता है ! अंग्रेजी रिकार्ड में नामधारी स्वतंत्रता संग्रामियों को कूका लिखा गया ! इसीलिए इतिहास में इस आंदोलन का नाम पड़ा "कूका आन्दोलन" !

महारथी के फरवरी, 1928 के अंक में शहीद भगत सिंह ने क्रांतिकारियों को स्पष्ट संदेश किया, "स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हम में सतगुरु राम सिंह सा समर्पण चाहिए, नामधारी शहीदों जैसा मनोबल चाहिए, जो स्वयं फांसी की डोर गले में डाल सके एवं जो आग उगलती तोपों के सामने भी खिलखिला कर हंस सके।" फ़रवरी, 1928 में दिल्ली से प्रकाशित ‘महारथी’ में कूका-विद्रोह के इतिहास की जानकारी देने वाला भगतसिंह का एक लेख बी.एस. सिन्धू नाम से छपा था, उसमे उन्होंने लिखा था कि “कूका आन्दोलन का इतिहास, आज तक लोगों के सामने नहीं आया ! किसी ने उन्हें महत्त्वपूर्ण नहीं समझा ! कूकों को भटके हुए तथा मूर्ख कहकर हम अपने कर्त्तव्य से छुट्टी पा जाते हैं ! स्वार्थ के लिए अथवा लोभ के लिए यदि उन लोगों ने प्राण दिये होते तो हम उपेक्षा दिखा सकते थे, परन्तु उनकी तो ‘मूर्खता’ में भी ‘देशप्रेम’ का भाव कूट-कूटकर भरा था ! वे तो तोप के मुँह से बँधते समय हँस देते थे ! वे तो आनन्द से ‘सत्त श्री अकाल’ के तुमुल निनाद से आकाश-पाताल को आच्छादित कर देते थे ! उनके मस्तक पर व्यथा, चिन्ता अथवा पश्चाताप की रेखा भी नहीं दीख पड़ती थी ! क्या वे भूल जाने योग्य हैं? उनका गुरुतर अपराध शायद विफलता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं ! परन्तु स्कॉट वीर विलियम वालीस भी तो विफल हो मृत्युदण्ड का भागी बना था ! उसकी तो आज समस्त इंग्लैण्ड पूजा करता है ! फिर हमारे असफल देशभक्त ही इस तरह क्यों भुलाकर निविड़ अन्धकार में फेंक दिये जायें? अस्तु ! हम समझते हैं कि हमारे लिए, देश के लिए निष्काम भाव से मरने वाले लोगों को भुला देना बड़ी भारी कृतघ्नता होगी ! हम उनकी स्मृति में कोई बड़ा स्तूप नहीं खड़ा कर सकते तो क्या अपने हृदय में भी थोड़ा स्थान देने से झेंपें ? शहीद भगत सिंह ने क्रांतिकारियों को स्पष्ट संदेश किया, "स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हम में सतगुरु राम सिंह सा समर्पण चाहिए, नामधारी शहीदों जैसा मनोबल चाहिए, जो स्वयं फांसी की डोर गले में डाल सके एवं जो आग उगलती तोपों के सामने भी खिलखिला कर हंस सके।"

विश्व के स्वतंत्रता संग्राम को असहयोग आंदोलन सत गुरु राम सिंह जी की ही देन है ! आजादी के लिए अहिंसक किन्तु अत्यन्त प्रभावशाली अस्त्र के रूप में "असहयोग" का सर्वप्रथम प्रयोग सतगुरु ने सन् 1865 में किया ! उनका स्पष्ट मत था कि व्यापारी मूल के अंग्रेजों का बहिष्कार एवं अंग्रेजी वस्तुओं का क्रय-विक्रय बंद कर दिया जाए तो हुकूमत का आधार समाप्त किया जा सकता है ! तद्नुसार अंग्रेजी न्यायालय, डाक व्यवस्था, विदेशी वस्त्र, रेल सेवा, अंग्रेजी विद्यालय आदि का पूर्ण बहिष्कार किया गया ! तत्कालीन गुप्त ब्रिटिश दस्तावेजों में "कूका पोस्टल सर्विस" के नाम से विख्यात नामधारियों की निजी डाक व्यवस्था अत्यंत गोपनीय, विश्वसनीय एवं द्रुतगामी थी ! सर्वप्रथम 5 अगस्त, 1863 को सियालकोट (वर्तमान में पाकिस्तान) के डिप्टी कमिश्नर की रपट से ब्रिटिश उच्च अधिकारियों के कान खड़े हो गए ! रपट में कहा गया, "बाबा राम सिंह की धार्मिक पहचान मात्र दिखावा है ! वस्तुत: आजादी के खतरनाक इरादों वाला यह राजनीतिज्ञ अपने 5 हजार अनुयाइयों के साथ सक्रिय है !" इस रपट के तत्काल बाद सभी शहरों तथा कस्बों के अधिकारियों एवं गुप्तचरों को सक्रिय कर दिया गया ! हर नामधारी संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा ! प्रत्येक प्रशासनिक जिला केन्द्र से लेकर दिल्ली तक गुरुजी, उनके समर्थकों एवं अनुयाइयों की दैनिक गतिविधियों से लेकर सामूहिक कार्यक्रमों की जानकारी पहुंचने लगी ! पंजाब के शहरों, कस्बों एवं गांवों तक में गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया ! लुधियाना के डी.आई.जी. मैकेन्ड्रयू एवं अम्बाला के कमिश्नर जे.डब्ल्यू मैकनाब ने अपनी 4 नवम्बर, 1867 की रपट में "कूका आन्दोलन" को ब्रिटिश सल्तनत के लिए सबसे बड़ा खतरा बताकर तत्काल सत गुरु राम सिंह जी सहित सभी सहयोगियों को गिरफ्तार करने एवं नामधारी जत्थेबंदी को गैरकानूनी घोषित करने की सिफारिश की !

सन् 1870 तक कूका आन्दोलन की जड़ें भारतीय जनमानस में गहरे तक उतर चुकी थीं ! स्थान-स्थान पर स्वतंत्रता के स्वर मुखरित होने लगे थे ! ब्रिटिश हुकूमत के साथ टकराव होने लगा ! गोहत्या का सख्त विरोध होने लगा ! इसलिए ब्रिटिश गुप्तचर सक्रिय हो गए और हर हालत इस आंदोलन को कुचलने के आदेश भेजे गए ! धर-पकड़ होने लगी ! कई नामधारियों को आजीवन कारावास की सजा दी गई ! अनेक को काला पानी (अंदमान) भेज दिया गया और अनगिनत नामधारियों को गहरे सागर में डुबो दिया गया ! अमृतसर के सत्र न्यायाधीश मेजर डब्ल्यू डेविस ने 30 जुलाई, 1871 को चार नामधारियों को "सरेआम फांसी" की सजा सुनाई ! 15 अगस्त, 1871 को अमृतसर के रामबाग स्थित वटवृक्ष से लटकाकर चारों को फांसी दी गई ! 5 अगस्त, 1871 को रायकोट में मंगल सिंह, मस्तान सिंह एवं गुरमुख सिंह को सरेआम फांसी दी गई ! 26 नवम्बर, 1871 को लुधियाना सेन्ट्रल जेल के बाहर सूबेदार ज्ञान सिंह, रतन सिंह एवं वतन सिंह को फांसी दी गई ! 

17 एवं 18 जनवरी, 1872 को स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध विश्व का सर्वाधिक क्रूरता एवं अन्यायपूर्ण इतिहास रचा गया ! बंगाल रेगुलेशन एक्ट, 1818 का पहली बार 54 वर्ष बाद भारत मां के इन्हीं नामधारी सपूतों के विरुद्ध प्रयोग किया गया ! बिना मुकदमा चलाये 65 क्रांतिकारियों को तोपों से उड़ा दिया गया 
एवं एक बारह वर्षीय बालक बिशन सिंह को तलवार से काट डाला गया ! यह सम्पूर्ण घटना कुछ यूं घटी -

प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया।

यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युध्द का पासा पलट गया। इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। 

दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी 22 विशेष सहयोगियों के साथ गिरफ्तार कर अलग-अलग स्थानों पर निर्वासित कर दिया गया ! बाद में गुरु राम सिंह जी को रंगून (बर्मा) एवं उसके बाद मरगोई के बीहड़ जंगलों में नजरबंद रखा गया ! 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

गुरु राम सिंह जी के परदेश निर्वासन के बाद भी उनके छोटे भाई गुरु हरी सिंह एवं उनके बाद गुरु प्रताप सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम का दीप बुझाने न दिया ! कश्मीर से कन्याकुमारी एवं कच्छ से कटक तक संपूर्ण भारत में आजादी की लहर प्रवाहित रही ! गदर पार्टी के संस्थापक सरदार सोहन सिंह भकना ने अपनी आत्मकथा में लिखा है "आजादी का बीजारोपण एवं अंग्रेजों के प्रति नफरत की भावना मुझमें एक पड़ोसी बाबा केसर सिंह नामधारी ने भरी ! उस सफेद वस्त्र एवं उज्ज्वल चरित्र वाले देशभक्त की सदाचार पूर्ण प्ररेणा ही मुझे गदर पार्टी के झण्डे तले ले आई !"

सतगुरु राम सिंह के नेतृत्व में प्रारंभ कूका क्रांति वस्तुत: भैणी की गंगोत्री से निकली वह भागीरथी थी कालान्तर में जिसमें से आजादी की अनेक लहरें उठती रहीं ! सुभाष चन्द्र बोस, वीर सावरकर, शहीद भगत सिंह, सरदार सोहन सिंह भकना, इंडियन नेशनल कांग्रेस-कोई ऐसा आजादी का आन्दोलन नहीं है जो भैणी से प्रभावित न हुआ हो ! कोई ऐसा क्रांतिकारी नहीं जिसने अपनी नसों के रक्त प्रवाह में भैणी की आग न भर ली हो ! महात्मा गांधी ने स्वयं स्वीकार किया एवं डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा कि असहयोग आन्दोलन के जिस अस्त्र को चलाकर हमने आजादी प्राप्त की, इसका प्रयोग सतगुरु राम सिंह जी ने 50 वर्ष पूर्व किया था !

सन् 1867 में 500 नामधारी क्रांतिकारियों ने फिरोजपुर में यह नारा लगाते हुए प्रदर्शन किया,"ऐथों चुक ले फिरंगिया छावनी के खालसे ने राज करना !" यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा किए गए "भारत छोड़ो आन्दोलन" से 75 वर्ष पहले का प्रयोग था ! 
 बसंत पंचमी पर उनके जन्मदिवस पर कोटि कोटि नमन|

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क्रांतिदूत : नहीं बुझी १८५७ के बाद भी संघर्ष की मशाल - कूका बलिदानियों की अमर गाथा !
नहीं बुझी १८५७ के बाद भी संघर्ष की मशाल - कूका बलिदानियों की अमर गाथा !
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