क्या अब समय आ गया है, जब भारत की प्रजातांत्रिक प्रणाली को अलविदा कह देना चाहिए ?



क्या अब समय आ गया है, जब भारत की प्रजातांत्रिक प्रणाली को अलविदा कह देना चाहिए ?

क्यों हैरत हो रही है ना मेरे इस सवाल पर ?

लग रहा होगा कि कैसा मूर्खतापूर्ण विचार है ! किन्तु जो काम स्वविवेक से संसद को स्वतः प्राथमिकता से अविलम्ब करना चाहिए, उसके लिए आमजन को सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाना पड़े, तो इसका अर्थ क्या यह नहीं, कि अब देश की संसद व्यर्थ और अप्रासंगिक हो चुकी है ?

बहुत हुई भूमिका अब मूल विषय पर आते हैं !

भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने उस याचिका को विचारार्थ सूचीबद्ध किया है, जिसमें याचिकाकर्ता ने आरक्षण की सुविधा में से मलाईदार तबके को हटाने की मांग की है |

याचिकाकर्ता के वकील शोभित तिवारी का कहना है कि अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के वास्तविक वंचित लोग धूल फांक रहे हैं, जबकि पहले से अमीर या यूं कहें कि मलाईदार परत के लोग उनके हिस्से के लाभ छीन रहे हैं । 

याचिकाकर्ता ने यह तर्क भी दिया कि आज देश में, नक्सलवाद जैसे आंदोलन और अशांति इसी कारण है, क्योंकि वास्तविक गरीबों और पिछड़े वर्ग तक ये लाभ नहीं पहुँच रहे हैं । 

याचिकाकर्ता के वकील शोभित तिवारी ने एम नागराज मामले में, संविधान खंडपीठ द्वारा 2006 में पारित उस फैसले का भी हवाला दिया है, जिसमें अदालत ने प्रकारांतर से यही बात कही थी । 

याचिकाकर्ता का तर्क है कि अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के उत्थान में उसी समुदाय के ये समृद्ध और उन्नत वर्ग के लोग सबसे बड़ी वाधा हैं, जो उस तबके के अधिकतम लाभ छीन लेते हैं और इन समुदायों के 95% सदस्यों का नुकसान होता है। हकीकत यह है कि आरक्षण नीति का लाभ उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है, जिनको इसकी वास्तविक आवश्यकता है।

अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति की आरक्षण व्यवस्था में से समृद्ध लोगों को हटाने के विषय में ना तो राज्य सरकारें कोई विचार कर रही हैं, और ना ही केंद्र सरकार का इस ओर कोई ध्यान है ।

अब यह पढ़कर आप ही बताईये कि मैंने अगर संसद को अनावश्यक बताया तो क्या गलती की ! कोरी पारी अपनी तनखा बढ़ाते रहने के अलावा, ये मूर्धन्य लोग देश की मूलभूत समस्याओं पर धेले का भी काम कर रहे हैं क्या ?

शायद इसीलिए भारत में आदर्श राज्य व्यवस्था की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी गई थी –

ना राज्यं न च राजासीत, न दण्डयो न च दाण्डिकः !

अर्थात ना कोई राजा हो, ना कोई राज्य, न कोई दंड देने की व्यवस्था हो, ना कोई दण्ड देने वाला !

उपरोक्त आदर्श समाज व्यवस्था सतयुग की थी, जब सब लोग सात्विक और सच्चरित्र हुआ करते थे, आज कलियुग में तो देश गाहे बगाहे ऐसी व्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है, जिसे अराजकता कहा जा सकता है |
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