क्या आप जानते है सामाजिक क्रांति के द्वारा घर वापसी का मार्ग दिखाने वाले राव लूणकरण भाटी को ?


हिंदू समाज में ऐसे क्रांतिकारी योद्घाओं की भी कमी नही रही है, जिन्होंने सामाजिक क्रांतियों के बिगुल बजाकर देश सेवा की है। जब सदियों तक देश में धर्मांतरण की प्रक्रिया चलते-चलते हिंदू समाज की भारी क्षति हो चुकी थी तो उस समय हिंदू समाज को अपनी सुदृढ़ स्थिति करने की आवश्यकता अनुभव हुई, यद्यपि हिंदू समाज 'अपच' की बीमारी से ग्रसित रहा है और यह अपने समाज से निकलकर मुस्लिम बने लोगों को सहजता से साथ लेने को तैयार भी नही रह सका है। परंतु इतिहास में वह गौरव क्षण भी आये हैं, जब लोगों ने अपने विवेक और दूरदृष्टि का परिचय दिया है और अपने उन बहन-भाईयों को बड़ी सरलता से गले लगाने का अनुकरणीय कार्य किया है-जो किसी भी कारण से अपने धर्म को छोडक़र मुस्लिम बन गये थे।

यह सामाजिक क्रांति 1528-1550 ई. के मध्य की है। जब बाबर, शेरशाह सूरी व हुमायूं के शासन काल में हिंदुओं का भारी संख्या में धर्मांतरण हो रहा था अथवा उनके पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के द्वारा धर्मांतरण करा दिया गया था। इस क्रांति के प्रणेता बने थे जैसलमेर के भाटी राजा राव लूणकरण भाटी। उनके उस ऐतिहासिक कार्य को धर्मनिरपेक्षता के लुंज-पुंज विचार के पक्षाघात को झेल रहे इतिहासकारों ने प्रकाश में आने ही नही दिया है।
'जैसलमेर राज्य का इतिहास' के लेखक श्री मांगीलाल मयंक ने अपनी इस पुस्तक में इस तथ्य का उल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि राव लूणकरण भाटी को अपने समाज से निकलकर मुसलमान बन गये लोगों को पुन: अपने साथ लाकर हिंदू समाज की शक्ति में वृद्घि करने का कितना ध्यान था? उसने अपने समाज से बिछड़क़र मुस्लिम बन गये हिंदुओं को पुन: हिंदू बनाने की बड़ी अदभुत योजना बनाई। उसने अपने धर्मगुरू हरजाल पालीवाल तथा खेतसी पुरोहित से मिलकर उनके ब्रह्मत्व में एक शुद्घि यज्ञ का आयोजन कराया। जितनी दूर तक और जितने साधनों से लोगों को उस शुद्घि यज्ञ में लाया जा सकता था उतने तक लाया गया। लोगों को अपने धर्म, संस्कृति पूर्वजों के गौरवपूर्ण कृत्यों और देश के गौरवपूर्ण अतीत से परिचित कराया गया। लोगों को बताया गया कि जो लोग इस यज्ञ के माध्यम से पुन: अपने हिंदू धर्म में दीक्षित होना चाहते हैं, वे यज्ञ में भाग लें।

जो लोग मुस्लिम बनकर वहां किसी भी प्रकार की असुविधा का अनुभव कर रहे थे, और इन्हें मुस्लिम धर्म प्रिय नही था, वे लोग दूर-दूर से चलकर इस यज्ञ में सम्मिलित हुए। ऐसे लोग स्वेच्छा से जैसलमेर पहुंचे और उन्होंने यज्ञ जल ग्रहण किया। जैसलमेर की पावन भूमि ने हमारे ज्ञात इतिहास में पहली बार वह कार्य कर दिखाया-जिसकी आवश्यकता यह देश और इस देश का हिंदू समाज लंबे समय से अनुभव कर रहा था। परंतु कुछ लोग इस राष्ट्रीय आवश्यकता को पूर्ण नही होने दे रहे थे।

हिंदू समाज के लिए घातक बने ऐसे लोगों से टक्कर लेने का निर्णय राव लूणकरण भाटी ने लिया जिसमें उसे उसके धर्मगुरू हरजाल पालीवाल और खेतसी पुरोहित का भरपूर सहयोग मिला। सचमुच यह एक साहसिक पहल थी। क्योंकि हिंदुओं की ओर से ऐसी कोई सकारात्मक पहल अब से पूर्व नही की गयी थी। इस पहल का समाज पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और जैसे ही लोगों को यह जानकारी मिली कि शुद्घि-यज्ञ का आयोजन कर लोगों की 'घर वापसी' करायी जा रही है तो जो लोग हिंदू से मुस्लिम बन चुके थे, उन्होंने इस यज्ञ में बड़ी संख्या में भाग लिया।

बड़ी संख्या को देखकर राव लूणकरण भाटी ने फिर एक सुंदर व्यवस्था दी उसने पुन: साहस किया और बड़ी संख्या की घर वापिसी के लिए किसी लंबी प्रक्रिया में पड़े बिना ही घोषणा की कि यज्ञ स्थल पर उपस्थित धर्मगुरू के द्वारा बजाये जाने वाले शंख की ध्वनि जहां तक जितने लोगों के कानों तक जाएगी वहां तक लोग अपने आप को शुद्घ हुआ मान लें। संपूर्ण हिंदू समाज ऐसे शुद्घ हुए अपने भाईयों को अपने साथ लेकर चलेगा, उनके प्रति किसी प्रकार से भी अलगाव का प्रदर्शन नही करेगा।

राव लूणकरण भाटी का यह कार्य उस समय की परिस्थितियों के दृष्टिगत बहुत ही महत्वपूर्ण था। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी ही कम है। मुस्लिम इतिहासकारों के लिए तो यह कार्य एक 'काफिराना' कार्यवाही थी, परंतु हमारे इतिहासकारों के द्वारा भी राव लूणकरण भाटी की इस सामाजिक क्रांति की साहसिक पहल को उचित रूप से महिमामंडित कर इतिहास में यथोचित स्थान नही दिया गया, यह दुख की बात है। इस सामाजिक क्रांति के माध्यम से ऐसे अनेकों लोगों को अपने 'घर वापिसी' का रास्ता मिला जो घर तो लौटना चाहते थे, परंतु घर का द्वार उनके लिए बंद था।

राव लूणकरण भाटी एक सामाजिक क्रांति के प्रणेता थे जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने हेतु सामाजिक क्रांति का बिगुल फूंका और लोगों में सामाजिक चेतना उत्पन्न कर एकता का भाव उत्पन्न किया। हमारी फूट की ज्ञात-अज्ञात कहानियों को खोज-खोजकर हमें अनावश्यक ही धिक्कारते रहने वाले इतिहासकार यह भी देखें कि यहां सामाजिक फूट को भरने के लिए और अपनी शक्ति में वृद्घि करने के लिए प्रयास करने वाले कितने 'लूणकरण' जन्मे हैं?

साभार - भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग 3, लेखक राकेश कुमार आर्य 

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