"परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज" और उनके द्वारा इंदिरा जी को दिए गए श्राप की कथा !

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संभवतः आज की युवा पीढी इस महान सन्यासी के बारे में कुछ भी जानती ही नहीं होगी ! 6 नवम्बर, 1966 का वह दिन भी किसको स्मरण होगा, जिस दिन...



संभवतः आज की युवा पीढी इस महान सन्यासी के बारे में कुछ भी जानती ही नहीं होगी ! 6 नवम्बर, 1966 का वह दिन भी किसको स्मरण होगा, जिस दिन आजाद भारत में असंख्य गो-प्रेमियों और साधू संतों का दिल्ली की सडकों पर क्रूर नरसंहार किया गया था | आईये इतिहास के उस पृष्ठ का आज अवलोकन करें | शुरूआत स्वामी करपात्री जी के जीवन वृत्त से -

स्वामी करपात्री जी का जन्म संवत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को ग्राम भटनी, ज़िला प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता स्वामी श्री श्री रामनिधि ओझा एक सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण थे तथा उनकी माता श्रीमती शिवरानी एक परमधार्मिक सुसंस्कृत महिला थीं । उनका बचपन का नाम हरिनारायण ओझा था | 9 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह हो गया तथा जब सत्रह वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़कर सन्यास लिया, उस समय उनकी एक पुत्री भी जन्म ले चुकी थी। 

गृहत्याग के पश्चात् उन्होंने ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ली और हरि नारायण से ' हरिहर चैतन्य ' बने।

तत्पश्चात उन्होंने नैष्ठिक ब्रह्मचारी पंडित श्री जीवन दत्त महाराज तथा षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत आदि का ज्ञान प्राप्त किया । हिमालय पर जाकर साधना रत रहे, तदुपरांत काशी धाम में शिखासूत्र का परित्याग कर विधिवत संन्यास की दीक्षा ली । ढाई गज़ कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र उनके वस्त्र रह गए, जिसमें शीतकाल, ग्रीष्म ऋतू और वर्षा को सहन करना उनका स्वभाव बन गया । उनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि एक बार जो पढ़ते, उसे आजीवन भूलते नहीं थे । गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में एकाकी निवास, तथा घरों से भिक्षाग्रहण कर, चौबीस घंटों में एक बार भोजन करना, और वह भी हाथ की अंजुली में जितना समाये, उतना भर, इसी वृत्त के कारण उनका नाम करपात्री प्रसिद्ध हो गया । भूमिशयन, निरावरण चरण पद यात्रा और एक टांग पर खड़े होकर तपस्या की कठोर साधना उनकी दिनचर्या बन गई ।

धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें ‘धर्मसम्राट’ की उपाधि प्रदान की गई। करपात्री जी ने सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते हुए धर्म प्रचार के लिए सन 1940 ई० में "अखिल भारतीए धर्म संघ" की स्थापना की, जो आज भी प्राणी मात्र में सुख शांति के लिए प्रयत्नशील हैं। उसका घोष वाक्य था कि समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर, भगवान के अंश हैं या रूप हैं। यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर कार्य के आदि अंत में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, ऐसे पवित्र जयकारों का प्रयोग होना चाहिए।

सन् 1948 में उन्होने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद की स्थापना की जो परम्परावादी हिन्दू विचारों का राजनैतिक दल था। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952 , 1957 एवम् 1962 के विधान सभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: राजस्थान)में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।

आजादी के बाद से ही हिंदुओं में गौ वंश की हत्या पर रोक लगाने और देश के सभी बूचड़ खानों को बंद कराने की मांग जोर पकड़ने लगी थी | सन 1966 आते आते यह मांग एक प्रबल आंदोलन के रूप में बदल गयी | कहने को तो उस आंदोलन में अनेक हिन्दू संगठन और नेता शामिल थे , परन्तु अपनी निर्भीकता और ओजस्वी भाषणों के कारण संत “ करपात्री ” जी महाराज उनमें अग्रणी थे |

यह वह समय था, जब इंदिरा जी का राजनैतिक मार्ग अत्यंत ही कठिन था | कहा जाता है कि करपात्री जी महाराज के आशीर्वाद से इंदिरा गांधी विजई हुईं तथा प्रधान मंत्री भी बनीं । इंदिरा ग़ांधी ने उनसे वादा किया था कि वे सारे कत्ल खाने बंद हो जायेगें, जो अंग्रेजो के समय से चल रहे हैं | लेकिन बाद में इंदिरा गांधी अपने वायदे से मुकर गयी थी |

तत्कालीन प्रधानमंत्री ने जब संतों द्वारा की गई गौ वंश की हत्या पर पाबन्दी लगाने की मांग को ठुकरा दिया, तो संतों ने 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया, हिन्दू पंचांग के अनुसार उस दिन विक्रमी संवत 2012 कार्तिक शुक्ल की अष्टमी थी , जिसे ” गोपाष्टमी ” भी कहा जाता है |

इस धरने का नेत्रत्व शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ , स्वामी करपात्री महाराज और रामचन्द्र शर्मा वीर कर रहे थे | राम चन्द्र वीर ने आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया | प्रदर्शनकारी पूर्णतः शांतिपूर्ण थे और उनके साथ भारी संख्या में महिलायें और बच्चे भी मौजूद थे। अचानक कुछ शरारती तत्वों ने ट्रांसपोर्ट भवन के पास कुछ वाहनों को आग लगा दी। यह घटना देखते ही तुरन्त संसद के दरवाजे बंद कर दिए गए और धमाकों की आवाज आने लगी। इसके बाद तो चारों तरफ धुंआ उठने लगा। 

इंदिरा गांधी ने पुलिस को उन निहत्थे और शांत संतों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया| इस निर्मम गोली काण्ड में अनगिनत साधू मारे गए | इस ह्त्या कांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री ” गुलजारी लाल नंदा ” ने अपना त्याग पत्र दे दिया | माना जाता है कि संतों पर गोली चलाने का आदेश दिए जाने से वे अत्यंत ही क्षुब्ध हो गए थे और इस कांड के लिए इंदिरा जी को जिम्मेदार मानते थे | लेकिन संत ” राम चन्द्र वीर ” इसके बाद भी अनशन पर डटे रहे | 166 दिनों के उनके अनशन ने "गौ रक्षा" का विषय न केवल भारतीय जन मानस में गहराई तक पहुँचाया, बल्कि सम्पूर्ण विश्व का ध्यान आकृष्ट किया | 

आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रेस की बहुत बातें की जाती हैं, लेकिन उस समय के किसी भी अखबार ने इंदिरा के द्वारा साधुओं पर गोली चलने की खबर छापने की हिम्मत नहीं दिखायी | सिर्फ मासिक पत्रिका “आर्यावर्त ” और “केसरी ” ने इस खबर को छापा था | और कुछ दिन बाद गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका “ कल्याण ” ने अपने विशेषांक ” गौ अंक में विस्तार सहित यह घटना प्रकाशित की थी | कल्याण के उसी अंक में इंदिरा को सम्बोधित करके स्वामी करपात्री जी ने श्राप दिया था - “तूने निर्दोष साधुओं की हत्या करवाई है . फिर भी मुझे इसका दुःख नही है | लेकिन तूने गौ हत्यारों को गायों की हत्या करने की छूट देकर जो पाप किया है वह क्षमा के योग्य नहीं है | इसलिये मैं आज तुझे श्राप देता हूँ कि तेरे वंश का नाश होगा ” 

अब यह संत के श्राप का प्रभाव है या संयोग कि जिस दिन इंदिरा गांधी पर उनके ही सुरक्षाकर्मियों ने गोलियां बरसाईं, उस दिन भी ” गोपाष्टमी थी . 

स्वामी करपात्री जी द्वारा लिखित अद्भुत ग्रन्थ :- वेदार्थ पारिजात, रामायण मीमांसा, विचार पीयूष, मार्क्सवाद और रामराज्य आदि। 

२९ जनवरी १९८२ को यह अद्भुत तेजस्वी सन्यासी "परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज"इस असार संसार से विदा लेकर प्रभु चरणों में विलीन हो गए | उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर को केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी की पावन गोद में जल समाधी दी गई।

दुर्भाग्य यह है कि गो-वध को रोकने के लिए पुरानी पीढ़ी ने जो कुर्बानी दी, उसकी जानकारी भी आज की पीढी को नहीं है । दुःख की बात यह भी है कि जो सरकार आज सत्ता में है उसे भी न तो गो-वध पर प्रतिबंध लगाने के बारे में रूचि है और ना ही गौ संरक्षण की चिंता । गो-रक्षा का मुद्दा यदाकदा उठता भी है तो महज राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए । अन्यथा क्या कारण है कि न तो पशुवधशालाओं की संख्या घट रही और ना ही गौशालाओं की संख्या बढाने की ओर किसी का ध्यान ! मांस की गुलाबी क्रान्ति के स्थान पर दूध की धवल क्रान्ति का सपना क्या केवल सपना ही रहेगा ? 

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