सनातन संस्कृति के सूर्य स्वामी विवेकानंद - संजय तिवारी

वह सच में नर - इंद्र ही हैं। विवेक विकसित करा देते हैं। नर को सत- चित - आनंद में डुबो देते हैं। सनातन दर्शन के विज्ञान से दुनिया को आलोकित करते हैं तब विश्व की कथित विकसित सभ्यताएं पानी मांगने लगती हैं। शास्त्र सम्मत कार्य उन्हें पसंद हैं। शास्त्रों की उपेक्षा उन्हें बर्दाश्त नहीं। अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा लेकर भी संस्कृत को संस्कृति के लिए अनिवार्य मानते हैं। केवल युग पुरुष या युग द्रष्टा भर नहीं हैं , यकीनन नए भारत के प्रणेता हैं स्वामी विवेकानंद। वह महज कोई संत नहीं है बल्कि दुनिया को विश्वगुरु की झलक दिखा जाने वाली एक ऐसी झांकी हैं जिससे दुनिया अभी भी किसी चमत्कार जैसा ही देखती है। यकीनन उन्हें सनातन संस्कृति का सूर्य कहना ज्यादा श्रेयस्कर होगा। 

किसी विद्वान ने तो यहाँ तक लिखा है - काल के भाल पर कुंकुम उकेरने वाले सिद्धपुरुष का नाम है, स्वामी विवेकानन्द। नैतिक मूल्यों के विकास एवं युवा चेतना के जागरण हेतु कटिबद्ध, मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान के सजग प्रहरी, अध्यात्म दर्शन और संस्कृति को जीवंतता देने वाली संजीवनी बूटी, भारतीय संस्कृति एवं भारतीयता के प्रखर प्रवक्ता, युगीन समस्याओं के समाधायक, अध्यात्म और विज्ञान के समन्वयक, वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु हैं स्वामी विवेकानन्द। उनके प्रभाव की अनुभूति केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया आज भी कर रही है।स्वामीजी के जन्मदिवस को वर्ष १९८५ से भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। आज यानि 12 जनवरी ,उनका जन्मदिवस है। 

संक्षेप में स्वामी जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर नजर डालते हैं। स्वामी जी का जन्म 1863 में हुआ।उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। उनके दादा दुर्गाचरण दत्त, संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। दुर्गाचरण जी ने अपने परिवार को 25 की उम्र में छोड़ दिया और सन्यासी बन गए। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेंद्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में मदद की। स्वामी जी के ऊपर जिस महा पुरुष या कहे कि महामनीषी का सर्वाधिक असर पड़ा वह हैं परमपूज्य स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी महाराज।विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण जी से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीव स्वयं परमात्मा का ही एक अवतार हैं। इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उन्होंने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और मौजूदा स्थितियों का पहले ज्ञान हासिल किया। नरेंद्र से स्वामी विवेकानद बन जाने तक की समग्र यात्रा स्वामी परमहंस रामकृष्ण जी के आशीर्वाद से ही संभव हो सकी। स्वामी जी के इस आध्यात्मिक गुरु के नाम पर ही रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन आज भी चल रहा है। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में उनके प्रयासों एवं प्रस्तुति के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्मिक मूल्यों को सुदृढ़ कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। 

इसमें कोई शक नहीं कि स्वामीजी आज भी अधिकांश युवाओं के आदर्श हैं। उनकी हमेशा यही शिक्षा रही कि आज के युवक को शारीरिक प्रगति से ज्यादा आंतरिक प्रगति की जरूरत है। यह उन्होंने ही युवकों को प्रेरणा देते हुए कहा था कि पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और अंत में उसे स्वीकार कर लिया जाता है। वे युवकों में जोश भरते हुए कहा करते थे कि उठो मेरे शेरों! इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो। वे एक बात और कहते थे कि जो तुम सोचते हो वह हो जाओगे। यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे। अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे। ऐसी ही कुछ प्रेरणाएं हैं जो आज भी युवकों को आंदोलित करती हैं, पथ दिखाती है और जीने की दिशा प्रदत्त करती है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नया भारत निर्मित करने की बात कर रहे हैं, उसका आधार स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएं एवं प्रेरणाएं ही हो सकती हैं।

बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए कूच किया। स्वामी जी ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। प्रस्तुत है स्वामी विवेकानंद का वह समग्र भाषण...


अमेरिका के बहनो और भाइयो,


आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।


मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं। सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
( स्वामी विवेकानद विश्वकोश से साभार )

इसी ऐतिहासिक भाषण के बाद सारा जगत भारत की सनातन परमपरा और संस्कृति को समझने के लिए व्याकुल हो उठा। इस भाषण ने स्वामी विवेकानद के रूप में भारत की अध्यातिक विरासत को विश्व के सामने रख दिया था और ब्रिटिश हुकूमत के अधीन जी रहे भारतीयों में एक नयी चेतना का पुनर्जागरण भी हो गया। इसके बाद स्वामी जी तो जैसे आंधी बन गए। संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में वेदांत दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया, सैकड़ों सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया।इस ज्ञानपुंज से वेदान्त, दर्शन, न्याय, तर्कशास्त्र, समाजशास्त्र, योग, विज्ञान, मनोविज्ञान आदि बहुआयामी पावन एवं उज्ज्वल बिम्ब उभरते रहे। वे अतुलनीय संपदाओं के धनी थे। वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य के एक उत्साही पाठक थे। इनकी वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। उनको बचपन में भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया गया था और ये नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में भाग लिया करते थे। उन्होंने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का भी व्यापक अध्ययन किया।

स्वामी जी बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार उन्होंने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। 

उन्होंने कहा था - मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। 

वे पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी-देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये। उनका यह कालजयी आह्वान एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। उनके जीवन की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही है। उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी जलन का विषय है। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी जरूरत है।

नारी का सदैव सम्मान करे

एक विदेशी महिला स्वामी विवेकानंद के पास आयी और बोली - मैं आपसे विवाह करना चाहती हूँ. स्वामी जी ने कहा आप तो किसी से भी विवाह कर सकती है फिर मुझसे ही क्यो? क्या आपको यह नही पता की मैं एक सन्यासी हूँ और आगे का पूरा जीवन सन्यासी जीवन जी कर ही यापन करूँगा। महिला बोली – मैं आपके जैसा ही सुशील, तेजमयी, ओजस्वी और गौरवशाली पुत्र चाहती हूँ और यह तब ही संभव होगा जब मेरा विवाह आपसे होगा। स्वामी विवेकानंद ने बड़ी नम्रता और शालीनता से कहा – हमारी शादी तो नही हो सकती, लेकिन हाँ मेरे पास इस जटिल समस्या का एक उपाय है. उस महिला ने कहाँ मैं इस समस्या का उपाय जानना चाहती हूँ. स्वामी जी ने कहा – क्यो न मैं आज और अभी से ही आपका पुत्र बन जाऊँ और आप मेरी माँ. आपको मेरे स्वरूप में मेरे जैसा एक पुत्र मिल जायेगा और मुझे एक माँ। महिला यह सब सुन के गदगद हो गई और रोते हुए स्वामी जी के चरणों में गिर गई और कहा आप तो साक्षात ईश्वर हो क्योकि ऐसा सुझाव तो सिर्फ़ ईश्वर ही दे सकता है। ऐसा था स्वामी विवेकानंद का पुरुषार्थ क्योकि एक सच्चा और महान पुरुष वही होता है जो हर पराई नारी के प्रति भी अपने अंदर मातृत्व की भावना उत्पन कर सके. इस प्रसंग द्वारा बड़ी खूबसूरती के साथ स्वामी जी ने हमें भारतीय संस्कृति का भी ज्ञान दिया है।

मैकाले की शिक्षा प्रणाली के सख्त विरोधी 

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा के सिद्धान्त भारत की शिक्षा के अधूरेपन को दूर करने में सक्षम हैं। वे मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। यह अलग बात है कि स्वामी जी के नाम कई माला जपने वाली आजाद भारत की सरकारों में से किसी ने अब तक मैकाले की शिक्षा पद्धति को बदल कर भारतीय शिक्षा प्रणाली लागू करने की कोई ख़ास कोशिश नहीं की। स्वामी जी के स्वप्न अभी अधूरे ही हैं। उनके सपनो के भारत की अभी आधारशिला तक हम तैयार नहीं कर सके हैं। स्वामी जी की याद तो हमें बहुत आती है पर उनके रस्ते पर चलने में पता नहीं क्यों हिचकते हैं। यह हिचक हटानी होगी। स्वामी जी के सिद्धांतो को जीवन में उतारना होगा। यह जिस क्षण हम करने लगेंगे , भारत की तस्वीर और तकदीर दोनों बदलनी शुरू हो जाएगी और तब वह विश्वगुरु बनाने को ऒर चल पड़ेगा। केवल आर्थिक उन्नति हमें विश्वगुरु नहीं बना सकती। इसके लिए नैतिक और चरित्र के विकास की परम आवश्यकता है। 

स्वामी जी के जन्म दिवस पर शत -शत नमन।

संजय तिवारी
संस्थापक- भारत संस्कृति न्यास नयी दिल्ली
वरिष्ठ पत्रकार 

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