अंग्रेज गए पर नीतियाँ छोड़ गए - बलबीर पुंज


विगत दिनों महाराष्ट्र में व्यापक रूप से हुई हिंसा और सामाजिक तनाव की घटनाओं ने जहाँ एक ओर ब्रिटिश शासनकाल की षडयंत्रकारी नीति का स्पष्ट दिग्दर्शन कराया, बहीं यह भी स्पष्ट किया कि भारत से अंग्रेजों के प्रस्थान के 70 साल बाद भी भारतीयों का एक वर्ग अब भी उसी विभाजनकारी मानसिकता में जी रहा है | स्पष्ट ही इसके लिए भारतीय शासकों की गलत नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ।

अंतर-धार्मिक हिंसा मध्ययुगीन यूरोप में आम थी, और इसके कारण प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक के बीच युद्धों में 15 वीं और 18 वीं शताब्दी के बीच पश्चिम में हजारों लोगों की मौत हुई थी | आज भी इस्लामिक दुनिया में हजारों जीवन शिया-सुन्नी संघर्षों में नष्ट होते है। 

जहाँ तक भारत का सवाल है, यहाँ सदियों से हिंदुओं ने अपनी आस्था और विश्वास के कारण विधर्मियों के हाथों अमानवीय व्यवहार और अपमान के कड़वे घूँट पिए । हिंदुओं का प्रबुद्ध आध्यात्मिक और राजनीतिक नेतृत्व निरंतर इस अन्याय से लड़ता रहा । लगातार के गुलामी कालखंड में हिन्दुओं में अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराई आई, किन्तु गुरू नानक व अन्य हिंदू समाज सुधारकों के प्रयासों का परिणाम रहा कि किसी ने भी बौद्धिक स्तर पर अस्पृश्यता का बचाव नहीं किया | हालांकि सामाजिक पूर्वाग्रहों के चिन्ह अभी भी कहीं कहीं दिखाई दे जाते हैं । किन्तु यह भी उल्लेखनीय है कि इसके बाद भी दलितों के लिए आरक्षण संभव हुआ है ।

संविधान सभा में अधिकाँश सवर्ण हिंदू थे । किन्तु वे दलितों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने के प्रयास रूप आरक्षण पर सहमत हुए। इतना ही नहीं तो जो आरक्षण महज 10 साल के लिए होना चाहिए था, उसे कई बार बढ़ा दिया गया | चाहे जो पार्टी सत्ता में रही हो, आरक्षण की कालावधी को बढ़ाने के लिए प्रत्येक संवैधानिक संशोधन को संसद का सर्वसम्मत समर्थन प्राप्त हुआ ।

इसके बाबजूद अगर हिंसा हो रही है, तो आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके पीछे केवल और केवल “भारत तोड़ो गेंग” का हाथ है, जिनका घोषित उद्देश्य है भारत में अस्थिरता फैलाना और उनके विभाजनकारी एजेंडे में दलित केवल मोहरे हैं । झूठे ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर, काल्पनिक कहानी बनाकर हिंदू समाज के ताने बाने को छिन्न भिन्न कर मुसलमानों और दलितों के बीच एक बेमेल गठबंधन का यह कुत्सित षडयंत्र है। पहले भी ऐसी कोशिशें होती रही हैं, किन्तु सदा असफल हुई हैं |

आईये एक नजर डालें कि 200 वर्ष पूर्व आखिर कोरेगांव में हुआ क्या था ? भारत में आक्रमणकारी ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा बलों के बीच लड़ाई का इतिहास क्या है? 1 जनवरी 1818 को, कंपनी की सेना और मराठों के बीच कोरेगांव में युद्ध हुआ | ब्रिटिश सेना में महज महार ही नहीं, बल्कि विभिन्न समुदायों के लोग शामिल थे । इसी तरह, पेशवा की सेना में भी दलित समुदायों सहित कई समुदायों के सैनिक थे। इस ब्रिटिश विरूद्ध भारतीयों की लड़ाई को पेशवा विरुद्ध महार कैसे बना दिया गया? अगर इस मूर्खतापूर्ण तर्क के आधार पर 1 9 1 9 में हुए जलियांवाला बाग नरसंहार का विचार करें तो क्या होगा? वह जनरल डायर था जिसने फायरिंग का आदेश दिया, और जिन्होंने गोलियां चलाईं, उनमें 50-गोरखा सैनिक भी शामिल थे |

विचारणीय प्रश्न यह भी होना चाहिए कि अंग्रेजों के आने से पहले महारों की स्थिति क्या थी? शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी संभाजी ने महारों के परिश्रम और युद्धक क्षमताओं को पहचानकर उन्हें किलों के रक्षक के रूप में तैनात किया और सेना में बड़े पैमाने पर महारों को भर्ती किया गया था। औरंगजेब द्वारा शम्भाजी की नृशंस ह्त्या के बाद संभाजी के अवशेषों का अंतिम संस्कार गणेश महार द्वारा ही किया गया था।

सचाई तो यह है कि महारों के साथ पेशवाओं की तुलना में ब्रिटिशों ने कहीं अधिक जातिगत दुर्व्यवहार किया था । 18 9 2 में कुख्यात 'मार्शल रेस' सिद्धांत से प्रेरित, ब्रिटिशों ने "वर्ग रेजिमेंट" स्थापित करने का निर्णय लिया | प्रारम्भ में तो महारों को सेना में शामिल करने के लिए पर्याप्त योग्य नहीं माना, किन्तु बाद में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, ब्रिटिश सेना में महारों की भर्ती की अनुमति दी गई | लेकिन जैसे ही युद्ध समाप्त हुआ, उन्हें बाहर निकाल दिया गया ।

1 9 27 में, बाबासाहेब अंबेडकर ने अंग्रेजों की सेना में एक बार फिर महारों की भर्ती करवाने का प्रयास किया और वीर सावरकर ने भी उनका समर्थन किया। रत्नागिरी में हुए महार सम्मेलन की अध्यक्षता हेतु सावरकर को आमंत्रित किया गया था | हिन्दू महासभा के एक अन्य प्रमुख नेता और अंबेडकर के नजदीकी, डॉ. मुंजे ने 1 9 31 में चेतवोड कमेटी के सम्मुख सेना के भारतीयकरण पर अपनी प्रस्तुति दी | 

25 नवंबर, 1 9 4 9 को संविधान सभा में डॉ अंबेडकर ने अपने अंतिम भाषण में कहा -

"मुझे यह बात बहुत परेशान करती है कि भारत ने पूर्व में न केवल अपनी आजादी खोई, बल्कि उससे भी ज्यादा दुखद यह है कि अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण खोई । महोमद बिन कासिम ने जब सिंध पर आक्रमण किया, तब राजा दाहर के कुछ सैन्य कमांडरों ने कासिम के लोगों से रिश्वत लेकर राजा दाहिर के पक्ष में लड़ने से इनकार कर दिया।

जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तब कुछ अन्य मराठा और राजपूत राजा मुगल सम्राटों के सहयोगी थे । जब ब्रिटिश सिख शासक को नष्ट करने की कोशिश कर रहे थे, तब उनके प्रमुख कमांडर गुलाब सिंह चुप थे और उन्होंने सिख राज्य को बचाने में कोई मदद नहीं की।

1857 में, जब भारत के एक बड़े हिस्से ने ब्रिटिशों के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई घोषित की थी, तब सिख खड़े नहीं हुए और इस घटना को चुपचाप दर्शकों के समान देखते रहे । क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? यह एक ऐसा विचार है जो मुझे चिंतित करता है | यह चिंता इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि जाति और वर्ग के रूप में हमारे पुराने दुश्मनों के अतिरिक्त अलग अलग राजनीतिक विचारों वाले विविध राजनीतिक दल भी विरोधाभाष को बढ़ा रहे हैं ।

क्या भारतीय कभी अपने देश को सर्वोच्च रख पायेंगे? 

मुझे नहीं पता। लेकिन यह बहुत निश्चित है कि यदि दलों ने देश को सबसे प्रमुख नहीं माना तो हमारी आजादी एक बार फिर संकट में घिर जायेगी और संभवत: हम हमेशा के लिए उसे खो देंगे । यह स्थिति न आये, इस हेतु हम सभी को दृढ़ता से प्रयत्न करना चाहिए। हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी आजादी की रक्षा हेतु दृढ संकल्पित होना चाहिए। "

क्या ऐसे बाबा साहब अम्बेडकर के नाम पर देश के साथ तबाही-तबाही खेलना उचित है?

लेखक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के विश्लेषक और पूर्व राज्यसभा सदस्य हैं
ईमेल: punjbalbir@gmail.com
सौजन्य: न्यू इंडियन एक्सप्रेस

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