श्रद्धांजलि-साहित्य को धंधा बना देने वाले साफ हो जायेंगे : दूधनाथ सिंह- संजय तिवारी

दूधनाथ सिंह नहीं रहे ! कथाकार दूधनाथ सिंह नहीं रहे ! आलोचक दूधनाथ सिंह नहीं रहे ! लगभग साठ वर्षों से अनवरत चलती रही रचना यात्रा को विराम लग गया ! वह सुस्ताने चली गयी ! अनिल राय के शब्दों में रचना में आलोचना और आलोचना में रचना के एक असाधारण लेखक ने कल हम- सबसे विदा ले ली ! डॉ. अल्पना ने लिखा - अपनी मंडली में हमेशा हम उन्हें तत्सत पाण्डेय ही कहा करते थे ! बमुश्किल कभी दूधनाथ सिंह कहा होगा ! अभी पिछले सप्ताह ही इलाहाबाद गयी थी, झाँसी के पास तक !  सभी मित्रों और आलोक के साथ मिल कर प्लान बना कि आज पाण्डेय सर से मिला जाये ! लेकिन उनके स्वास्थ्य के बारे में सोच कर हमने इरादा बदल दिया ! मेरे बहुत आत्मीय और प्रिय हैं दूधनाथ सिंह सर ! मन मार कर वापस आना पड़ा कि फरवरी में फिर आ कर मिल लूँगी ! उनकी उर्वशी से बहुत प्रभावित थी मै ! अभी कल रात ही उनकी कहानी आइसबर्ग पढ़ रही थी ! नहीं मालूम था सुबह यह खबर मिलेगी ! ऐसी प्रतिक्रियाओं से आभासी दुनिया की भीत भरी पड़ी है! ऐसे युगधर्मी रचनाकार की विदा बेला सभी को अखर गयी ! नए पुराने लेखकों और साहित्य प्रेमियों के लिए यह खबर पीड़ादायक तो थी ही !

दूधनाथ सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के सोबंथा गाँव में 17 अक्टूबर, 1936 को हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम. ए. करने के पश्चात् कुछ दिनों तक कलकत्ता (अब कोलकाता) में अध्यापन करने के पश्चात् इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापन करने लगे। सेवानिवृति के बाद वह पूरी तरह से लेखन के लिए समर्पित हो गये। वह कहा करते थे कि इलाहाबाद को समझने में मुझे 50 वर्ष लग गए। बहुत प्यार सा हो गया है इससे। अगर जीवन बचा रहा तो इलाहाबाद को ‘डिफ़ाइन’ करना और उसकी स्मृतियां बटोरने का काम जरूर करूंगा। इलाहाबाद आज भी एक हरा-भरा और खूबसूरत शहर है। लोग बहुत अच्छे हैं। ठगी और चापलूसी न के बराबर है। खरी बातें बिना लाग-लपेट के यहां कही जा सकती हैं। इलाहाबाद को जानने में मुझे 50 वर्ष लगे। यहां की प्रकृति, यहां के लोग, यहां की खलबलाहट शहर के रेशे-रेशे में घुसी है। यहां का आनंद तत्व इस सबने मुझे जिलाए रखा। और मुझे अपने अवसाद से बार-बार बाहर आकर लिखने के लिए उकसाता रहा। मैंने कहीं अपनी डायरी में लिखा है कि इलाहाबाद मेरी मां है जिसके बिना मैं जिंदा नहीं रह सकता। इस सब कुछ को समेटने के लिए समय की दरकार है और समय कम है। सच में समय कम पड़ गया। 

दरअसल दूधनाथ सिंह की रचनायात्रा से भी अधिक उनका बेबाकीपन चर्चा में रहता था। एक बार उनसे पूछा गया कि निराला: आत्महन्ता आस्था' में आपने कहा है कि जो जितना ही अपने को खाता जाता है-बाहर उतना ही रचता जाता है। लेकिन आज के रचनाकारों में पद, पुरस्कार, प्रतिष्ठा के लिए होड बढती जा रही है, क्या विसंगतियां देखते हैं आप?इस प्रश्न को बड़ी बारीकी से समझाते हुए उन्होंने कहा - यह देखना चाहिए कि जिसमें आत्मबल नहीं, वह कितना भी बडा लेखक हो, अन्तत: 'मीडियॉकर' ही है। मुक्तिबोध, अज्ञेय, निराला, शमशेर इन सबों में आत्मबल था। प्रेमचन्द में आत्मबल था। उनकी हैसियत और कैरियरिस्ट की हैसियत हिन्दी में एकदम साफ है। लोगों ने साहित्य को धंधा बना रखा है। भविष्य में ये लोग साफ भी हो जाएंगे। अपने को खाना और रचते जाना यह कला का अनिवार्य तत्व है और यह अनजाने ही होता है। कला के प्रति पूर्णत: समर्पण के कारण होता है। यह मुक्तिबोध, शमशेर या निराला में था। कोई लेखक जान-बूझकर अपने को नहीं खाता, यह रचने की बेचारगी है, जिससे सच्चे लेखक को निजात नहीं।

इसी प्रकार महादेवी वर्मा को 'विवाहित अविवाहिता' के रूप में चित्रित करना, फिर मुल्ला अब्दुल कादिर से प्रेम-प्रसंग की चर्चा, इसके बाद जन्मतिथि को लेकर उठा विवाद। यह सामने आने पर दूधनाथ जी ने इसे भी बड़े ही आत्मीय भाव में ही निस्तारित किया। बोले - मैंने सारी चीजें प्रमाण के आधार पर कहीं। महादेवी जी ने अपने पूरे लेखन में नरसिंहगढ क़ा कहीं जिक्र नहीं किया। यह गौरतलब बात होनी चाहिए कि क्यों नहीं किया? लेकिन फिर भी उनका प्रेम-प्रसंग पूरी तरह सिध्द नहीं है। मैंने भी कयास ही लगाया है। मैंने उनको अपमानित नहीं किया है, बल्कि हिन्दी के लोगों को इस बात का गर्व होना चाहिए और महादेवी पर श्रध्दा होनी चाहिए कि उनके आरंभिक कवि जीवन में एक भौतिक प्रेम-प्रसंग भी था, जिसका उन्होंने अपनी कविता में अनुवर्तन किया है। इसी को मैंने 'पार्थिव की अपार्थिव यात्रा' कहा है, जो महादेवी की संपूर्ण कविता का सार-तत्व है। महादेवी मीरा की तरह मध्यकालीन कवयित्री नहीं हैं, जो निर्गुण की पूजा करें। उनकी कविता का स्रोत आधुनिक है, इसको समझना चाहिए।

देश के हालात हमेशा अपनी चिंता जाहिर करते रहे। राजनीति और परिस्थितियों नसे उन्होंने नहीं चुराया। वह साहित्य से इसके रिश्ते को जोड़ कर सब सामने रख देते थे। कहते थे - भारतीय प्रजातांत्रिक प्रणाली को बुजुर्आ वर्ग और सत्ता के लोग माफिया, लूटेरे अपने लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। वे सभी जनता के वोट मात्र से पैदा हुए और सुरक्षित नए शोषक वर्ग के रूप में उभरे। भारतीय जनता को चाहिए कि वह इस बात को समझे। चूंकि भारतीय जनता नहीं समझ रही है, इसलिए सत्ता का निर्माण करते हुए भी वह अपंग है। उसके सारे दुखों का कारण है उसके द्वारा अपने निहत्थेपन को न समझ पाना।'काशी नरेश से पूछो' में लंगड ने 'अंठई' का अर्थ पूछकर ही अपनी उम्र बारह सौ बरस बताने वाले ब्राह्मणों को चित्त कर दिया था। इसमें 'काशी का अस्सी' से अलग तस्वीर दिखती है काशी की।वह कहानी सत्ता और बौध्दिक वर्ग के गठजोड क़ी है, जिसमें आम जनता के अधिकारों का हनन होता है। कहानी का अंत देखें, तो यह बात स्पष्ट हो जाती है।

ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह, विजय मोहन सिंह, गंगा प्रसाद विमल को वह अपनी वास्तविक पीढ़ी मानते थे। वह कहा करते थे - हम सभी ने एक साथ 60 के आसपास कहानियां लिखनी शुरू की। हम रोमांटिक स्वप्नभंग के कथाकार हैं। इसी अर्थ में हमने ‘नई कहानी आंदोलन’ से अलग अपनी छवि निर्मित की। इसे मैं अक्सर नेहरू युग से मोहभंग के कथावृत्त के रूप में भी पारिभाषित करता हूं। यह यथार्थ के अधिक निकट और अधिक विश्वसनीय था। हमारा इस तरह से सोचना और कहानियों में इसको मूर्त करना, जैसे ज्ञानरंजन की ‘पिता’ कहानी है, मेरी ‘रक्तपात’ है या रवीन्द्र कालिया की ‘बड़े शहर का आदमी’, काशीनाथ सिंह की ‘अपना रास्ता लो बाबा’- इन सब कहानियों ने हिन्दी कहानी के पिछले अनुभव के ढांचे को ध्वस्त कर दिया। मां और पिता से संबंध, इसी तरह और भी सारे संबंधों को उनकी सही रोशनी में जांचना-परखना हमने शुरू किया। तब यह हमारी पिछली पीढ़ी और उससे भी पहले के कहानीकारों को विचित्र लगा। पुरानों में सिर्फ जैनेन्द्र ने और नई कहानी की पीढ़ी में सिर्फ मोहन राकेश और कमलेश्वर ने हमें तरजीह दी। तथाकथित यथार्थवादी कहानीकारों ने इसका बुरा मनाया। आज हमारी पीढ़ी को ऐतिहासिक जगह प्राप्त है। हमारे बिना पीछे और आगे के कथाकारों की समुचित व्याख्या और हिन्दी कहानी के विकास को समझना संभव नहीं है।

एक साक्षात्कार में दूधनाथ सिंह ने कहा था - कोई भी समाज तब बंटता है जब उसमें कोई वैचारिक एकरूपता नहीं होती। समय इसलिए भी बंटा हुआ है कि रोजी-रोजी, किसानी, नौकरी, मजदूर वर्ग के हालात सब धीरे-धीरे खराबी की ओर जा रहे हैं। राजनैतिक आशावाद समाज को छल रहा है। बहुत सारी समस्याओं का हल ऊपर से नहीं लादा जा सकता। जनता की भोली-भाली मन:स्थिति (चेतना नहीं) को लगातार ठगा जा रहा है। कबीर की वह पंक्ति ‘कवनो ठगवा नगरिया लूटल हो’ आज शिद्दत से याद आ रही है। ठगी का व्यापक प्रभाव चारों ओर दिख रहा है। जन आंदोलनों का अभाव, ट्रेड यूनियनों की दलाली एक तरह से राजनीति को क्षरणीय कर रहे हैं। प्रतिबद्धता और सरोकार को लेकर लेखकों में चाहे सांगठनिक स्तर पर हो या गैर सांगठनिक स्तर पर, विचलन की स्थिति संभव है। यह एक त्रासद स्थिति है, जहां लेखकीय कर्म को बाजार सुनिश्चित करे। हमने इससे बचने की लगातार कोशिश की है। लाभ-लोभ के लिए हर समझौते से इनकार किया। किसी की मुंहदेखी नहीं की। इसका फल भुगत रहा हूं। बावजूद इसके लेखक संगठन (जलेस) को बचाने की हमने हरसंभव कोशिश की। सामाजिक और आर्थिक जन आंदोलनों के अभाव में लेखकीय एकजुटता एक एकांतीकृत चीज है। फिर भी हमें लगता है कि हम लेखकों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश में सफल होंगे कि उनका लेखन बाजार निर्धारित न करे। यह देश बहुत बड़ा है और यह कभी भी अपने राजनैतिक और आर्थिक शोषकों के खिलाफ उठ खड़ा हो सकता है।हमें अंतिम रूप से दबा देना और परवश कर देना संभव नहीं है। हमारी दीक्षा मार्क्सवाद के अंतर्गत हुई है। अत: सारे व्यक्तिगत घटाटोपों, निराशाजनक स्थितियों, अंदर और बाहर की मार से मैं कभी त्रस्त नहीं होता। अवसाद मुझेमारता है तो एक संजीवनी दृष्टि भी देता है। वह यह है कि जीवन से बड़ा कुछ भी नहीं। वह यह भी कि एक ही जीवन मिलता है और हर समझदार व्यक्ति को उसे समाज को अर्पित कर देना चाहिए। इसमें जो हो, उसका स्वागत है। मैंने अपना जीवन संयोगवश हाथ लगे एक लेखक के रूप में समाज को अर्पित किया। मैं जब अपने दुखों के बारे में लिखता हूं तो वे सार्वजनिक दुख होते हैं। मैं अपने बारे में कुछ नहीं लिखता। सार्वजनिकता के बारे में जीवन की इस पटकथा को बार-बार दर्शकों के सामने अभिनीत करता हूं। कितना सार्थक या निरर्थक…ये वो जानें।

प्रमुख कृतियाँ

उपन्यास: आख़िरी कलाम, निष्कासन, नमो अंधकारम्। 

कहानी संग्रह: सपाट चेहरे वाला आदमी , सुखांत ,प्रेमकथा का अंत न कोई, माई का शोकगीत ,धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, तू फू ,कथा समग्र। 

कविता संग्रह: अगली शताब्दी के नाम , एक और भी आदमी है, युवा खुशबू ,सुरंग से लौटते हुए (लंबी कविता)

नाटक: यमगाथा

आलोचना

निराला : आत्महंता आस्था , महादेवी। मुक्तिबोध : साहित्य में नई प्रवृत्तियाँ

संस्मरण: लौट आ ओ धार , साक्षात्कार : कहा-सुनी

संपादन
तारापथ (सुमित्रानंदन पंत की कविताओं का चयन)

एक शमशेर भी है

दो शरण (निराला की भक्ति कविताएँ)

भुवनेश्वर समग्र

पक्षधर (पत्रिका - आपात काल के दौरान एक अंक का संपादन जिसे सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया)

सम्मान और पुरस्कार

भारतेंदु सम्मान

शरद जोशी स्मृति सम्मान

कथाक्रम सम्मान

साहित्य भूषण सम्मान

संजय तिवारी
संस्थापक - भारत संस्कृति न्यास (नयी दिल्ली)
वरिष्ठ पत्रकार

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