युग के सबसे महान हिन्दू "डॉ.केशव बलीराम हेडगेवार" – (द्वारा स्व. एकनाथ रानाडे)




"अभी अभी डॉक्टरजी आने वाले हैं," लगभग दौड़ते हुए हमारे घर में आकर किसी ने उत्साहपूर्वक सूचना दी । इस संदेश ने परिवार में सुखद हलचल पैदा कर दी । घर के सभी सदस्य, युवा और बुजुर्ग, डॉकटरजी की अगवानी की तैयारी में जुट गए । मैं परिवार के लोगों की इस खुशी और उत्साह को देखकर मैं हैरत में था, और उत्सुकता से दरवाजे की ओर देख रहा था, कि आखिर कौन डाक्टर आने वाला है । यह सन 1926 की बात है, उस समय मैं संभवतः 12 वर्ष का था। स्कूल की छुट्टियों में. मैं अपने जीजाजी श्री अनंतराव (अन्ना) सोहोनी के यहाँ छुट्टियों का आनंद ले रहा था, जो डॉक्टरजी के करीबी दोस्त और सहयोगी थे | हालांकि मैं कुछ ज्यादा समझ तो नहीं पा रहा था, किन्तु घर वालों का उत्साह देखकर मैं भी अपने अन्दर प्रसन्नता और उत्साह की लहर अनुभव कर रहा था । कुछ मिनट बाद, पैरों की आवाज़ आई और हंसते मुस्कुराते हुए वे डाक्टर घर में प्रविष्ट हुए, जिनकी सब लोग उत्साह से प्रतीक्षा कर रहे थे । उनके साथ कम से कम एक दर्जन युवक भी थे | इन लोगों के आते ही घर में किसी उत्सव जैसा प्रसन्नता का माहौल बन गया, मानो प्रेरणा और नव-चैतन्य ने पूरे घर को भर दिया हो |

मुझे याद है

हालांकि मैं बार बार अपने जीजाजी के उस कमरे में तांकझांक कर रहां था, जहां वे सभी अत्यंत आत्मीयता और प्रेम पूर्वक चाय पीते हुए गपशप कर रहे थे, किन्तु डॉक्टर साहब और उनके नजदीकी लोगों के सामने आने में, मैं शरमा रहा था । आज भले ही उन शुरुआती दिनों की बहुत धुंधली सी ही याद है, लेकिन यह घटना मेरे दिमाग में इतनी उज्ज्वल है कि उस दिन की गपशप और उनकी दिल की गहराईयों में उतर जाने वाली हंसी अब भी मेरे कानों में गूंजती सी लगती हैं। आज जब मैं पीछे की ओर मुड़कर देखने की कोशिश करता हूं और उन आनंददाई घटनाओं की श्रृंखला को याद करता हूं, जिन्होंने मुझे उनसे इतना अधिक प्रभावित कर दिया कि मैंने अपने आप को उस महान आदर्श के लिए समर्पित कर दिया, जो डॉक्टरजी के जीवन के माध्यम से मेरे सामने आया | मेरा दिल आनन्द से भरा हुआ है और मैं उस ईश्वरीय कृपा का आभारी हूँ, जिसके कारण मुझे इस युग के महानतम हिंदू के संपर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।

कुछ जानकारियाँ -

डॉक्टर केशव रावजी हेडगेवार मूल रूप से हैदराबाद राज्य के गांव कंडकुर्ती के एक तेलगु परिवार से थे, हालांकि बाद में वे केंद्रीय प्रांतों में रहे । अतः स्वाभाविक ही डॉक्टरजी के जीवन के बारे में लिखना एक बहुत ही मुश्किल काम है। किन्तु जो कुछ भी थोडा बहुत, उनके शुरुआती जीवन के बारे में पता चलता है, उससे यह तो बहुत स्पष्ट दिखाई देता है कि वे स्वभावतः राजनीतिज्ञ नहीं वरन एक क्रांतिकारी थे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे अतुलनीय संगठन को प्रारम्भ करने के बहुत पूर्व ही नागपुर और कलकत्ता में उनके संगठनात्मक कौशल का परिचय मिलता है, भले ही उसका कारण कुछ और था । उन्होंने कलम और कागज़ का उपयोग बहुत जरूरी होने पर ही किया । बाहरी दिखावे का उनके लिए कोई महत्व नहीं था, यहाँ तक कि उन्होंने संगठन का गठन पहले किया, और उसके लिए उपयुक्त नाम की खोज बाद में की | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम तो छः महीने बाद दिया गया | यह इस बात का प्रमाण है कि उनकी दृष्टि में कार्य ही मुख्य था, औपचारिकताएं गौण ।

यहां तक ​​कि उनके अनुसार तो स्वयंसेवकों की सूची भी अनावश्यक थी। उनकी एक एकमात्र तकनीक थी, जीवंत और ताकतवर संपर्क । स्वयंसेवकों के साथ आपसी निकट संपर्क ही उनके काम की व्यवस्था का वास्तविक आधार था | बहुत बाद में जब कार्य का इतना विस्तार हो गया कि एक व्यक्ति की स्मरण शक्ति सीमा से परे हो गया, तब कहीं जाकर उन्होंने कागज़ा का इस्तमाल प्रारम्भ कर सूचियाँ और रजिस्टर आदि बनवाये । कई लोगों का एकमात्र रिकार्ड उनकी बहुविध गतिविधियां होती हैं, जो लोगों को प्रेरित करती हैं, और कार्य को गति देती हैं । ऐसे ही डाक्टर साहब थे |

बचपन -

उनके संघ जीवन के पूर्व की गतिविधियों के बारे में बाहरी दुनिया को बहुत कम जानकारी है और यह निश्चित भी नहीं है कि उनके साहसिक जीवन के उस दौर पर कोई प्रकाश डाला जा सके । वह एक छिपा हुआ खज़ाना है जो केवल उनके उन साथियों तक ही सीमित है, जो अभी भी जीवित हो सकते हैं। यहां तक ​​कि सौभाग्य से या दुर्भाग्य से, विदेशी शासन के तथाकथित कुशल खुफिया विभाग के रिकॉर्ड भी, उनके हाई स्कूल के दिनों की गतिविधियों के बारे में किसी भी वास्तविक जानकारी की आपूर्ति करने में असमर्थ हैं ।

विभाग ने एक बार हमें सामान्य तौर पर बस इतना बताया था कि किसी साजिश या अन्य-सामान्य रणनीति के तहत उन्हें फंसाने की पूरी कोशिश हुई थी । उन्होंने एक महाराष्ट्रियन सज्जन से सम्बंधित घटना का उल्लेख किया, जिसे विभाग द्वारा नेशनल मेडिकल स्कूल, कलकत्ता में विशेष रूप से नियुक्त किया गया था, जहां डॉक्टरजी उन दिनों अध्ययन कर रहे थे। बाद में वह व्यक्ति उसी लॉज में रहने भी पहुँच गया, जिसमें डॉक्टरजी और उनके सहयोगी रहते थे | उसके इरादों को संदिग्ध मानते हुए भी डॉक्टर जी ने उसे आने दिया । हालांकि डॉक्टरजी के सहयोगी उस सरकारी मुखबिर के प्रवेश को लेकर बहुत परेशान हुए, किन्तु बाद में जब डॉक्टरजी ने अपनी योजना उन्हें बताई, तब कहीं जाकर वे संतुष्ट हुए । नतीजा यह निकला कि लॉज में रहने वालों की जासूसी करने आये आदमी की ही, बिना उसकी जानकारी में आये, रातदिन जासूसी होने लगी | और अंततोगत्वा डिपार्टमेंट ने उस व्यक्ति को नाकारा और अक्षम मानकर न केवल कोलेज और लोज से वापस बुला लिया, बल्कि उसे विभागीय तौर पर दण्डित भी किया गया |

यद्यपि आज यह संभव नहीं है, कि उनके दिन प्रतिदिन, हर माह या उनकी शुरुआती ज़िंदगी का पूरी तरह से वर्णन किया जा सके, फिर भी उनके द्वारा आरएसएस की स्थापना के पूर्व की कुछ घटनाओं पर दृष्टि डालना पर्याप्त होगा ।

एक महत्वपूर्ण घटना

जब यह बच्चा, खिलौने और मिठाई या गिल्लीडंडा और पत्थरों के साथ शेष सामग्री के साथ खेलने के स्थान पर, सिताबल्दी के नागपुर किले को ब्रिटिश कब्जे से मुक्त कराने का न केवल सपना संजोता है, बल्कि उसे अमलीजामा पहनाने के लिए अपने घर से किले तक सुरंग खोदने जैसा सैन्य अभियान शुरू कर देता है – लेकिन उसका यह मास्टर प्लान चौपट हो जाता है | अंग्रेजों के द्वारा नहीं, बल्कि परिवार में बुजुर्गों द्वारा, जो कमरे को क्षतिग्रस्त करने वाली इस छोटी सी गुरिल्ला सेना को दंडित भी नहीं कर सकते थे । बच्चे ने शुरू से ही शिवाजी को अपने नायक और आदर्श के रूप में चुन लिया था और यही उसके बचकाने किन्तु साहसी करतब से स्पष्ट होता है ।

क्यों पूना : क्यों कलकत्ता-

इसलिए स्वाभाविक ही इस लडके ने, ब्रिटिश अधिकारियों की धुन पर नाचते स्कूल प्रशासन की चुनौती को स्वीकार किया, जिन्होंने स्कूल में 'वंदे मातरम्' बोलने पर पर प्रतिबन्ध लगा दिया था | स्कूल में इस विद्रोह का नेतृत्व किया युवा केशव ने और परिणामस्वरूप उन्हें वह भूमिका निभाने का अवसर मिला गया, जो परमेश्वर ने उनके लिए निर्धारित की थी । उन्हें स्कूल से निष्कासित कर दिया गया और उन्हें राजनीति के गर्म-बिस्तर कहे जाने वाले और "राजनीतिक अशांति के पिता" लोकमान्य तिलक के कार्यक्षेत्र पूना जाने का अवसर मिला ।

नेशनल हाई स्कूल पूना से मैट्रिक करने और कुछ वर्ष वहां रहने के बाद, उन्होंने अपनी आगामी गतिविधि का केंद्र कोलकाता को बनाना तय किया । तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों और देश में वह रही राजनीतिक धाराओं पर विचार करें तो यह स्वतः समझ में आ जाता है कि कोलकता ने इस युवक को क्यों आकर्षित किया होगा । निश्चित रूप से उनके कोलकता जाने के पीछे ना तो कोई रुचिकर विषय था, ना ही मेडीसिन की शिक्षा और ना ही कोई महाविद्यालय की शिक्षा । उनके ही बयानों से, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे कोलकता जाकर विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से संबंधित बंगाल के कई प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के संपर्क में आए । जब तक पूना में रहे, वहां भी उन्होंने बहुत करीब से विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन किया और उनके कार्यक्रमों में भाग लिया।

नब्ज पर हाथ -

1916 में जब वे एक सुयोग्य डॉक्टर के रूप में नागपुर लौटे, तब तक वे कॉलेज से ताजा ताजा निकले एक युवा से कहीं अधिक अनुभव से समृद्ध थे। चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करके आने के बाद भी आने वाले कई वर्षों तक उन्होंने इसे व्यवसाय बनाने के स्थान पर प्रख्यात व्यक्तियों और ऊर्जावान युवाओं से संपर्क करने पर ध्यान केन्द्रित किया | उनके दिमाग को एक ही सवाल मथ रहा था कि कैसे भारत के कंधे पर से विदेशी जुआ हटाया जा सकता है ? और इसके लिए मध्य प्रांत में कैसे समर्पित कार्यकर्ताओं का एक मजबूत केंद्र बन सके ? वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर गए, अनेक व्यक्तियों से मिले, लेकिन संतोष नहीं हुआ, मन को शांति नहीं मिली। हालांकि, एक व्यक्ति अवश्य उनके लिए प्रेरणा और शांति के स्रोत थे। वह थे लोकमान्य तिलक । किन्तु 1920 में हुई उनकी मृत्यु ने डॉक्टरजी को एक बड़ा झटका दिया, जिसमें से वे कभी बाहर नहीं निकल सके । यहां तक ​​कि अपनी मौत से एक सप्ताह पूर्व, लगभग अचेत अवस्था में भी वे तिलकजी की असामयिक मृत्यु पर दुख व्यक्त करते सुनाई दिए । इसके पूर्व भी मैंने उन्हें अक्सर कहते सुना था कि "तिलकजी हमारे संगठन के मार्गदर्शन के लिए उपलब्ध होते और वर्तमान प्रगति को देखते तो हम कितने भाग्यशाली होते ।"

1921 और उसके बाद -

वर्ष 1921 में देश का राजनीतिक नेतृत्व गांधीजी के हाथों में पहुँच गया । डॉक्टरजी ने 1921 के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और उन्हें एक वर्ष की सजा सुनाई गई। असहयोग आंदोलन, खिलाफत आंदोलन, मोपला अत्याचार, बाद में मुस्लिम दंगे, राजनीतिक शान्ति और लोगों में निराशा की भावना, और गांधीवादी तकनीक का लगातार बढ़ता हुआ प्रभाव उस समय की विशेषताएं थी, जो सोचने को विवश कर रही थीं ।

यह स्पष्ट है, कि डॉक्टरजी इस दौरान किसी निष्कर्ष पर पहुंच गए थे। वे क्रांतिकारियों के साथ रहते थे, उन्होंने कांग्रेस में भी काम किया था और साथ साथ उन्होंने देश के अनेक तत्कालीन विचारकों और नेताओं से संपर्क कर उनसे चर्चा की थी । इतना ही नहीं तो उन्होंने खुद गरीबी झेली, इसलिए उन्हें समाज से समान स्तर पर घुलने मिलने का अवसर भी मिल गया, और इसलिए वे लोगों का करीब से अध्ययन कर सके। वे हमारे समाज की विशेषताओं, संभावनाओं के साथ-साथ विदेशी गुलामी के कारण उत्पन्न हुई कमियों के बारे में भी जानते थे । उन्होंने स्पष्ट रूप से अनुभव किया था कि अंग्रेजों की ताकत कितनी कम थी और उनकी प्रशासनिक मशीनरी के वास्तविक कमजोर बिन्दु कौन से थे ।

समाधान की तलाश में उन्होंने लगभग सभी क्षेत्रों में कड़ी मेहनत की । अंततः उनका परिश्रम सार्थक हुआ और उन्हें समाधान का पता चल गया, पहेली हल हो गई। डॉक्टर ने रोग पहचान लिया था । उन्होंने आजादी की कीमत आंकी | एक बार सवाल हल होते ही उनका मन स्थिर हो गया। उन्होंने विजया दशमी का शुभ दिन चुना, और 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की | और यहाँ से उनके जीवन का दूसरा अध्याय प्रारम्भ हुआ |

साभार – ओर्गेनाईजर 
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें