परवरिश का अंतर - सिंधिया वंश के अंतिम शासक जीवाजीराव सिंधिया और आज के नेता पुत्र |


संभवतः १९८४-८५ का प्रसंग है | उस समय स्व. सोहनमल सांखला नगरपालिका परिषद शिवपुरी के अध्यक्ष थे | नगरपालिका ने सर्वसम्मति से राजमाता विजयाराजे सिंधिया का नागरिक अभिनन्दन कार्यक्रम तय किया | संकोच के साथ राजमाता ने कार्यक्रम में आने की स्वीकृति दी | मंच सञ्चालन का दायित्व मुझे दिया गया | उस समय राजमाता को दिए गए अभिनन्दन पत्र में एक वाक्य इस प्रकार था – 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जिस समय अन्य राजे राजबाड़े येन केन प्रकारेण अपनी जायदाद बचाने के जुगाड़ में लगे हुए थे, आपकी ही प्रेरणा से कैलाशवासी महाराजा जीवाजीराव सिंधिया ने अपने अधिकाँश महल और अन्य स्थावर संपत्तियां राष्ट्र को समर्पित कर दीं और ट्रस्टों के माध्यम से भी अनेक सेवा कार्य संचालित किये, जो आज भी जारी हैं | 

जब राजमाता बोलने खडी हुईं तो सबसे पहले उन्होंने अभिनन्दन पत्र के इन शब्दों पर ही आपत्ति की और कहा कि आज मैं जो कुछ हूँ कैलाशवासी महाराज की प्रेरणा से ही हूँ | मैं उन्हें क्या प्रेरणा दूंगी | 

आज अकस्मात मुझे उक्त प्रसंग स्मरण हो आया और जानने की इच्छा हुई, कि यह राजमाता की सहज विनम्रता थी या अपने पति के प्रति अडिग आस्था और प्रेम या फिर वस्तुतः स्व. महाराज जीवाजी राव ऐसे ही थे | पढ़ा तो फिर इच्छा भी हुई कि उनके विषय में कुछ लिखूं भी | जब उनके विषय में पढ़ना शुरू किया तो हेमंत कटारे भी स्मरण हो आये, जो अपने स्व. पिता सत्यदेव कटारे की विरासत के नाम पर सहानुभूति के वोट जुगाड़ कर विधायक तो बन गए, किन्तु सत्ता का नशा नहीं संभाल पाए | पाठक वृन्द भी सोच रहे होंगे कि स्व. जीवाजीराव और हेमंत की क्या तुलना, तो निवेदन है कि इस आलेख का विषय है - परवरिश का अंतर | आईये आगे पढ़िए और विषय की गंभीरता को समझिये | 

27 सितंबर, 1925 को नौ वर्ष की आयु में स्व. जीवाजी राव सिंधिया को ग्वालियर का महाराजा तो घोषित किया गया, किन्तु स्व. महाराजा माधवराव सिंधिया की इच्छानुसार आगामी अनेक वर्षों तक राज्य का प्रशासन एक रीजेंसी द्वारा संचालित किया गया, जिसमें उनकी महारानी सहित नगर के दस पार्षद सम्मिलित थे | महाराजा जीवाजीराव सिंधिया जब 21 वर्ष के हो गए तब एक भव्य समारोह में 2 नवंबर, 1936 को उन्होंने राज्य का विधिवत कार्यभार संभाला | 

क्या कोई भरोसा करेगा कि उन्हें इस दौरान जेबखर्च क्या मिलता था ? महाराजा माधवराव सिंधिया अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र के प्रशिक्षण और परवरिश को लेकर बेहद सजग थे | अतः जब जीवाजीराव महज चार वर्ष के थे, महारानी साहिबा की निजी सेना के लिए निर्धारित खर्चे में से एक रूपया मासिक जेब खर्च के लिए निर्धारित किया गया, और उसके लिए भी बाकायदा सरकारी राजपत्र में अधिसूचना जारी की गई । अर्थात बाकायदा उनका सैन्य प्रशिक्षण प्रारम्भ हो गया और दो वर्ष बाद 1922 में उन्होंने अपने पिता के सम्मुख हुए मार्च पास्ट में भाग भी लिया | महाराजा माधवराव जी के स्वर्गवास के बाद महारानी साहिबा ने भी उनकी परवरिश और प्रशिक्षण की सख्ती को कम नहीं होने दिया । 

भारतीय और ब्रिटिश ट्यूटर्स के निर्देशन में उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज से मैट्रिकुलेशन परीक्षा उत्तीर्ण की और उसके बाद एक शासक के लिए आवश्यक प्रशासन सञ्चालन का गहन प्रशिक्षण शुरू हुआ । 

राजस्व का प्रारंभिक सैद्धांतिक प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने राजस्व विभाग का प्रभार संभाला और ग्वालियर कैबिनेट में राजस्व सदस्य के रूप में लगभग एक साल तक काम किया। उसके बाद उन्हें राजस्व और सचिवालय संबंधी कार्यों का अध्ययन करने के लिए बंगलौर भेजा गया । नवंबर 1935 में लायलपुर जाकर उन्होंने जाँच कार्य में कुशलता अर्जित करने के लिए जटिल पूछताछ की प्रक्रिया और गणनाओं को सीखा। उस कोर्स के बाद उन्होंने लायलपुर के ही प्रसिद्ध कृषि कॉलेज में कुछ सप्ताह बिताए। 

प्रशिक्षण के बाद, जब वे ग्वालियर लौटे, तब उन्हें उज्जैन के एक गांव शंकरपुर का पटवारी नियुक्त किया गया - वैसे ही जैसे उनका सैन्य कैरियर एक रूपया प्रति माह से शुरू हुआ था, यहाँ भी उनका पारिश्रमिक निर्धारित हुआ । इस दौरान एक सामान्य पटवारी के ही समान उन्होंने सर्वेक्षण भी किया, एयू के चार्ट और कागज़ों को भी खुद ही बनाया। 

1936 के अंत में जब नए शासक के रूप में स्व.जीवाजी राव सिंधिया ने कार्यभार संभाला तब उनका दिमाग हर विषय में बहुत स्पष्ट था तथा नई नई योजनाओं और विचारों से परिपूर्ण था । इसीलिए उन्होने राजधानी में आने वाली रिपोर्टों का मैदानी जायजा लेने का तय किया और उनकी सत्यता जांचने के लिए अपना पहला प्रशासनिक दौरा मंदसौर का किया | मंदसौर में समाज के हर तबके से मिले और उनसे प्राप्त सुझावों के आधार पर याचिकाओं की प्रस्तुति के लिए विशेष प्रक्रिया निर्धारित की। इसी प्रकार का एक दौरा उन्होंने श्योपुर का भी किया | इतना ही नहीं उन्होंने अपने मंत्री परिषद् के लोगों को भी हिदायत दी कि वे भी राज्य में जो कुछ हो रहा है, उसे जानने के लिए समय समय पर जिलों का दौरा करें और उसकी रिपोर्ट कार्यकारी परिषद में प्रस्तुत करें । 

आज जब हम सुनते हैं कि नेता अपने वंशजों को भी आनुवंशिक रूप से स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं, कहते हैं कि जब किसान का बेटा किसान, व्यापारी का बेटा व्यापारी, तो नेता का बेटा नेता बने इसमें क्या बुराई है ? तब सवाल उठता है कि वे पूर्ववर्ती राजघरानों की तरह अपनी संतति को बैसा प्रशिक्षण भी देते हैं क्या ? 

सवाल जितना स्पष्ट है उत्तर भी एकदम स्पष्ट है कि ऐसा कोई प्रयत्न नहीं होता | अगर ऐसा होता तो स्व. सत्यदेव कटारे के पुत्र असफल नहीं हुए होते | अपरिपक्व युवा सत्ता पचा नहीं पाते और उसके कारण उनका तो पतन होता ही है, समाज भी प्रदूषित होता है | 

ऐसे में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू का उल्लेख भी प्रासंगिक होगा, जो सामजिक और राष्ट्रीय दायित्वों का निर्वहन करते हुए एक पिता के रूप में भी सजग रहे और जेल से भी पत्र लिखकर अपनी बेटी प्रियदर्शिनी इंदिरा जी को देश और दुनिया की समझ और राजनीति - राष्ट्रनीति का प्रशिक्षण देते रहे | 

एक निवेदन वर्तमान सिंधिया कुल के रोशन चिराग ज्योतिरादित्य जी से भी | महोदय हेमंत कटारे को आपने ही समाज पर थोपा था | उसके द्वारा किये गए कृत्यों की जिम्मेदारी क्या आपकी नहीं है ? कमसेकम आगे के लिए तो प्रयास कीजिए कि संवेदना के नाम पर कोई अपात्र व्यक्ति आपका कृपा पात्र न बन पाए |

कमसेकम आपतो गलत और समाज को प्रदूषित करने वाले तत्वों को संरक्षण देकर अपने पूर्वजों की पुण्याई का क्षय न करो | बैसे आपका भी क्या दोष ? जैसी संगत बैठिये, बैसी उपजे बुद्धि | 

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