सर्वोच्च न्यायालय का कड़ा रुख - जनप्रतिनिधियों और उनके आश्रितों की संपत्ति पर रहे निगरानी - प्रमोद भार्गव



एक स्वस्थ लोकतंत्र के संवैधानिक एवं नैतिक अस्तित्व के लिए चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता बेहद जरूरी है। सांसदों और विधायकों द्वारा वैध-अवैध चल-अचल संपत्ति का जखीरा जमा करना लोकतंत्र के असफल होने का शुरूआती संकेत है। अगर इस पर रोक नहीं लगाई गई तो यह लोकतंत्र के विनाश के साथ माफिया राज का मार्ग भी प्रशस्त करेगा । दुर्भाग्य से हमारे देश में अब तक न तो संसद और न ही निर्वाचन आयोग ने इस समस्या की ओर ध्यान दिया है। जबकि यह नितांत आवश्यक है कि जनप्रतिनिधियों और उन पर आश्रित परिजनों की संपत्ति की निगरानी के लिए एक तंत्र होना ही चाहिए, जिससे यदि उनकी संपत्ति में कोई असंगत या अवैध वृद्धि होती है तो उस पर त्वरित कार्यवाही की जा सके। देश की सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव जीतकर बेतहाशा दौलत अर्जित करने वाले सांसदों और विधायकों पर अंकुष लगाने की दृष्टि से स्वयंसेवी संस्था लोकप्रहरी की याचिका पर उपरोक्त आशय का ही फैसला सुनाया है। 

लोकप्रहरी ने बताया था कि लोकसभा के 26 और राज्यसभा के 11 सांसदों और देश की विधानसभाओं के लिए निर्वाचित 257 विधायकों की दौलत में असाधारण वृद्धि देखने में आई है। इसकी पुष्टि करते हुए सीबीडीटी ने भी सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि शुरूआती जांच में सात लोकसभा सांसदों और 98 विधायकों की संपत्ति में बेहिसाब बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है अतः जनप्रतिनिधियों को पत्नि, बच्चों और आश्रितों की आय के स्रोत भी बताने के आदेष जारी किए जाएं। दरअसल इसी याचिका में शामिल एसोसिएशन ऑफ डेमोर्क्रेिटक रिफॉर्म (एडीआर) ने चुनाव के वक्त उम्मीदवारों द्वारा दाखिल हलफनामों में बताई गई चल-अचल संपत्ति के तुलनात्मक मूल्यांकन के आधार पर बताया था कि लोकसभा के चार सांसदों की आमदनी में 12 गुना और 22 की आय में पांच गुना धन की बढ़ोतरी हुई है। 

तमिलनाडू की मुख्यमंत्री रहीं जयललिता भी आय की इसी असमान वृद्धि की चपेट में आ गईं थीं और उन्हें मद्रास उच्च न्यायालय के आदेष पर जेल जाने के साथ पद भी गंवाना पड़ा था। सुब्रामण्यम स्वामी जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला 1996 में न्यायालय ले गए थे। स्वामी ने इस मामले का आधार उन दो शपथ-पत्रों को बनाया था, जो जयललिता ने 1991 और 1996 में विधानसभा चुनाव का नामांकन दाखिल करने के साथ नत्थी किए थे। जुलाई 1991 को प्रस्तुत हलफनामे में जयललिता ने अपनी चल-अचल संपत्ति 2.01 करोड़ रुपए घोषित की थी। किंतु पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद जब 1996 के चुनाव के दौरान उन्होंने जो शपथ-पत्र नामांकन पत्र के साथ प्रस्तुत किया, उसमें अपनी दौलत 66.65 करोड़ रुपए घोषित की । नतीजतन स्वयं ही अनुपातहीन संपत्ति की उलझन में उलझ गईं और जेल जाने के साथ पद भी गंवाना पड़ गया था। 

यदि कालांतर में अदालत के इस ताजा निर्देष पर अमल होता है तो चुनाव सुधार की दिशा में यह महत्वपूर्ण पहल तो होगी ही, राजनेताओं को मजबूर होकर राजनीति में शुचिता का पालन भी करना होगा। क्योंकि आय की ऐसी विसंगतियां आय के स्रोतों को राजनीतिक दुराचरण से जोड़ने का काम भी करती है। राजनीति का बहुआयामी चरित्रहनन या अपराधीकरण हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के लिए बिडंबना ही है। हर चुनाव के बाद संसद और विधानसाभाओं में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी हुई दिखाई देती है, जो अपराध जगत से जुड़े हैं। राजनीतिक दलों के पदों और समितियों में भी इनकी शक्ति बढ़ी है और प्रभाव का विस्तार हुआ है। तय है,यह स्थिति लोकतंत्रिक व्यवस्था पर आम आदमी का भरोसा कमजोर करती है। हाल ही में विधायिका में कुछ ऐसे घटनाक्रम घटे हैं, जिनसे लोकतंत्र शर्मसार हुआ है और लोग ऐसे जन प्रतिनिघियों से मुक्ति के लिए छटपटा रहे हैं। 

भारतीय लोकतंत्र और वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य में जो अनिश्चय,असमंजस और हो-हल्ला का कोहरा छाया हुआ है,वह इतना गहरा, अपारदर्षी और अनैतिक है कि इससे पहले कभी देखने में नहीं आया। शेर-गीदड़ और कुत्ते-बिल्ली एक ही घाट पर पानी पीने में लगे हैं। राश्ट्र्रीय हित व क्षेत्रीय समस्याओं को हाशिये पर छोड़,जनप्रतिनिधियों ने सत्ता को स्वंय की समृद्धि का साधन और वोट बैंक की राजनीति का खेल जिस बेशर्मी से बनाया हुआ है,वह लोकतंत्र को लज्जित करने वाली स्थिति है। लिहाजा लोकतंत्र का प्रतिनिधि ईमानदार, नैतिक दृश्टि से मजबूत और जनता व संविधान के प्रति जबाबदेह होना चाहिए। 

अदालत से याचिकाकर्ताओं ने जनप्रतिनिधियों की आय में असंगत वृद्धि की जांच का आदेष देने की गुहार भी लगाई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने इस मांग को इसलिए नहीं माना क्योंकि नेताओं की बड़ी संपत्ति की नियमित निगरानी के लिए फिलहाल देश के पास कोई स्वतंत्र सरकारी तंत्र नहीं है। लिहाजा इस स्थिति में अदालत किसी प्रकार के जांच का आदेष देती है तो इस जांच को नेता राजनैतिक प्रतिशोध की भावना को बढ़ावा देने वाला आदेष मानेंगे। इसे विधायिका में न्यायपालिका का अतिरिक्त हस्तक्षेप ही कहा जाएगा। इसीलिए फिलहाल अदालत ने संयम से काम लेते हुए चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों को अब स्वयं, पत्नी और आश्रित की संपत्ति के साथ आय का स्रोत भी शपथ पत्र के जरिए बताना जरूरी किया है । साथ ही प्रत्याषियों को निर्वाचन आयोग को यह बताना भी जरूरी होगा कि उन्हें या उनके परिवार के किसी सदस्य की कंपनी को कोई सरकारी टेंडर मिला है अथवा नहीं। इस जानकारी में निर्माण और वस्तुओं की प्रदायगी संबंधी जानकारी देनी होगी। अब तक प्रत्याषी को नामांकन के समय अपनी पत्नी और तीन आश्रितों की चल-अचल संपत्ति और देनदारी की ही जानकारी देनी होती थी। प्रत्याषी इस झोल का फायदा उठाते हुए माता-पिता, बेटा-बहु एवं बेटी-दामाद की जानकारी नहीं देते थे। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को स्पष्ट निर्देष दिया है कि वह निर्वाचित प्रतिनिधियों, उनके जीवन-साथी और आश्रितों के दौलत संबंधी आंकड़ों को समय-समय पर इकट्ठा करने के लिए एक मैकेनिज्म स्थापित करे। जिससे यदि इनकी परिसंपत्तियों में कोई असामान्य इजाफा होता है तो उचित कार्यवाही की जा सके। साथ ही इन्हें जनता के सामने सार्वजनिक किए जाने का प्रावधान भी हो। यदि यह संभव हो जाता है तो प्रत्याषी को चुनाव लड़ने के पहले ही अयोग्य ठहराने का रास्ता खुल जाएगा। वैसे भी लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में प्रत्याषी के ‘सहयोगियों‘ यानी पत्नी, बच्चे और आश्रित की संपत्तियों तथा आय के स्रोतों का खुलासा नहीं करना भ्रष्ट आचरण माना गया है। 

राजनीति में पवित्रता का मानक स्थापित करने के ये उपाय अमल में आ जाते है तो शुचिता के साथ राजनीति में आदर्ष के मूल्य भी स्थापित होंगे। हालांकि अभी भी अपवाद स्वरूप हमारे गणतंत्र में ऐसे नेता हैं, जो लगातार सत्ता में बने रहने के बावजूद अवैध संपत्ति की जमाखोरी से सर्वथा दूरी बनाए हुए है। माणिक सरकार त्रिपुरा के चार बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं, लेकिन आज भी उनकी ईमानदारी और सादगी की यह बानगी है कि वे साइकल से चलते हैं और उनकी चल अथवा अचल संपत्ति में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इसी आदर्ष की अनुगामी हैं। आज भी वे हवाई चप्पल पहनती हैं और उनके बदन पर साधारण सूती साड़ी होती है। दूसरी बार मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद भी उनकी संपत्ति नहीं बढ़ी है। लेकिन अपवाद के रूप में बचे इन नेताओं की सादगी कब तक बनी रह पाती है, फिलहाल यह कहना मुष्किल है, क्योंकि इनकी यह सादगी बार-बार लोकतंत्र की कसौटी पर कसी जा रही है। गोया, इस फैसले के परिप्रेक्ष्य में लोकतंत्र से धनतंत्र की विदाई जरूरी है। 

प्रमोद भार्गव 

लेखक/पत्रकार 

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शिवपुरी म.प्र. 

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लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार है।
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