आरएसएस और भारतीय सेना: एक रिश्ता पारस्परिक विश्वास का - राकेश सिन्हा



द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटेन को आशा थी कि सम्पूर्ण भारत एकजुट होकर उसकी मदद करेगा । युद्ध के दौरान साम्यवादी और हिंदू महासभा सक्रिय रूप से युद्ध में सम्मिलित भी हुए, किन्तु विभिन्न कारणों से कांग्रेस ने तटस्थता दिखायी। लेकिन, आरएसएस ने सहयोग से स्पष्ट इनकार कर दिया, जिससे औपनिवेशिक प्रशासन को परेशानी हुई । यह आरएसएस की राजनीतिक शक्ति नहीं थी, जिसके कारण उसका समर्थन उन्हें आवश्यक लगा, बल्कि वही कारण था, जिसका उल्लेख आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने पिछले दिनों किया कि आरएसएस में कुछ ही दिनों में राष्ट्रीय सैन्यबल का हिस्सा बनने की क्षमता है। 1940 के आरम्भ में, आरएसएस के एक लाख पचास हज़ार से अधिक स्वयंसेवक थे। ब्रिटिश सैन्य विभाग ने महसूस किया कि आरएसएस स्वयंसेवकों को सैन्य उद्देश्यों के लिए जल्दी प्रशिक्षित किया जा सकता है क्योंकि शाखाओं और विशेष प्रशिक्षण शिविरों में वे न केवल नियमित शारीरिक कार्यक्रम करते हैं, किन्तु साथ ही उनमें अनुशासन और मातृभूमि के लिए बलिदान की भावना कूटकूट कर भरी है । और युद्ध के दौरान, सेना, नागरिक सुरक्षा और हवाई हमलों के दौरान सतर्कता हेतु प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की आवश्यकता होती ही है । सिविक गार्ड्स, एयर रेड प्रिकौसन्स (एआरपी) या सैन्य बल में शामिल होने के इच्छुक लोगों की कोई कमी नहीं थी, किन्तु वे युवाओं को आकर्षित करने के लिए आवश्यक प्रचार में भी संघ की मदद चाहते थे । 

इसके अलावा, आम व्यक्ति के प्रशिक्षण हेतु महीनों का समय और अधिक ऊर्जा भी लगती थी, इसलिए, वे आरएसएस को तत्काल आवश्यकता के समय में सबसे उपयुक्त मानते थे । लेकिन उनकी निराशा उस समय विरोध में बदल गई, जब उनके खुफिया सूत्रों ने आरएसएस और आईएनए के बीच तालमेल का संदेह जताया । आखिरकार, अगस्त 1940 में, ब्रिटिश सरकार ने संघ की ड्रिल पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक अध्यादेश जारी किया और 1945 में इसके प्रशिक्षण शिविरों को भी अवैध घोषित कर दिया गया। औपनिवेशिक युग के दौरान आरएसएस कोई अपवाद नहीं था, उसने भी दूसरों के समान ब्रिटिश सरकार के पास न तो कोई प्रतिनिधिमंडल भेजा, और ना ही कोई सफाई दी । 

राष्ट्रीय आपातस्थिति के समय आरएसएस की तैयारी संबंधी श्री भागवत की टिप्पणी की सत्यता का अनुभव 1948 में उस समय भी हुआ था, जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया था | उस समय आरएसएस के स्वयंसेवकों को सेना द्वारा बहुत कम समय में ही प्रशिक्षित किया गया था। 1962 के चीन युद्ध के दौरान भी स्वयंसेवकों ने नागरिक और सैन्य बल दोनों में बढ़चढ़ कर भाग लिया था । यहाँ तक कि आरएसएस की प्रभावशाली भूमिका देखकर जवाहरलाल नेहरू को भी संघ को लेकर अपना द्रष्टिकोण बदलने पर विवश होना पड़ा और उन्होंने संघ को 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। 

फिर, 1965 में २२ दिन चले भारत-पाक युद्ध के दौरान भी आरएसएस स्वयंसेवकों ने उत्कृष्ट भूमिका निभाई | वे सेना के लिए ट्रैफिक, पानी, बिजली आपूर्ति और स्टाफ कार्यों के लिए आपातकालीन सेवाएं प्रबंधित करते थे । आरएसएस के स्वयंसेवकों और सैनिकों के बीच में एक दूसरे के लिए परस्पर विश्वास और सम्मान पर आधारित दीर्घकालिक सम्बन्ध है, जो पूर्वोत्तर, सीमा क्षेत्रों और देश में प्राकृतिक आपदाओं के दौरान सदैव प्रदर्शित होता है। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सदैव सेना के साथ खड़ा दिखाई देता है, जब छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतें भारतीय सेना के खिलाफ कथित मानव अधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगाकर उसे निशाना बनाती हैं । 

सेना पर सबसे बडा हमला तब हुआ, जब इन्हीं छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने सच्चर समिति की उस मांग का समर्थन किया, जिसमें सशस्त्र सेनाओं में धर्म के आधार पर गणना की मांग की। सच्चर समिति के सदस्य सचिव अबुसलेह शरिफ के उत्तर में मेजर केपीडी शर्मा, वीएसएम का उत्तर उल्लेखनीय है। उन्होंने उत्तर दिया था कि "भारतीय सेना का एक अलौकिक चरित्र है जिसमें सभी समुदायों और क्षेत्रों के लोग, जाति, पंथ और धर्मआधारित भेदभाव के बिना, साथ मिलकर काम करते हैं। सेना के अखिल भारतीय प्रतिनिधित्व और चरित्र को सदैव भारतीय समाज के सभी वर्गों द्वारा स्वीकार भी किया गया है और उसकी प्रशंसा भी की गई है। भारतीय सेना की उपलब्धियों का सबसे महत्वपूर्ण कारक तत्व, जाति, पंथ या धर्म की किसी भी चिंता के बिना उसकी सामूहिक एकजुटता और सौहार्द ही है। 

उन्होंने आगे कहा था कि" इसलिए, विभिन्न जातियों या धर्मों से संबंधित आंकड़े सेना में नहीं बनाए गए हैं और आगे भी इस तरह के आंकड़ों को इकट्ठा करना या सार्वजनिक करना उचित नहीं होगा। " 

सशस्त्र बलों ने जब सच्चर समिति के सुझावों से असहमति जताई, तब आरएसएस-बीजेपी ने सख्ती से उनका समर्थन किया । 

भारत में एक राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग है, जिसका आरएसएस विरोध किसी से छिपा नहीं है। वे गलत व्याख्या कर ग़लतफ़हमी पैदा करने में महारथी हैं । न सिर्फ भागवत, बल्कि उनके पूर्ववर्ती, एमएस गोलवलकर की भी उनके जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद भी ग़लत ढंग से गलत व्याख्या की जाती रही है । यहां तक ​​कि उनके आलोचकों को भी पता है कि भागवत ने सेना और आरएसएस के बीच तुलना नहीं की लेकिन राजनीति से प्रेरित होकर उन्होंने इस विषय को लेकर आरएसएस पर निशाना साधा । उनका यह कृत्य न केवल अनैतिक है, बल्कि देश में राजनीतिक अधःपतन का द्योतक है । हालांकि, यह पहला मौक़ा नहीं है, जब उनके बयान की इस प्रकार गलत व्याख्या की गई है, वे पिछले एक दशक से बार बार ऐसा कर रहे हैं। हालांकि, श्री भागवत ने एक बार भी उनके विषय में किसी प्रकार की गलत भाषा का उपयोग नहीं किया । वे बिना तौले कोई शब्द उच्चारित नहीं करते । घृणा, भेदभाव या किसी एक वर्ग के वर्चस्व की अभिव्यक्ति ना तो कभी स्व. गोलवलकर के भाषणों का हिस्सा रहीं, और ना ही भागवत के । भागवत की प्रतिक्रिया, भावी परिस्थितियों का सामना करने की दृष्टि से थी । उनके बयान सुधारात्मक प्रवृत्ति से होते हैं, उनकी अतिरंजना या गलत व्याख्या अनुचित है । 

अन्त में एक महत्वपूर्ण उल्लेख - नवंबर 1860 में, अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने तीन वर्ष के लिए 40,000 से अधिक स्वयंसेवकों के लिए आव्हान किया था, और अब कांग्रेस पर सेनाओं के सहयोगी बनने की संवैधानिक जिम्मेदारी है | अपने मुजफ्फरपुर भाषण में भागवत तो आश्वासन दे चुके - 'हां, हम सन्नद्ध हैं'। 

भागवत ने मातृभूमि के लिए आत्माहुति की भावना ही अभिव्यक्त की है, विश्व इतिहास जिसकी सदैव सराहना करता है । 

लेखक इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन दिल्ली के संस्थापक मानद निदेशक हैं।

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