प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक श्री जे नंदकुमार द्वारा भारतीय ज्ञान परंपरा की अनुपम व्याख्या ! अनुवाद - हरिहर शर्मा



विद्या या विमुक्तये ! ज्ञान वह है जो मुक्ति देता है | इस एक पंक्ति में ज्ञान के विषय में भारतीय दृष्टिकोण का सार समाहित है, जो स्वाभाविक रूप से अमर, अनंत और मूल्य-आधारित है। यहां एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है जिसे अब तक उपेक्षित रहे हिंदू इतिहासविज्ञान पर विचार करते समय अनुत्तरित नहीं छोड़ा जा सकता: हम अपनी ज्ञान प्रणाली को अमर क्यों मानते हैं? इसका एक शब्द में उत्तर है, यह आर्ष विद्या है, ऋषियों का दर्शन है । 

पूर्णत्व क्या है? या मानव अस्तित्व का उच्चतम स्तर क्या है? मन की स्पष्टता और जीवन की शुद्धता से परिपूर्ण, जैसे हमारे ऋषि थे | अब तक के महानतम मस्तिष्क, जिन्होंने मौलिक प्रश्नों के उत्तर ढूंढें और जो उनके मौलिक विचारों के रूप में सामने आये । आत्म-अनुशासन और ध्यान के माध्यम से उन्होंने जीवन की सच्चाई जानने का प्रयत्न किया और जो जाना उसे प्रभावशाली ढंग से जीवंत संवादों द्वारा, गूढ़ और सुंदर कविता के माध्यम से मानव मात्र के समक्ष व्यक्त किया। इस बुद्धिमत्तापूर्ण और समग्र दृष्टिकोण ने प्राकृतिक क्रम के जिस अनन्त सिद्धांत को प्रतिपादित किया, उसने हमारे साहित्य और ज्ञान प्रणाली को अमर बना दिया। 

पश्चिमी मान्यता के विपरीत, हमारे यहाँ ज्ञान केवल तथ्य, जानकारी, कौशल, अनुभव या शिक्षा का नाम नहीं है, बल्कि ज्ञान वह है जो मानव जाति को मुक्त करने में सक्षम हो । यह केवल जानना भर नहीं बल्कि अनुभूति है | यह भारतीय विचारों में अंतर्निहित है और यहाँ तक कि हमारे राष्ट्र का नाम “भारत” भी इसे अभिव्यक्त करता है | भारत का अर्थ है, वह देश जो 'ज्ञान देने' और 'ज्ञान लेने' में प्रसन्नता का अनुभव करता है। मैक्स मुलर ने अपनी पुस्तक India: What It Can Teach Us? (भारत: हमें क्या सिखा सकता है), में इसे अपने शब्दों में इस प्रकार लिखा है – 

" प्लेटो और कांट का अध्ययन करने वालों को भी यह बात अच्छी तरह से ध्यान देने योग्य है कि “अगर मुझसे पूछा जाए कि किस आकाश के नीचे मानव मन ने अपने सबसे अच्छे उपहारों को विकसित किया है, अधिक से अधिक गहराई से विचार किया है, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं का समाधान खोजा है, तो मैं भारत की ओर इंगित करना चाहूंगा । और अगर मैं खुद से पूछूं कि हमारे आतंरिक जीवन को, अधिक व्यापक, अधिक सार्वभौमिक, वस्तुतः जिसे वास्तविक मानव जीवन कहा जा सके, ऐसा बनाने हेतु कौन सा साहित्य उपयुक्त हैं, तो मैं निश्चित रूप से, बहु प्रचारित ग्रीक और रोमन विचार या सेमेटिक या यहूदी विचारों की अपेक्षा,... पुनः भारत की ओर इंगित करूंगा । " 

ज्ञान प्रणाली का पश्चिमी दृष्टिकोण एक संगठित संरचना और एक गतिशील प्रक्रिया में शामिल माना जा सकता है, जिसमें ज्ञान की सामग्री, घटकों, विभागों, या प्रकारों का सृजन और उनका प्रतिनिधित्व करना शामिल है। पाश्चात्य विचारों के साथ विख्यात शिक्षाविद कपिल कपूर के इस आंकलन पर ध्यान दिया जाना चाहिए– भारतीय हमेशा ज्ञान के उन महान मूल्यों से जुड़े रहे, जो वेद से अरविंद तक, गंगा के प्रवाह के समान प्राचीन और अविरल रहे, और यही भारत के हर समाज और वर्ग का केंद्र बिंदु है | 

भगवत गीता (4.33, 37-38) में भी ज्ञान को स्वयं का महान शुद्धिकर्ता और मुक्तिदाता के रूप में व्यक्त किया गया है । जहां तक ​​भारत की ज्ञान परंपरा का संबंध है, उसमें तीन शब्दों पर सर्वाधिक जोर दिया गया है । वे हैं - दर्शन, ज्ञान और विद्या । दर्शन अर्थात दृष्टिकोण या तत्व ज्ञान जिससे ज्ञान उत्पन्न होता है । जब यह ज्ञान किसी विशेष प्रभाव क्षेत्र में एकत्रित, और किसी उद्देश्य के लिए व्यवस्थित होता है, तब इसे विद्या या अनुशासन कहा जाता है। 

भारत में बौद्धिक ग्रंथों की अविश्वसनीय रूप से बहुतायत है | हम दुनिया के सबसे बड़े संग्रह होने का दावा कर सकते हैं, जिसमें ज्ञान के लगभग सभी प्रकार सम्मिलित हैं । हमारे लिए, ज्ञान की कोई भी धारा अछूत नहीं थी, इसलिए हमारे प्राचीन विचारकों की अंतर्दृष्टि और संदर्भ, ज्ञान की आधुनिक संरचना में भी पूर्णतः उपयुक्त है। 


मुंडकोपनिषद में, संगठित ज्ञान की सम्पूर्ण रचना को दो भागों में विभक्त किया गया है - परा विद्या (परम तत्व का ज्ञान) और अपरा विद्या (सांसारिक ज्ञान)। हमारे यहाँ विद्या के 18 सैद्धांतिक विषय हैं। इसके अतिरिक्त 64 प्रयुक्त या व्यवहारिक विषय भी हैं, जिन्हें कलाओं के रूप में जाना जाता है | विद्या चार वेदों, चार उपवेदों और छह वेदांगों या सहायक विज्ञानों जैसे - स्वर-विज्ञान, व्याकरण, छंद, खगोल विज्ञान, अनुष्ठान और भाषाशास्त्र में फैली हुई हैं। कलायें जन सामान्य के जीवन का अभिन्न अंग हैं, क्योंकि ये उनके जीवन को एक मकसद देती हैं । भारतीय परंपरा में कला और शिल्प के बीच तुलना की कोई गुंजाइश नहीं थी, ना तो कला को शिल्प से बेहतर माना गया और ना ही शिल्प को कला से श्रेष्ठ । 

भारत की मौखिक परंपरा (उक्ति परंपरा) ज्ञान का एक विशाल भंडार है। प्राचीन भारतीयों ने ज्ञान को याद रखने के लिए विभिन्न तकनीकों का इस्तेमाल किया और इस मौखिक संस्कृति के ढांचे का गठन कर इसके माध्यम से ज्ञान को बचाए रखा । मैक्स मुलर भारत की हमारी मौखिक परंपरा से बहुत प्रभावित हुए और लिखा - इससे हम क्या सीख सकते हैं? यह चौंकाने वाला लग सकता है, लेकिन इससे भी अधिक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि मान लीजिये वर्तमान काल में ऋग्वेद की हर प्रति कहीं खो जाए या नष्ट हो जाये तो भी उसे भारत के “श्रोत्रियों” से उसर पुनः प्राप्त किया जा सकता है... क्योंकि वह उन्हें कंठस्थ है... तो हम सिद्धांतों से कोरे लिपटे नहीं रहे, वरन तथ्यों के साथ रहे, जिन्हें कोई भी सत्यापित कर सकता है। हजारों वर्षों की गुलामी के बाद भी अगर सम्पूर्ण ऋग वेद आज विद्यमान है, तो उसका मुख्य कारण भारत की यह मौखिक परंपरा है। " 

जरा पाणिनी की अष्टाध्यायी और अमरकोष जैसे महान व्याकरण ग्रंथों की उस महान शब्दावली पर ध्यान दीजिये, जिसमें उच्चारण की भिन्नता मात्र से अर्थ बदल जाते हैं | हमने लिखित ग्रंथों के रखरखाव या नवीकरण तंत्र के विभिन्न तरीकों को विकसित किया, जैसे कमेंट्री या भाष्य, सम्पादन, अनुकूलन, अनुवाद, लोकप्रिय प्रदर्शन (प्रवचन परंपरा), मनोरंजन नाट्य आदि । ग्रंथों का सटीक पुनर्निर्माण सुनिश्चित करने के लिए, उन्हें विभिन्न क्रमपरिवर्तनों में पुन: संयोजन किया गया और उन्हें कई विद्वानों द्वारा याद रखा गया | 

कई आधुनिक शिक्षाविदों ने वर्गीकरण के हिंदुओं के इस गहन ज्ञान की प्रशंसा की है। कपिल कपूर लिखते हैं, "वस्तुतः भारतीय मस्तिष्क वर्गीकृत है और उनके द्वारा रचित और विश्लेषित ग्रंथों की बहुस्तरीय संरचना उनके महान ज्ञान को दर्शाती है। 

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी उच्च संस्थागत शिक्षा प्रणाली सर्व समावेशी थी, जो समाज के किसी भी वर्ग को ज्ञान देने से इनकार नहीं करती थी। औपनिवेशिक और वामपंथी प्रचार के विपरीत, हमारे प्राचीन ऋषियों ने ज्ञान को गुप्त या किसी खास वर्ग तक ही सीमित नहीं रखा । 

जैसा कि पहले कहा गया है, भारतीय विचार प्रणाली में, मोक्ष अंतिम लक्ष्य है, किन्तु वह भी भौतिक दुनिया की कीमत पर नहीं है, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से कहा गया कि हर इंसान के जीवन में चार लक्ष्य हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । ज्ञान मुक्ति का एक साधन है और वह ज्ञान केवल कुछ लोगों के पास भंडार करने को नहीं है | अन्य प्रणालियों के विपरीत, हम परम्परा को भी एक प्रमाण मानते हैं, जो समग्रता की चिरंतन विशेषताओं को सुनिश्चित करता है, जो हिंदुत्व को हिंदू “इज्म” के रूप में परिभाषित करने से रोकता है। 'इज्म' विचारों की एक बंद किताब है, जो सेमेटिक सिद्धांतों के साथ ही मेल खाता है, जिनके पास महज एक धर्मग्रन्थ और एक प्रवर्तक है। जबकि हमारे पास तो वेद से पुराणों तक कई धर्म ग्रन्थ हैं, और आदिकालीन ऋषियों के साथ आधुनिक कालीन शंकराचार्य से अरबिंदो तक कई प्रवर्तक संत हैं | हमारे वेदों की तुलना मां गंगा से की जाती है, जिनका न कोई आदि है ना अंत । 

भारतीय विचार के समान दुनिया में कोई और विचार नहीं है, क्योंकि यह विविधता को मान्यता देता है और जो भौतिकवाद से आदर्शवाद तक, चारवाक से वेदांत तक सभी विचारों को सम्मान प्रदान करता है । साथ ही स्वीकृति और एकीकरण के सभी चरणों में, हमने यह सुनिश्चित किया है कि ज्ञान से न्याय कभी प्रथक न हो । स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन ऑफ़ द वर्ल्ड के 11 संस्करणों में दुनिया की सभी सभ्यताओं का इतिहास लिखने वाले प्रसिद्ध अमेरिकी इतिहासकार विल दुरंत, उन कुछ आधुनिक इतिहासकारों और शिक्षाविदों में सम्मिलित हैं, जिन्होंने भारत की दिव्यता और महानता को स्वीकार किया । उन्होंने लिखा है - "भारत हमारी सभ्यता की मातृभूमि है, और संस्कृत यूरोप की सभी भाषाओं की मां: वह हमारे दर्शन की मां है, भारतीयों के माध्यम से हमारे अधिकांश गणित की मां है, बुद्ध के माध्यम से ईसाई धर्म में सन्निहित सिद्धांतों की मां है, ग्राम समुदाय के माध्यम से स्व-सरकार और लोकतंत्र की मां है । भारत मां कई मायनों में हम सब की माता है। " 

राजर्षि भर्तहरी ने हमारी सर्वव्यापी विश्वदृष्टि को निम्नानुसार समझाया - 
"मन अन्य परंपराओं के साथ बातचीत करके महत्वपूर्ण समझ हासिल करता है। 
वह क्या जानता है जो केवल अपनी परंपरा जानता है? 
हां, हम कभी भी दूसरी दुनिया से आने वाली सुगंधित वायु के लिए अपनी खिड़कियां बंद नहीं करते।"

हिंदू परंपरा आलोचना, संवाद और सहकार के लिए खुली है। वास्तव में, हिंदू ज्ञान प्रणाली ने सार्थक वाद-विवाद और आत्मसात के माध्यम से प्रगति की है और यही हिंदु धर्म का प्रमुख और अनोखा वैशिष्ट्य हैं। हमारी संस्कृति और राज्यतंत्र पर एक हजार वर्षीय औपनिवेशिक आक्रमण और अधीनता सहित कई कारणों से, हमारा स्वदेशी ज्ञान बड़े पैमाने पर दूषित हुआ और हमारे मुख्य विचारों से दूर किया गया । यह समय की मांग है कि हमारे पारंपरिक ज्ञान प्रणाली को पुनर्जीवित करने और उसे पुनः प्राप्त करने के लिए प्रशासनिक और बौद्धिक स्तर पर प्रयत्न किये जाएँ | 

(लेखक प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक है) 

साभार - ओर्गेनाइजर
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