संस्मरण स्व. केदारनाथ सिंह : संवेदनशील जनकवि - संजय तिवारी

बलिया , बनारस , पडरौना , गोरखपुर से होते हुए दिल्ली में ठहर गए। इस ठहराव में माटी और माटी की बोली उनकी थाती रही। उसी की सोंधी सुगन्धि पूरी दुनिया में पसराते लोगो को भरोसा दिलाते रहे कि जड़ो में जमे रह कर ही जीवन को धन्य बनाया जा सकता है , कट कर नहीं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली आदि अनेक देशों की यात्राएं कीं। लेकिन अपने गांव-घर से जो संवेदना उन्हें मिली थी, उसे महानगर तक पहुंचने के बाद भी उन्होंने कभी नहीं बिसराया, बल्कि और मजबूती से अपनी कविताओं में उतारा। उनकी कविता में एक ओर ग्रामीण जनजीवन की सहज लय रची-बसी, तो दूसरी ओर महानगरीय संस्कृति के बढ़ते असर के कारण ग्रामीण जनजीवन की पारंपरिक संवेदना में आ रहे बदलाव भी रेखांकित हुए। 

वास्तव में केदारनाथ सिंह ने अपनी कविताओं में गांव और शहर के बीच खड़े आदमी के जीवन में इस स्थिति के कारण उपजे विरोधाभास को अपूर्व तरीके से व्यक्त किया। एक बार उन्होंने काफी विस्तार से खुद की यात्रा पर कहा था - काफी उतार चढ़ाव आया मेरे जीवन में , बलिया के अति पिछड़े गाँव के एक किसान परिवार में जन्म से लेकर जे0 एन0 यू0 तक की यात्रा और आज ज्ञानपीठ सम्मान तक सहज नहीं रहा सबकुछ मेरे लिए ! बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ खोया भी मैंने जीवन में। मैंने 1969 में अपनी पहली नौकरी पडरौना के एक कॉलेज में शुरू किया था,यह मेरे जीवन में आर्थिक संकट का भी दौर था 1969 से 1975 तक मैंने तमाम संकटो और दुखो का सामना किया पडरौना में नौकरी के दौरान ही मेरी पत्नी गंभीर रूप से बीमार पड़ी, मैंने अपनी क्षमता के अनुसार उनका इलाज करवाया किन्तु वह काफी न था उनके लिए और उनकी बीमारी बढ़ती चली गई इसी बीच मै कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया और उधर पत्नी की तबियत ज्यादे बिगड़ गई मै चाह कर भी उन्हें बचा न पाया ! यह मेरे जीवन की अपूर्णीय क्षति रही जिसकी भरपाई मै नहीं कर पाया। पत्नी के निधन के 36 साल बाद भी मै उन्हें विस्मृत नहीं कर पाया उनकी मौजूदगी हर पल हर स्थिति में महसूस करता हूँ मै , पत्नी के निधन के बाद पत्नी की रिक्तता खली वैवाहिक जीवन शुरू करू ऐसी कोई इच्छा नहीं हुई मेरी , तबसे अकेला रहा। मैंने यह प्रण लिया की जीवन में दुबारा मै विवाह नहीं करूँगा, मैंने अपने इस प्रण को पूरा भी किया मै अविवाहित रहा ! मेरी 5 बेटियां और एक बेटा है ! बेटियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर, शादी के बाद शिक्षण कार्य में है और बेटा दिल्ली में ही भारत सरकार की उच्च सेवा में है ! शुरुआती दिनों में मैंने रीडर के रूप में दो वर्ष तक गोरखपुर के सेंटएंड्रयूज कॉलेज में भी अपनी सेवा दिया था ! वर्ष 1976 के अंत में मेरी नियुक्ति जे0 एन0 यू0 में हुई ! यहाँ पर मैंने 1976 से लेकर वर्ष 2000 यानी अपने रिटायरमेंट तक अपनी सेवा दिया। अब तो दिल्ली का मुझसे और मेरा दिल्ली से कुछ ऐसा रिश्ता बन गया है कि मै दिल्ली का ही होकर रह गया। 

साहित्य में जब उन्हें लोग जनकवि की संज्ञा देने लगते थे तब वह बहुत दुखी हो जाते। कहते - जनकवि तो बहुत बड़ा शब्द है और जनता तक कितना मैं पहुँच पाया हूँ यह नहीं जानता. जनकवि कहलाने लायक हिंदी में कई कवि हो चुके हैं. कई सम्मानित हुए, कई नहीं हुए। लेकिन जो कुछ मैं लिखता पढ़ता रहा हूं उसमें गांव की स्मृतियों का ही सहारा लिया है, क्योंकि मैं गांव से आया हुआ हूं और ग्रामीण परिवेश की स्मृतियों को संजोए हुए मैं दिल्ली जैसे महानगर में रह रहा हूं। मेरी जड़ें ही मेरी ताक़त है. मेरी जनता, मेरी भूमि, मेरा परिवेश और उससे संचित स्मृतियां ही मेरी पूंजी है. मैं अपने साहित्य में इन्हीं का प्रयोग करता रहा हूँ और बचे खुचे जीवन में भी जो कुछ कर पाऊंगा उन्हीं के बिना पर कर पाऊँगा।

केदारनाथ सिंह हिंदी के ऐसे र्चुंनदा कवियों में रहे जिनकी रचनाओं का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद हुआ। असाधारण ख्याति के बावजूद शख्सियत ऐसी थी कि आखिरी क्षणों तक जड़ों को नहीं भूले। वह दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए भी गांव चकिया (बलिया) को जीते रहे। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि जब उनके संस्मरणों पर केंद्रित एक पुस्तक प्रकाशित की गई तो उसका नाम भी उनके जन्मस्थान से जोड़कर चकिया से दिल्ली रखा गया। वह जितने गांव के कवि थे उतने ही शहर के भी थे। वह हिंदी में लिखते थे, दुनियाभर में पढ़े जाते थे। लेकिन अपनी मातृभाषा भोजपुरी को उन्होंने हमेशा अपनाए रखा। विश्व भोजपुरी अध्यक्ष अजित दुबे की भोजपुरी पर केंद्रित पुस्तक की उन्होंने न केवल भूमिका लिखी , उसका विमोचन भी केदार जी ने सवयं किया। 

वह कहा करते थे - मैं मानता हूं कि देश की सारी भाषाएं राष्ट्र भाषा हैं. हमारे संविधान के निर्माताओं ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया था. उन्होंने हिंदी को राष्ट्र भाषा नहीं कहा, उन्होंने इसे राज भाषा कहा और यह कहते हुए उन्होंने कहीं न कहीं इस बात की संभावना छोड़ दी कि भारत की हिंदी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, गुजराती समेत सारी भाषाएं राष्ट्र भाषा हैं। ये सभी राष्ट्र की भाषा हैं इसलिए ये राष्ट्र भाषा हैं. मैं इसे इसी रूप में मानता हूँ। हिंदी या अन्य किसी भाषा को दूसरों पर लादने का सवाल नहीं पैदा होता. यह उचित नहीं है और सारी भाषाओं का साहित्य मेरा साहित्य है। मैं विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य और भारतीय साहित्य पढ़ाता रहा हूं. मैं मानता हूं कि पूरा भारतीय साहित्य एक है। राधाकृष्णन ने भारतीय साहित्य की एक परिभाषा दी थी, साहित्य अकादमी का आदर्श वाक्य है और उसे मैं अपने आदर्श वाक्य के रूप में स्वीकार करता हूं. उन्होंने कहा था, ''भारतीय साहित्य एक है जो अनेक भाषाओं में लिखा जाता है। मैं भाषाओं की अनेकता को स्वीकार करता हूं. बड़ी भाषा और छोटी भाषा का सवाल नहीं है. हिंदी सारी भारतीय भाषाओं की बहन है इसलिए छोटी बहन, बड़ी बहन का सवाल पैदा नहीं होता। 

केंद्र में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब उनसे लोगो ने उनकी भावना जानने का प्रयास किया। चर्चित जवाहर लाल विश्वविद्यालय के इस अध्येयता विद्वान की दृष्टि बहुत स्पष्ट थी। वह कहते थे की वर्तमान भारत सरकार के विकास मार्ग को दूरदर्शी सोच मानना होगा देश में समस्याएं जड़ जमा चुकी है उनसे निजात पाने के लिए अगर जनता ने आपको चुना है आप पर विस्वास किया है तो आप को भी जनता के विस्वास पर खरा उतारना होगा वर्ना देश विनाश की तरफ बढ़ जायेगा। साथ ही जनता साहित्यकार और प्रबुद्ध जन को भी अपने हक़ के प्रति सजग होना होगा मुखर होना होगा जहा गलत लगे विरोध का स्वर उठाना होगा। विकास का मार्ग धीमी गति से हो तो सफलता मिलती है, किन्तु इतनी भी धीमी गति न हो की विकास की तस्वीर धुँधली ही रह जाए ! यह भी याद रखना होगा द्रुत गति से विकास होने के चक्कर में गति इतनी द्रुत न हो जाए की देश विनास के रास्ते पर चल पड़े। वह मानते थे कि मोदी सरकार के सामने चुनौती ज्यादे है और जनता की अपेक्षाएं भी बहुत है उनसे , अतः मोदी सरकार को दोनों के लिए दूरदर्शिता और पारदर्शिता का परिचय देना होगा ! नई मोदी सरकार की नीतियों पर टिप्पणी करने के बजाय थोड़ा धैर्य रखना होगा हमे साथ ही जो गलत लगे उसपर अपनी अभिब्यक्ति भी देनी होगी। 

साहित्य को लेकर वह हमेशा सतर्क थे। कहते थे -साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। हां वर्तमान में साहित्यकार के सामने चुनौतियां ज्यादे है उसे अपने दाइत्वा के प्रति सतर्क होना होगा तभी समाज के साथ और साहित्य के साथ न्याय कर पायेगा वह। समाज के बिना साहित्य की कल्पना नहीं हो सकती और समाज है तो साहित्य की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। प्रायः कहा जा रहा है साहित्यकार ख्याति पाने के लिए साहित्य रच रहा है वर्तमान में , किन्तू यह काल्पनिक सत्य जैसा है वर्तमान में भी अच्छी रचनाये हो रही है। 

केदार जी से एक बार पूछा गया कि हिंदी को लेकर एक और सवाल उठता रहा है कि यह न तो बाज़ार की भाषा बन पाई और न जनसंवाद की भाषा बन पाई तो इस दौर में हिंदी को जनसंवाद या रोज़गार मूलक भाषा बनाने में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है? इस पर उन्होंने कहा था - हिंदी बाज़ार की भाषा है. मैं इसे ज़ोर देकर इसलिए कहना चाहता हूं कि कुछ दिन पहले मेरे पास देश की एक बहुत बड़ी विज्ञापन संस्था में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी आईं। यह संस्था अपने सारे विज्ञापन अंग्रेज़ी में बनाती रही है. उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ एक समस्या पैदा हो गई है. हम बाज़ार के लिए विज्ञापन तैयार करते हैं और ज़्यादातर अंग्रेज़ी में तैयार करते हैं। मुश्किल यह है कि वृहत्तर भारत में सिर्फ अंग्रेज़ी से काम नहीं चलेगा. बड़े शहरों में तो काम चल जाएगा, लेकिन देश अन्य छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंचने के लिए हिंदी की ज़रूरत है। उन्होंने बताया कि अंग्रेज़ी और हिंदी में तैयार होने वाले सारे विज्ञापनों का पूरा अनुपात बदल गया है. पहले 80 प्रतिशत विज्ञापन अंग्रेज़ी में बनते थे अब वे घट कर 50 प्रतिशत पर आ गए हैं. जबकि हिंदी के विज्ञापन 20 प्रतिशत तक ही होते थे, लेकिन वे बढ़कर अब 50 प्रतिशत हो गए हैं। बाज़ार में तो हिंदी पहुँच चुकी है और छोटे शहरों व कस्बों में वो अपनी जगह बना चुकी है. जहां तक महानगरों का सवाल है, वह एक बड़ा बाज़ार है- जिसे वैश्विक बाज़ार भी कह सकते हैं। यह तथ्य है कि हिंदी वहां अपनी जगह नहीं बना पाई है. वहां उसे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा है. यहाँ अंग्रेज़ी से काम चल जाता है क्योंकि यहां हिंदी की कोई अनिवार्यता नहीं है जैसे चीन या जापान की भाषा. वहां की भाषाएं बाज़ार की अनिवार्यता हैं। इसे मैं एक भाषिक असंतुलन कहूंगा. मैं समझता हूं कि यह एक ऐसी स्थिति है कि यह लंबे समय तक चलती रहेगी. इसका हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन इतना ज़रूर है कि एक बड़े पैमाने पर हिंदी अपनी जगह बना चुकी है। 

एक इंटरव्यू में उनसे पूछा गया था कि आपके नए काव्य संग्रह सृष्टि की रचना में एक कविता है- विज्ञान के अंधेरे में अच्छी नींद आती है. क्या विज्ञान के प्रति हिंदी में जो नैराश्य भाव है वह बरकरार रहेगा या हिंदी विज्ञान को आत्मसात कर पाएगी या वह वैज्ञानिक लेखन की भाषा बन पाएगी? इस पर केदार जी ने कहा -'विज्ञान के अंधेरे…' का आशय विज्ञान के विरुद्ध नहीं है. यह एक सामान्य अनुभव है. जैसे सोते समय आप बत्ती बुझा देते हैं और अंधेरे में अच्छी नींद आती है. इसका सामान्यीकरण मत कीजिए। यह विज्ञान की स्वीकृति के पक्ष में है. इस कविता में ट्रेन और वायुयान के महत्व को स्वीकार करते हुए अंत में यह पंक्ति आती है। विज्ञान की भाषा बनने का जहाँ तक सवाल है, वह एक बड़ा सवाल है. हिंदी अभी तक विज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है. इसका एक बड़ा कारण है कि शिक्षा के बड़े संस्थान- विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में विज्ञान की पढ़ाई आज भी अंग्रेज़ी में होती है। अभी भाषिक विकल्प की तलाश नहीं की गई है. इसे मैं बहुत सुखद स्थिति नहीं मानता हूं. अगर भारतीय भाषाओं का इस्लेमाल हो सके और उन्हें इसके सक्षम बनाया जा सके तो यह संभव हो सकता है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. हमारे शिक्षा जगत का ढर्रा अंग्रेज़ी के अनुकूल बैठता है. इसके लिए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को प्रयास करना होगा।

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह

अभी बिल्कुल अभी
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बाघ
अकाल में सारस
उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ
तालस्ताय और साइकिल
सृष्टि पर पहरा
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कल्पना और छायावाद
आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान
मेरे समय के शब्द
मेरे साक्षात्कार

संपादन

ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन)
समकालीन रूसी कविताएँ
कविता दशक
साखी (अनियतकालिक पत्रिका)
शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)

पुरस्कार

केदारनाथ सिंह को मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान आदि पुरस्कारों मिल चुके हैं।
और तब अक्सर होती रहेगी , हां रहेगी ही कोई न कोई कविता । उनकी कविता की एक पंक्ति बेतरह कचोट रही है -- मेरी छाती में बंद , मेरी छोटी - सी पूंजी जिसे रोज मैं थोड़ा - थोड़ा खर्च कर देता हूं ....। अपनी छोटी -सी पूंजी जिसे वह थोड़ा - थोड़ा रोज खर्च कर देते थे , आखिर कल शाम तकरीबन 9 बजे पूरी तरह खत्म हो गयी । वह चले गये । जाना हिंदी की सबसे त्रासद और घातक क्रिया है । अपने पत्रकारीय यात्रा के क्रम में कोलकाता प्रवास के दौरान मैंने सीखा था -- आमी आसच्चि । जाता हूं या चलता हूं , कहना वहां अच्छा नहीं माना जाता । केदार जी कह दीजिये ना -- आता हूं । हम तो हमेशा आपका आना सुनते रहने के अभ्यस्त थे । कविता का आना सुनने के , जो फलियों में धीरे - धीरे रस की तरह आती और लहरा कर पकती थी ।राघवेंद्र दुबे , वरिष्ठ पत्रकार 

पंडित विद्यानिवास मिश्र के देहावसान के बाद दूसरी बार कल वह खुद को उलीच - उलीच कर रोये थे । 50 साल का सम्बन्ध था हमारा , उनका । वह उदित नारायन स्नातकोत्तर महाविद्यालय पडरौना में हिंदी विभाग के आचार्य और अध्यक्ष थे । मैं बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय कुशीनगर में हिंदी विभाग का अध्यक्ष था । हम दोनों हर रविवार मिलते थे । उनकी थीसिस ' हिंदी कविता में बिंब विधान ' के परीक्षक थे डॉ. नगेन्द्र । उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को फोन करके कहा - जिस लड़के की यह थीसिस है , उसे दिल्ली भेजिए , में उसकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय करना चाहता हूं । केदार जी ने दिल्ली जाना मना कर दिया । 1973 में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने उनकी नियुक्ति काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कर दी । जब मैं आचार्य जी से मिलने गया तो उन्होंने मुझसे कहा -- केदार से कहो आकर ज्वाइन करें । लेकिन केदार जी ने कहा - देखा , हम अब एहिजा से कहीं जाइब ना । बाद में उनकी पत्नी बीमार पड़ गयीं । उन्हें लीवर कैंसर हो गया । वह नहीं रहीं । तभी नामवर जी ने उन्हें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय बुला लिया । गांव में उनकी आत्मा बसती थी । जेएनयू के दिनों में भी वह जब तब भाग कर गांव चले आते थे । भारतीय कविता का सूर्यास्त हो गया। बोल दीजिये ना केदार जी -- आता हूं ।डॉ. अरुणेश नीरन, मित्र 
संजय तिवारी
संस्थापक - भारत संस्कृति न्यास नयी दिल्ली
वरिष्ठ पत्रकार 
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