विक्रम संवत का पहला महीना है चैत्र । इसका पहला दिन गुड़ी पड़वा कहलाता है। ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि इसी दिन ब्रह्मजी ने सृष्टि की रचन...

विक्रम संवत का पहला महीना है चैत्र । इसका पहला दिन गुड़ी पड़वा कहलाता है। ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि इसी दिन ब्रह्मजी ने सृष्टि की रचना की थी। इसलिए इसे नया दिन कहा गया। भगवान श्री राम ने इसी दिन बाली का वध करके दक्षिण भारत की प्रजा को आतंक से छुटकारा दिलाया था। इस कारण भी इस दिन का विशेष महत्व है। लेकिन दुर्भाग्यवश काल गणना का यह नए साल का पहला दिन हमारे राष्ट्रीय पंचांग का हिस्सा नहीं है।
कालमान एवं तिथिगणना किसी भी देश की ऐतिहासिकता की आधारशीला होती है। किंतु जिस तरह से हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व धूमिल कर रहा है,कमोवेश यही हश्र हमारे राष्ट्रीय पंचांग,मसलन कैलेण्डर का भी है। किसी पंचांग की कालगण्ना का आधार कोई न कोई प्रचलित संवत होता है। हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत है। हालांकि शक संवत को राष्ट्रीय संवत की मान्यता नहीं मिलनी चाहिए थी, क्योंकि शक परदेशी थे और हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे। हालांकि यह अलग बात है कि शक भारत में बसने के बाद भारतीय संस्कृति में ऐसे रच बस गए कि अनकी मूल पहचान लुप्त हो गई। बावजूद शक संवत को राष्ट्रीय संवत की मान्यता नहीं देनी चाहिए थी। क्योंकि इसके लागू होने बाद भी हम इस संवत के अनुसार न तो कोई राष्ट्रीय पर्व व जयंतिया मानते हैं और न ही लोक परंपरा के पर्व। तय है, इस संवत का हमारे दैनंदिन जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया है। इसके वनिस्वत हमारे संपूर्ण राष्ट्र के लोक व्यवहार में विक्रम संवत के आधार पर तैयार किया गया पंचांग है। हमारे सभी प्रमुख त्यौहार और तिथियां इसी पंचांग के अनुसार लोक मानस में मनाए जाते है । इस पंचांग की विलक्षण्ता है कि यह ईसा संवत से तैयार ग्रेगेरियन कैलेंडर से भी 57 साल पहले वर्चस्व में आ गया था,जबकि शक संवत की शुरूआत ईसा संवत के 78 साल बाद हुई थी। मसलन हमने कालगणना में गुलाम मानसिकता का परिचय देते हुए पिछड़ेपन को ही स्वीकारा।
प्रचीन भारत और मघ्यअमेरिका दो ही ऐसे देश थे, जहां आधुनिक सैकेण्ड से सूक्ष्मतर और प्रकाशवर्ष जैसे उत्कृष्ठ कालमान प्रचलन में थे। अमेरिका में मय सभ्यता का वर्चस्व था। मय संस्कृति में शुक्रग्रह के आधार पर कालगणना की जाती थी। विश्वकर्मा मय दानवों के गुरू शुक्राचार्य का पौत्र और शिल्पकार त्वष्टा का पुत्र था। मय के वंशजो ने अनेक देशों में अपनी सभ्यता को विस्तार दिया। इस सभ्यता की दो प्रमुख विशेषताएं थीं, स्थापत्य कला और दूसरी सूक्ष्म ज्योतिष व खगोलीय गणना में निपुणता। रावण की लंका का निर्माण इन्हीं मय दानवों ने किया था। प्रचीन समय में युग,मनवन्तर,कल्प जैसे महत्तम और कालांश लधुतम समय मापक विधियां प्रचलन में थीं। समय नापने के कालांश को निम्न नाम दिए गए है , 1/4 निमेष यानी 1 तुट, 2 तुट यानी 1 लव,2 लव यानी 1 निमेष, 5 निमेष यानी एक काष्ठा, 30 काष्ठा यानी 1 कला, 40 कला यानी 1 नाड़िका,2 नाड़िका यानी 1 मुहुर्त, 15 यानी 1 अहोरात्र, 15 अहोरात्र यानी 1 पक्ष, 7 अहोरत्र यानी 1 सप्ताह, 2 सप्ताह यानी 1 पक्ष, 2 पक्ष यानी 1 मास, 12 मास यानी 1 वर्ष। ईसा से 1000 से 500 साल पहले ही भारतीय ऋृषियों ने अपनी आश्चर्यजनक ज्ञानशक्ति द्वारा आकाश मण्डल के उन समस्त तत्वों का ज्ञान हासिल कर लिया था,जो कालगण्ना के लिए जरूरी थे,इसिलिए वेद,उपनिषद्र आयुर्वेद,ज्योतिष और ब्राह्मण संहिताओं में मास,ऋतु,अयन,वर्ष,युग,ग्रह,ग्रहण,ग्रहकक्षा,नक्षत्र,विषव और दिन-रात का मान तथा उसकी वृद्धि-हानि संबंधी विवरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
ऋृगवेद में वर्ष को 12 चंद्र्रमासों में बांटा गया है। हरेक तीसरे वर्ष चन्द्र्र और सौर वर्ष का तालमेल बिठाने के लिए एक अधिकमास जोड़ा गया। इसे मलमास भी कहा जाता है। ऋृगवेद की ऋचा संख्या 1,164,48 में एक पूरे वर्ष का विवरण इस प्रकार उल्लेखित है-
द्वादश प्रघयश्चक्रमेंक त्रीणि नम्यानि क उ तश्चिकेत।तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शंकोवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः।
इसी तरह प्रश्नव्याकरण में 12 महिनों की तरह 12 पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम और उनके फल बताए गए हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में 5 प्रकार की ऋतुओं का वर्णन है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ऋतुओं को पक्षी के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है-
तस्य ते वसन्तः शिरः। ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षः वर्षः पुच्छम।शरत पक्षः। हेमान्तो मघ्यम।
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