वामगढ़ त्रिपुरा और नागालेंड जैसे ईसाई बहुल राज्यों में भाजपा की असाधारण विजय गाथा – भाजपा महासचिव राम माधव



त्रिपुरा, नागालैंड के चुनावी नतीजे: एक वाम गढ़ में भाजपा की आंधी, ईसाई बहुल राज्यों में उसका सत्ता में आना, निश्चय ही कड़ी मेहनत और प्रभावी योजनाओं के कारण संभव हुआ | 

एक विदेशी राजनयिक द्वारा मुझे भेजा गया यह सन्देश, त्रिपुरा में हुई विजय के महत्व को रेखांकित करता है - "बधाई हो राम! दुनिया को कम्युनिस्टों की कम ही जरूरत है। जिस प्रकार रोनाल्ड रीगन या मार्गरेट थैचर को कम्युनिज़्म को समाप्त करने का श्रेय दिया जाता है; उसी प्रकार भारत में यह कार्य नरेंद्र मोदी अंजाम दे रहे हैं । दुनिया भर के बुद्धिजीवी, विशेषकर अमरीकी, अचम्भे से पूछ रहे हैं - "आखिर उन्होंने यह किया कैसे"? बहुत पहले द इकोनोमिस्ट ने मोदी जी के विषय में लिखा था– “ सदैव अविचलित, आशान्वित और आवश्यक होने पर पुराने जूते के समान कठोर” | त्रिपुरा की विजय में इन सबके साथ और भी बहुत कारक तत्व थे | 

त्रिपुरा के चुनाव हमारे लिए एक बड़ी चुनौती थे । लगातार छः बार के कम्युनिस्ट शासन के दौरान राज्य का प्रशासन, क़ानून और व्यवस्था का तंत्र पूरी तरह लाल रंग में रंग चुका था, जिसने कम्युनिस्टों को दो दशकों से अधिक समय तक बिना किसी चुनौती के राज्य पर शासन करने में मदद की । बाहर की दुनिया के लिए, माणिक सरकार की छवि एक गैर-भ्रष्ट और डाउन टू अर्थ मुख्यमंत्री की थी, जो वस्तुतः एक छद्म आवरण था । 

त्रिपुरा की राजनीति को अनुभव से ही समझा जा सकता है, उसका वर्णन करना संभव नहीं है | हिंसा, धमकी और साथ ही भय और उत्पीड़न का माहौल, पूरे राज्य में फैला हुआ है। न केवल अन्य राजनीतिक दलों को, वरन स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया को भी कम्युनिस्ट शासन के दौरान गंभीर खतरों का सामना करना पड़ा। चुनावों में हेराफेरी करने की कला में तो उन्हें उत्कृष्ट महारत हासिल है। 

इस प्रकार के पैंतरेबाज तंत्र को परास्त करने के लिए द्रढता और संकल्प की आवश्यकता थी, साथ ही आत्मविश्वास युक्त, परिश्रमी, जुझारू और मजबूत संगठनात्मक नेटवर्क की भी । भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बूथ समितियां बनाने का आग्रह किया, जिसने पार्टी को बूथ स्तर तक कैडर खड़ा करने में मदद की । और पहली बार, कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने जमीनी स्तर पर भाजपा की चुनौती का सामना किया । लेकिन चुनौती बहुत बड़ी थी | हमें वाम पंथियों के हर कदम पर ध्यान रखना था, सदा जागरूक रहना था, और हमेशा उनसे एक कदम आगे रहना था। त्रिपुरा में हमारे रणनीतिकारों की टीम ने इसे सुनिश्चित किया | अंतिम दौर तक हमारी टाईमिंग, रणनीति और उसका क्रियान्वयन सटीक रहा । 

किन्तु इस विजय का वास्तविक श्रेय त्रिपुरा के लोगों को जाता है। वे शायद पिछले चुनावों में ही कम्युनिस्टों से मुक्ति पाना चाहते थे । लेकिन उस समय के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस में साहस और आत्मविश्वास की कमी थी। त्रिपुरा में तब से लेकर अब तक कांग्रेस केवल बामदलों की छायाकृति ही बनकर रही । बाम और कांग्रेस दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी, इसलिए सारी नौटंकी होती थी | त्रिपुरा के लोगों के लिए एक लौकिक शैतान था तो दूसरा गहरा समुद्र । 

लेकिन इस बार, लोगों ने भाजपा के रूप में एक प्रभावी विपक्ष देखा जो कम्यूनिस्टों को खदेड़ने के लिए अंतिम दम तक जूझने को तत्पर था । हम लोगों को यह समझाने में सफल हुए हैं कि साम्यवादियों को वास्तव में पराजित किया जा सकता है। हमारा चुनावी नारा "चलो पलटाई" एक लोकप्रिय युद्ध नारा बन गया | और देखते ही देखते मनोवैज्ञानिक युद्ध में, हमने बढ़त हासिल कर ली । 

हमने त्रिपुरा के लोगों से तीन वायदे किये - सबसे पहले, शांति और एकता, क्योंकि कम्युनिस्ट शासन के दौरान त्रिपुरा सबसे हिंसक राज्य था। यहाँ महिलाओं और राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अत्याचारों की एक लम्बी सूची है । कम्युनिस्ट शासन के तहत आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच एक चौड़ी खाई पैदा कर दी गई, जिसने आईपीएफटी (इंडीजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा) जैसी पार्टियों को जन्म दिया - जिसने एक अलग त्रिपुरा लेंड राज्य की वकालत की। देखा जाये तो एक अलग राज्य की मांग करना कोई अपराध नहीं है, लेकिन कम्युनिस्टों ने उन्हें अलगाववादियों के रूप में प्रदर्शित किया । यदि आईपीएफटी अलगाववादी है तो तेलंगाना में टीआरएस क्या है? 

कम्यूनिस्टों की छींटाकसी को नजर अंदाज कर, भाजपा ने आईपीएफटी के साथ गठबंधन का निर्णय लिया । भाजपा को यह श्रेय जाता है कि दोनों पार्टियों ने "संयुक्त त्रिपुरा" के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की, अर्थात आईपीएफटी अपनी प्रथक त्रिपुरा लेंड की मांग छोडकर संयुक्त त्रिपुरा हेतु सहमत हो गया । नतीजा यह हुआ कि भाजपा-आईपीएफटी गठबंधन ने जनजातीय क्षेत्रों में सीपीएम को बेहद कमजोर कर दिया । 1 9 आरक्षित सीटों में से गठबंधन ने 17 सीटों पर विजय हासिल की | भाजपा की विजय में आदिवासियों के भारी समर्थन का सबसे बड़ा हाथ है, क्योंकि आरक्षित सीटों के अलावा 17-18 गैर -एसटी सीटों पर भी उनका जनसंख्या अनुपात 15 से 40 प्रतिशत तक हैं | 

हमारा दूसरा वायदा था विकास | लगभग 30 लाख की आबादी वाले इस राज्य में लगभग सात लाख बेरोजगार युवा है। कम्युनिस्ट शासन के तहत, राज्य विकास के सभी मानकों में बुरी तरह पिछड़ गया था । प्रधान मंत्री मोदी की एक विकास केंद्रित नेता की छवि और उनके चार साल के ट्रैक रिकॉर्ड ने भी भाजपा को मदद पहुंचाई । 

तीसरा, हमने एक स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार प्रदान करने का वादा किया। बाहरी धारणा के विपरीत, मानिक सरकार ने एक भ्रष्ट और गैर जवाबदेह सरकार चलायी थी। लोग स्वच्छ और उत्तरदायी सरकार चाहते थे और भाजपा ने उसकी पेशकश की। चुनावी जीत में कोई भी एक कारक नहीं होता | त्रिपुरा में, हमारे संगठनात्मक नेटवर्क, विस्तृत कार्य योजना, सामरिक और सतर्क रणनीति - सभी ने भूमिका निभाई है, जिसमें सबसे प्रमुख कारक है - प्रधानमंत्री मोदी । 

लेकिन चुनावों के इस दौर की वास्तविक कहानी तो नागालैंड की है। 88 प्रतिशत ईसाई आबादी वाले एक राज्य ने 12 भाजपा विधायकों को विजय श्री प्रदान की है । भाजपा ने इस चुनाव में क्षेत्रीय एनडीपीपी के साथ गठबंधन किया और केवल 20 सीटों पर चुनाव लड़ा। सत्तारूढ़ एनपीएफ ने भाजपा के खिलाफ एक शातिर और सांप्रदायिक अभियान चलाया, तथा इसे ईसाई विरोधी तक करार दिया। इसके बावजूद सिर्फ 20 सीटों पर चुनाव लड़कर भी बीजेपी ने कुल मतदान का 15 फीसदी से ज्यादा हिस्सा हासिल कर लिया । राज्य की जनसांख्यिकी को देखते हुए यह एक शानदार उपलब्धि है | बनने वाली अगली नागालैंड सरकार में पहली बार हम निश्चित तौर पर एक मजबूत आवाज बनेंगे। जल्द ही नागा समझौते को अंतिम रूप दिया जाने वाला है, उसके बाद यह समस्या जल्द ही समाप्त होने की संभावना है | एनडीपीपी-भाजपा सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में से यह एक होगी। 

त्रिपुरा और नागालैंड की जीत बीजेपी के लिए ऐतिहासिक है क्योंकि अब तक यहाँ उसकी उपस्थिति ही नहीं थी । एक वाम गढ़ पर विजय प्राप्त करना या किसी ईसाई-प्रभुत्व वाले राज्य में सत्ता में सहभागी बनना यह दर्शाता है कि प्रधान मंत्री मोदी का घोष वाक्य - "सब का साथ, सब का विकास" आज समाज के सभी वर्गों द्वारा स्वीकार कर लिया गया है। 

लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव, और भारत फाउंडेशन के निदेशक हैं 

साभार इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित आलेख का हिन्दी अनुवाद द्वारा हरिहर शर्मा
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