और मैं हिन्दू हो गई – डेना मैरियम (अनुवाद – हरिहर शर्मा)

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मेरा जन्म न्यूयॉर्क के एक धर्मनिरपेक्ष यहूदी परिवार में हुआ था | मेरे परिवार के लिए यहूदी होना महज एक जातीय पहचान थी, धार्मिक नही...




मेरा जन्म न्यूयॉर्क के एक धर्मनिरपेक्ष यहूदी परिवार में हुआ था | मेरे परिवार के लिए यहूदी होना महज एक जातीय पहचान थी, धार्मिक नहीं । बचपन से ही मेरा रुझान अध्यात्म की ओर था, और आगे चलकर मैंने स्वयं को किसी विशेष धार्मिक सिद्धांत से जुड़ने के स्थान पर, आध्यात्मिक जगत की खोज और अन्वेषण में ही लगा दिया । छोटी उम्र से ही मैंने दैवीय तत्व को “मां” के रूप में अनुभव किया, अतः मैंने शुरूआत “देवी” की खोज से की । बचपन से ही मुझे अपने पिछले जन्मों की कुछ धुंधली सी यादों का अनुभव करता था, और मैंने स्वाभाविक रूप से पुनर्जन्म और कर्म को केवल मान्यता के रूप में नहीं, वरन एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया । 

मेरे कॉलेज प्रवेश के पूर्व ही, एक मित्र ने मुझे परमहंस योगानन्द लिखित 'एक योगी की आत्मकथा' (The Autobiography of a Yogi) प्रदान की, और मुझे लगा मानो वे मेरे साथ ही हैं | मैंने तुरंत उन्हें अपना “गुरू” मान लिया | भले ही वे पूर्व में ही अपना शरीर त्याग चुके थे, किन्तु उनके साथ मेरा एक मजबूत आंतरिक संबंध स्थापित हो गया । उन्होंने ही मुझे वैदिक ग्रंथों के अध्ययन और ध्यान के मार्ग पर प्रवृत्त किया, और उनकी कृपा से ही उन ग्रंथों के गूढ़ रहस्य मुझे समझ में भी आने लगे । सबसे महत्वपूर्ण बात, कि उन्होंने मुझे “माँ” के विभिन्न दिव्य रूपों के दर्शन कराये । तबसे ही मैंने स्वयं को एक हिंदू के रूप में पहचानना शुरू कर दिया था | जैसे जैसे मैंने “देवी” की आराधना में स्वयं को लगाया व उनके प्रति मेरा भक्तिभाव बढ़ा, मुझे अचम्भा और दुःख हुआ कि अन्य धार्मिक परंपराओं में यह भाव कैसे दबा हुआ है, यहाँ तक कि उस परम्परा में भी, जिसमें मैंने जन्म लिया । 

मैंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से “धार्मिक साहित्य” में विशेषज्ञता अर्जित की । वहां वेदों पर भी एक कोर्स था, जिसे मैंने उत्सुकता से लिया, लेकिन उसे पढ़ाने के ढंग से मुझे अत्यंत ही निराशा हुई । एक पश्चिमी प्रोफेसर, जो स्वयं हिंदुत्व का “कखग” भी नहीं जानते थे, वे हिन्दू देवताओं को केवल प्राचीन पौराणिक कथाओं का हिस्सा मानते थे, उनके अस्तित्व पर उन्हें रत्ती भर भी यकीन नहीं था । मुझे इतना अधिक क्षोभ हुआ कि मैंने अकादमिक कैरियर छोड़ने का ही निर्णय ले लिया और तब मुझे अनुभव हुआ कि मैं कितना अधिक स्वयं को “हिन्दू” मानने लगी हूँ । मैंने अपने स्तर पर ही प्राचीन ग्रंथों, उपनिषदों और योग सूत्रों का अध्ययन शुरू किया | मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया श्रीमदभगवद् गीता ने, जिसे मैंने बार बार पढ़ा, यहाँ तक कि उसके कई अंश मुझे कंठस्थ हो गये । 

मैंने “भगवद गीता और Book of Job from the Old Testament की तुलना” विषय पर अपनी स्नातक थीसिस लिखी । मेरी थीसिस का मुख्य भाव था - दोनों में ही एक मनुष्य और दैवीय तत्व के बीच संवाद हैं, और दोनों में ही दिव्य की इच्छा के सम्मुख आत्मसमर्पण हैं, प्रेम और एकत्व से उत्पन्न आत्मसमर्पण । किन्तु मेरी प्रोफेसर ने इसे सही नहीं माना और मेरी थीसिस पर लिखा कि ओल्ड टैस्टमैंट में ईश्वर के साथ मनुष्य का संबंध भय का है, प्रेम का नहीं । उनके अनुसार ओल्ड टैस्टमैंट में प्रेम की कोई अवधारणा ही नहीं है। मुझे जैसे झटका सा लगा और मुझे समझ में आ गया कि "यही कारण है कि मैं हिंदू हूँ!" यह कैसे संभव है कि जो परम तत्व ही यथार्थ है, उससे प्यार का सम्बन्ध न हो? जिससे समूचा ब्रह्मांड पैदा हुआ और जिसके प्यार से ही वह निरंतर बना हुआ है उससे प्यार का नहीं, भय का सम्बन्ध ? और मेरा हिन्दू स्वरुप और गहरा हो गया | 

कई सालों बाद मुझे इंटरफेथ समारोहों में सम्मिलित होने का अवसर मिला । मैंने इसके लिए कोई आवेदन नहीं किया था, किन्तु यह अवसर अकस्मात और अप्रत्याशित रूप से मेरे सम्मुख आया । पहली बड़ी सभा जिसे आयोजित करने में मैंने मदद की, वह वर्ष 2000 में न्यूयॉर्क में हुई । संयुक्त राष्ट्र में धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओं के सहस्राब्दि विश्व शांति सम्मेलन के इस आयोजन में मेरे साथ जो सह आयोजक था वह एक भारतीय जैन था | आयोजन का उद्देश्य था धार्मिक नेताओं को शांति निर्माण में यूएन के साथ काम करने के लिए तैयार करना | हमारे प्रयत्नों से हिंदू, जैन और बौद्धों के प्रतिनिधिमंडलों को भी इस आयोजन में सम्मिलित किया गया, जो इस प्रकार की इंटरफैथ मीटिंगों में पहले कभी नहीं किया गया था। हमने संयुक्त राष्ट्र में 108 स्वामी बुलाए और उन बेचारों को पता ही नहीं कि उनके कारण कितनी हलचल मची, कुछ इब्राहीमिक नेता कितने अधिक परेशान हुए, क्योंकि इसके पूर्व तक इंटरफेथ मीटिंग वस्तुतः केवल इब्राहीमिक मीटिंग ही हुआ करती थीं | और तबसे यही मेरे कार्य का केंद्र बिंदु बन गया | सभी धार्मिक परम्पराओं को विचार विनिमय के लिए एक साथ लाना ताकि वैश्विक ज्ञान का सही मायने में दिग्दर्शन हो सके । 

इसके बाद तो मुझे अनेक वैश्विक सम्मेलनों में आमंत्रित किया जाने लगा । 2001 में, मुझे ईरान के तेहरान में हुए धर्म और पर्यावरण पर एक सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया गया था। जब मैं वहां पहुंची, तो एक अधिकारी ने मुझसे मेरा धर्म पूछा। जब मैंने उत्तर दिया, "हिंदू," तो उसे भरोसा ही नहीं हुआ, उसने फिरसे वही सवाल दोहराया तो मैंने भी जोर देकर कहा कि मैं हिंदू हूं, तो उसने कहा - "यह तो एक अजीब धर्म है, जिसमें बंदरों और हाथियों की पूजा की जाती है । "उसके शब्दों ने मुझे बहुत आहत किया । मैं उसे अपने प्रिय हनुमान और गणेश के बारे में कैसे समझा सकती थी ? उस समय तो मैं वहां से चली आई, पर बाद में सोचा कि वह व्यक्ति समझाने लायक था भी नहीं । सौभाग्य से, उसके बाद के 17 वर्षों में, बहुत कुछ बदल गया है, और योग और हिंदू विश्वदृष्टि दुनिया के उस हिस्से में कई लोगों को बेहतर समझ में आ गई है। 

2001 में मुझे ऐसा ही एक अनुभव और मिला, जब मुझे सऊदी अरब के लिए आमंत्रित किया गया था । वीज़ा आवेदन पर, मैंने अपने धर्म के कोलम में "हिंदू" दर्ज किया था | लेकिन जब मैं उस देश में पहुंची, तो आव्रजन अधिकारी ने मुझ पर एक नज़र डाली और मेरे धर्म के बारे में फिर से मुझसे पूछा। मैंने जवाब दिया, "हिंदू"। उसने फिर पूछा और मैंने जोर देकर कहा कि मैं वास्तव में हिंदू हूं। मुझे लगा कि शायद यह मुझे अपने देश में प्रवेश नहीं करने देगा, हालांकि मेरे पास आधिकारिक निमंत्रण था | लेकिन तभी मेरे जैन सहयोगी, जिनके साथ मैं यात्रा कर रही थी, मेरे बचाव में आये और इस बात की पुष्टि की कि मैं वास्तव में हिंदू थी | तब कहीं जाकर मुझे प्रवेश करने की अनुमति दी गई । मैं सोचती हूँ कि जिस प्रकार बौद्ध धर्म एक वैश्विक धर्म बन चुका है और उसके कई पश्चिमी अनुयायी भी है, उसी प्रकार हिंदू धर्म के बारे में भी यही सत्य है, अब श्वेत हिन्दू भी बहुतायत से हैं, यह बात लोगों तक पहुंचना चाहिए । इन अनुभवों ने मुझे इस प्राचीन परंपरा का हिस्सा बनकर हिंदू धर्म की सुंदरता और व्यापकता के विषय में और अधिक मुखर होने की प्रेरणा दी । 

जब कोई मुझसे पूछता है कि हिन्दू होने का मतलब क्या है, तो मैं भगवान शिव, भगवान नारायण, महा लक्ष्मी, माता पार्वती, श्री राम, भगवान कृष्ण और मेरे अपने गुरुदेव के साथ, के साथ अपने बहुत ही वास्तविक और घनिष्ठ संबंध के बारे में सोचती हूं। ये सभी मुझे अत्यंत प्रिय हैं और साथ ही किसी भी अन्य से अधिक वास्तविक भी । मैंने प्रार्थना के दौरान अनेकों बार अकल्पनीय अनुभूति की है जो सामान्यतः असंभव कही जा सकती हैं । ये केवल अवधारणा या प्रतीक नहीं हैं, लेकिन सामान्य मानवीय समझ से परे हैं, इनकी महानता को केवल अगाध प्रेम से ही अनुभव किया जा सकता है । 

जब मैं सोचती हूं कि हिंदू होने का क्या मतलब है, तब मैं हमारे ऋषियों द्वारा विकसित उन अनेकों प्रथाओं और तकनीकों के बारे में विचार करती हूँ, जो उन्होंने हमें जगाने के लिए, दिव्य के साथ अपने एकत्व की वास्तविकता को समझाने के लिए विक्सित कीं | दुनिया में जो कुछ भी है, उसमें वही अभिव्यक्त हो रहा है | हिंदू धर्म केवल एक विश्वास प्रणाली नहीं है, इसमें इतने धर्म समाहित हैं कि इसे अनेक सिद्धांतों का एक समुच्चय कहा जा सकता है | यह अनुभव पर आधारित धर्म है | प्रत्येक व्यक्ति के पास वह उपकरण है, जिनके माध्यम से वह उस परमतत्व, परम वास्तविकता को जान सकता है | इन देवताओं के साथ अपने सम्बन्ध को जानने के लिए, उनका मार्गदर्शन पाकर स्वयं को चरम उत्कर्ष पर पहुँचने के लिए, बस स्वयं को जानना होगा । 

जब मैं सोचती हूं कि हिंदू होने का क्या मतलब है, तो मैं पाती हूँ धर्मआधारित जीवनपथ, जिसका अंग्रेजी में कोई समानार्थी अनुवाद ही नहीं है । कोई भी इसे जान सकता है, लेकिन यह क्या है, इसे शब्दों में समझा पाना कठिन है। धर्म वह जो सदैव हमारा मार्गदर्शन करता है। धर्म वह जिसका न्याय सार्वभौमिक है। यह वही है जो हमें समूचे ब्रह्मांड के साथ सद्भाव सिखाता है  | 

जैसे जैसे मैं बड़ी होती गई, मैंने जानती गई कि हमारी गहरी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि का अर्थ है, समाज को उन्नत करना, उन परिस्थितियों को समझना, जो लोगों को उनकी सर्वोच्च क्षमताओं तक पहुंचने से रोकती हैं। जब हम अपने आधुनिक उपभोक्ता समाज की असफलताओं को देखते हैं, प्राकृतिक दुनिया को विनाश के निकट जाते देखते हैं, तब पश्चिम में, मुझ जैसे अनेक लोग उत्सुकता से एक नये विकास प्रतिमान के रूप में, भारत द्वारा बनाए हुए मार्ग की ओर टकटकी लगाते हैं । मैं दूर से यह देखकर उदास हो जाती हूँ, जब भारत में ही कुछ लोग आज भारत की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की भूमिका पर बहस करते हैं। वैश्विक समुदाय के रूप में हमारा अस्तित्व, पश्चिमी जगत के विकास मॉडल में सुरक्षित नहीं है | हमारी सभ्यता का अस्तित्व प्राचीन भारत के जीवन मूल्यों को आधुनिक परिप्रेक्ष में समझने और स्वीकारने पर ही निर्भर है। हम सबको धर्म आधारित सभ्यता की कल्पना करने और उसके अनुरूप काम करने की आवश्यकता है। हम धर्म से अपने निजी जीवन को अलग नहीं कर सकते: यह हमारे सामूहिक जीवन के प्रत्येक पहलू- शिक्षा, अर्थव्यवस्था, हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर लागू होता है। मेरे लिए, हिंदुत्व का अर्थ है – धर्म को समझना, हिंदू धर्म का सार, रोजमर्रा की जिंदगी में लाकर, अतीत के ज्ञान के आधार पर आधुनिक तकनीक का प्रयोग करते हुए, एक नई, टिकाऊ और शांतिपूर्ण संस्कृति को आकार देते हुए उज्वल भविष्य का निर्माण । 

हिंदू जीवन मूल्य किनारे किये जाने योग्य नहीं हैं, वे जीवन के केंद्र बिंदु | यह वे महान जीवन मूल्य हैं जो प्राकृतिक दुनिया के साथ हम सबके पवित्र संबंध का मार्गदर्शन करते हैं | यही जीवन की आधार शिला है । 

(लेखिका एक अंतर-धार्मिक संवाद की आयोजिका है। वे ग्लोबल पीस इनिशिएटिव ऑफ़ वीमेन की संस्थापिका भी हैं) 



साभार: ओर्गेनाईजर

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