मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग : संविधान की आत्मा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा !



भारत के मुख्य न्यायाधीश को प्रभावित करने के लिए कांग्रेस ने जो महाभियोग लाने का कुत्सित प्रयास किया, उसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में अजूबा ही कहा जाएगा, क्योंकि अभी तक देश में न्यायपालिका को निम्न स्तर की दलीय राजनीति से प्रथक रखा जाता रहा था | 

प्रस्तावित महाभियोग जिसे सात विपक्षी दलों के राज्यसभा सांसदों द्वारा रखने का प्रयत्न किया गया, निःसंदेह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। ख़ास बात यह कि देश के सबसे सम्मानित संस्थानों में से एक के खिलाफ चलाये गए इस अभियान में ठोस साक्ष्यों के स्थान पर महज अटकलों का सहारा लिया गया | इसका उद्देश्य महज देश की संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाना भर था । क्योंकि महाभियोग प्रस्ताव की भाषा में "हो सकता है", "गिरने की संभावना" और "प्रतीत होता है" जैसे शब्दों की भरमार थी । 

अतः यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों के समूह के पास उनके आरोपों को साबित करने के लिए कुछ भी नहीं है, वे केवल न्यायपालिका को डराने के लिए एक हथियार के तौर पर इस प्रस्ताव का उपयोग करना चाहते थे । इसके पूर्व भी कई अवसरों पर न्यायाधीशों को हटाने के लिए याचिकाएं संसद में विचारार्थ रखी गईं, लेकिन वे बड़े स्तर के भ्रष्टाचार से सम्बंधित तथा दस्तावेजी साक्ष्य के साथ थीं। जबकि इस बार मामला पूरी तरह से भिन्न है और उसके पीछे कुटिल राजनैतिक उद्देश्य हैं । 

कोलेजीयम प्रणाली के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति पर बहुत सी चर्चाओं और अस्पष्टता के बाद भी, अगर बहुत जरूरी भी हो तो यही अच्छा होता कि न्यायपालिका को स्वतः अपनी कार्यपद्धति तय करने या उन्हें संशोधित करने के लिए छोड़ दिया जाता । 

अब यह कोई ढका छुपा तथ्य नहीं रहा कि मुख्य न्यायाधीश को हटाने का यह कदम निरर्थक था, क्योंकि अंततः इस पर विचार संसद में ही होता, जहाँ इसके पास होने की कोई संभावना ही नहीं थी | लेकिन यह भयानक कदम हमारे लोकतंत्र को जबरदस्त खतरे में डाल सकता है? खतरा यह है कि राजनीतिक दल न्यायाधीशों को डराने के लिए इस कदम का उपयोग करने की आदत बना सकते हैं - जो संस्थान को कमजोर कर देगा जो हमारे लोकतंत्र के लिए एक बड़ा झटका साबित होगा। जरा कल्पना करें कि कल अगर अदालत सत्तारूढ़ दल या सरकार के खिलाफ कोई निर्णय लेती है, तो क्या होगा ? क्या न्याय भी बहुमत के आधार पर किया जाएगा ? फिर तो अल्पमत वालों को कभी न्याय मिलने की उम्मीद ही नहीं रहेगी | प्रसिद्ध न्यायविद फली नरीमन ने शायद इसीलिए इसे " इतिहास का सबसे काला दिन" निरूपित किया - 

"यह एक बहुत ही काला दिन है। संभवतः सबसे काला दिन। मैंने कभी ऐसा दिन नहीं देखा । अपने जीवन के 67 वर्षों में, मैंने कभी ऐसा दिन नहीं देखा । " -जुरिस्ट फली नरीमन 

कांग्रेस के भीतर भी, इस कदम पर एक राय नहीं थी, क्योंकि राज्यसभा सांसद और पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह भी हस्ताक्षरकर्ताओं में शामिल नहीं थे। पूर्व कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि "किसी भी फैसले या अदालत के किसी भी दृष्टिकोण के प्रति असहमति के आधार पर महाभियोग का खेल खेला जाना बहुत गंभीर है" । 

अतः तथ्यों के आधार पर यदि राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने बिना देरी किए महाभियोग के प्रस्ताव को खारिज कर दिया, तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है । इसे जल्दबाजी का फैसला कहा जाना नितांत अनुचित है, क्योंकि उन्होंने निर्णय लेने के पूर्व इस मुद्दे पर संविधान-विशेषज्ञों से गंभीर परामर्श किया था, जो उनके 22 बिन्दुओं के निष्कर्ष नोट से स्पष्ट परिलक्षित होता है । और सबसे अहम बात यह है कि राजनीति की कीचड़ में देश के अत्यधिक सम्मानित संस्थानों को उहापोह में लटकते हुए नहीं छोडा जा सकता । 

यह कितना हास्यास्पद है कि अब कांग्रेस उपराष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ फिर से सुप्रीम कोर्ट में ही जाने की बात कर रही है | जिसे सवालों के कठघरे में खड़ा किया, अब उसी संस्थान की शरण लेने को विवश हो रहे हो । इससे भी अधिक हास्यास्पद यह है कि संविधान की आत्मा पर प्रहार करने वाले ही संविधान बचाओ चिल्लाते हुए पूरे देश में घूम रहे है | 

साभार आधार - http://www.organiser.org//Encyc/2018/4/24/Congress-Battle-against-the-Constitution.html

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