मिथक से भयभीत मंत्री नहीं देते तात्याटोपे को श्रद्धांजलि !
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राष्ट्रीय कवि स्व. श्रीकृष्ण 'सरल' ने लिखा था-
'दांतों में उंगली दिए मौत भी खड़ी रही,
फौलादी सैनिक भारत के इस तरह लड़े
अंगरेज बहादुर एक दुआ मांगा किये,
फिर किसी तात्या से पाला नहीं पड़े।'
मैंने भी लिखा -
वह चलता था अकेला सेना बन जाती थी
जंगल में कोयल भी वीर रस गाती थी
उस तलवार की ताव झेले थी किसकी मजाल
शिवपुरी की मिट्टी है आज भी उनके खून से ही लाल ||
लोकगीतों में गाया गया –
‘मिट्टी और पत्थर से
उसने अपनी सेना गढ़ी।
केवल लकड़ियों से उसने तलवारें बनाई।
पहाड़ को उसने घोड़े का रूप दिया।
और रानी ग्वालेर की ओर बढ़ी।
पाश्चात्य इतिहास लेखकों की स्वार्थपरक और कूटनीतिक विचारधारा से कदमताल मिलाकर चलने वाले कुछ भारतीय इतिहास लेखकों के कारण आज भी इतिहास की कुछ पुस्तकों और ज्यादातर पाठ्य-पुस्तकों में यह मान्यता चली आ रही है कि 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हिंसक विद्रोह था। साथ ही यह संग्राम तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत से असंतुष्ट राजा-महाराजाओं,जमींदारों तथा कुछ विद्रोही सैनिकों तक सीमित था।
जबकि सचाई यह है कि उस समय के शक्तिसंपन्न राज-घराने ग्वालियर, हैदराबाद, कश्मीर, पंजाब और नेपाल के नरेशों तथा भोपाल की बेगमों ने अगर फिरंगी सत्ता की मदद नहीं की होती तो भारत 1857 में ही दासता से मुक्त हो गया होता ! अंग्रेजी-सत्ता के लोह-कवच बनने वाले इन सामंतों को अंग्रेजों ने बाद में स्वामिभक्ति का पुरष्कार भी दिया ।
इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुए को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत् प्रस्तुत करती है। अपनी-अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद अनेक देशों ने राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाते हुए राष्ट्र के इतिहास का पुनर्लेखन कराया,लेकिन हमारा देश स्वतंत्रता प्रप्ति के 68 साल बीत जाने के बाद भी आंग्ल विचार और आंग्ल इतिहासकारों द्वारा लिखे हुए इतिहास को अनमोल थाती मानते हुए राम की खड़ाऊं की तरह सिर पर लादे घूम रहा है। यह सोच का नहीं वरन् खेद और अपमान का विषय है। आत्महीनता के इस बोध से उभरने के लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित जो भी साक्ष्य,सहित्य और किंवदंतियां यत्र-तत्र फैले हैं,उन्हें सहेजकर भारतीय इतिहास की घरोहर बनाना चाहिए। जिससे आम भारतीय वास्तविक इतिहास से परिचित होकर आत्मगौरव का अनुभव कर सकें।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक तात्या टोपे के बलिदान दिवस 18 अप्रैल को प्रतिवर्ष शिवपुरी में ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े पत्रों एवं हथियारों की एक प्रदर्शनी भी लगाई जाती है। हम लोगों को समय निकालकर इन पत्रों को पढ़ना चाहिए | मूल रूप में तो ये पत्र भोपाल में राजकीय अभिलेखागर में सुरक्षित हैं। दुर्लभ होने के कारण इन पत्रों की केवल छाया प्रतियां ही प्रदर्शनी में लायी जाती हैं।
ये पत्र महारानी लक्ष्मीबाई,रानी लड़ई दुलैया,राजा बखतवली सिंह,राजा मर्दनसिंह,राजा रतन सिंह और उस क्रांति के महान योद्धा,संगठक एवं अप्रतिम सेनानायक तात्या टोपे द्वारा लिखे गए हैं। इन पत्रों में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि प्रथम स्वंतत्रता संग्राम का विस्तार दूर-दराज के ग्रामीण अंचलों तक हो गया था। स्वतंत्रता की इच्छा से आम व्यक्ति भी क्रांति के इस महायज्ञ में अपने अस्तित्व की समिधा डालने को तत्पर हो रहे थे।
1857 के स्वतंत्रता-संग्राम से संबंधित इन पत्रों की प्राप्ति का इतिहास भी रोचक है। आजादी की पहली लड़ाई जब चरमोत्कर्ष पर थी,तब तात्या टोपे अपनी फौज के साथ ओरछा रियासत के गांव आश्ठौन में थे। अंग्रेजों को यह खबर लग गई और अंग्रेजी फौज ने यकायक तात्या टोपे के डेरे पर हमला बोल दिया। उस समय तात्या मोर्चा लेने की स्थिति में नहीं थे। लिहाजा, जल्दबाजी में तात्या अपना कुछ बहुमूल्य सामान यथास्थान छोड़ वहां से नौ दो ग्यारह हो गए।
यह सामग्री ओरछा के तत्कालीन दीवान नत्थे खां के हाथ लगी | इस सामान में एक बस्ता भी था, जिसमें जरूरी कागजात और चिट्ठी पत्री थीं। नत्थे खां से यह धरोहर उनके दामाद को मिली। दामाद के बाद तात्या के सामान के वारिस उनके भी दामाद अब्दुल मजीद फौजदार बने,जो टीकमगढ़ के निवासी थे।
स्वतंत्र भारत में 1976 में टीकमगढ़ के राजा नरेंद्र सिंह जूदेव को इन पत्रों की खबर लगी। नरेंद्र सिंह उस समय मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री थे। उन्होंने इन पत्रों के ऐतिहासिक महत्व को समझते हुए तात्या की धरोहर को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की दिशा में उल्लेखनीय पहल की। प्रसिद्ध इतिहासकार दत्तात्रेय वामन पोद्दार ने पत्रों के मूल होने का सत्यापन करते हुए इन्हें ऐतिहासिक महत्व के दुर्लभ दस्तावेज निरुपित किया।
पत्रों को पढ़ने से पता चलता है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम किस गहराई से आम जनता का संग्राम बन गया था और आम आदमी किस दीवानगी के साथ राष्ट्र की बलिवेदी पर आत्मोत्सर्ग के संस्कारों में ढल रहा था।
आम व्यक्ति उन्हें पल पल की जानकारी देता था | तात्या के नाम लिखे पत्र में कोई श्रीराम शुक्ल और गंगाराम लिखते हैं ‘सिरौली के घाट पर अंग्रेज कैप्टन और नवाब बांदा का मुकाबला करने के लिए आपकी सहायता चाहिए। चांदपुर के थानेदार भी दो सौ बंदूक लेकर हमारे साथ हैं।‘
एक अन्य पत्र में मनीराम और गंगाराम ने तात्या को लिखा है, ‘सिरौली, चुखरा, भौंरा, चांदपुर और गाजीपुर के जमींदार अंग्रेजों से मोर्चा लेने को तैयार हैं। अंग्रेजों द्वारा गोली चलाने पर वे धावा बोलेंगे। गोरी पलटन को कालपी न पहुंचने देने के लिए कम्पू का बंदोबस्त भी किया जाए।‘
तात्या को मूरतीसिंह,शिवप्रसाद और गौरीशंकर अवस्थी लिखते हैं, ‘हमीरपुर व सिरौली को मदद के लिए दो तोपें,एक कंपनी तथा राजा लोगों की 500 फौज जल्दी भेजें। गोरे सिरोली के उस पार पांच तोपे लगाकर गोलाबारी कर रहे हैं।‘
तात्या को एक पत्र में जानकारी दी गई है कि ‘करीब एक सौ अंग्रेज अधिकारी व सिपाही जान बचाने के लिए ग्वालियर के किले में घुस गए हैं और इन्हें बेदखल करने के लिए हजारों लोग किले के अंदर पहुंच गए हैं।‘
कौन थे ये हजारों लोग | निश्चय ही आम नागरिक |
तात्या को लिखे एक पत्र में राजा मर्दनसिंह ने लिखा है,‘फौज समेत फौरन आएं। बुंदेलखंड के राजा अंग्रेजों से मिल गए हैं। अंग्रेज बानपुर,शाहगढ़ और झांसी पर कब्जा करने की योजना बना रहे हैं।‘
तात्या के नाम लिखे पत्र में मनफूल शुक्ल ने उन्हें जानकारी भेजी कि ‘गोरों ने मुनादी पिटवाई है कि विद्रोहियों को जो कोई रसद-मदद देगा,उसे बच्चों समेत फांसी पर लटका दिया जाएगा।‘
पंडित मोहनलाल ज्योतिषी ने तात्या को लिखे एक पत्र के साथ अतीन्द्रिय शक्तियों द्वारा रक्षा किए जाने के लिए एक तंत्र भी भेजा। इस पत्र में उल्लेख है, ‘हम फकीर साहब के साथ बैठकर दो जंत्र तैयार कर आपके पास भेज रहे हैं। जो छोटा जंत्र है,वह आप बांध लें और बड़ा जंत्र निशान पर बांध देना। ईश्वर रक्षा करेगा।‘
इन पत्रों से यह उजागर होता है कि भारतीयों के अतः करण में दास्ता से मुक्ति के लिए जोश और अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त आक्रोष पैदा हो गया था। उस समय आम आदमी ने अपने राष्ट्र धर्म का अहसास किया और अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर हुआ। 1857 के इन बलिदानियों ने ही राष्ट्रीय चरित्र की अवधारणा को अभिव्यक्ति दी।
इन पत्रों के अलावा बुंदेलखंड और उससे जुड़े अंचलों में आज भी रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे द्वारा भारत से अंग्रेजों की बेदखली के लिए किए गए प्रयासों की किंवदंतियां लोक गीतों में प्रचलित हैं।
लेकिन यह कैसा दुर्भाग्य है कि -
नेता वलिदान स्थल पर कभी नहीं जाते है
शिवपुरी आते, अपनी सुनाते, चले जाते हैं
नेताओं में फैला है अंध विश्वास कुछ एसा
जो भी देगा श्रद्धा सुमन हो जाएगा उन जैसा
अर्थात सत्ता से दूर संघर्ष मय प्राणी
तो बताओ भाई कौन करेगा ऐसी नादानी ?
सच है देश में शहीद होना चाहिए जरूर
पर पड़ोसी के घर में, हमारे घर से दूर
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इतिहास
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