कठुआ प्रकरण - एक मनगढ़ंत कहानी का पर्दाफ़ाश - सुशील पंडित



सन्डे गार्जियन लाईव द्वारा प्रसारित एक लेख का हिन्दी रूपांतर 
 क्या अब सीबीआई जांच की मांग भी सांप्रदायिक कहलायेगी ?

17 जनवरी 2018 को, जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले के रसना गांव के पास जंगल में एक मृत शरीर की सूचना मिली थी। जम्मू और कश्मीर राज्य में इस प्रकार के मृत शरीर मिलना कोई नई बात नहीं थी, किन्तु वे अक्सर भीडभाड से दूर दूरदराज के जंगल में पाए जाते रहे थे । लेकिन, यह मामला विशेष था। 

यह एक बड़ी घटना बनी, क्योंकि यह राज्य की शीतकालीन राजधानी जम्मू में उस दौरान हुई, जबकि विधानसभा सत्र भी चल रहा था और मृत शरीर मोहम्मद यूसुफ की दत्तक पुत्री आठ वर्षीय असिफा का था । वह एक हफ्ते पहले 10 जनवरी से लापता थी। मोहम्मद यूसुफ एक बकरवाल जनजाति का है, जिन्हें और अन्य को "बसाने" के लिए मेहबूबा मुफ्ती ने “रोशनी अधिनियम” नामक एक कानून पारित किया था। इस अधिनियम के तहत वे राज्य में कहीं भी सरकारी और वन भूमि पर मजे से कब्जा करने को स्वतंत्र हो गए थे । इस अधिनियम को राज्य उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और उच्च न्यायालय ने उसे स्टे कर दिया | यह स्थिति महबूबा मुफ्ती के लिए बेहद शर्मिंदगी का सबब बन गई । इस मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य में, कठुआ उन गिने चुने जिलों में से एक है, जहाँ हिन्दू बहुसंख्यक है। 

जैसे ही मुख्यमंत्री, मेहबूबा मुफ्ती को उस बच्ची की हत्या का पता चला, उसने अपने दो मंत्रियों, मियां अल्ताफ और जुल्फिकार चौधरी को रसना भेजा । इसके अतिरिक्त क्षेत्र में कुछ हुर्रियत कार्यकर्ताओं की भाग दौड़ भी शुरू हुई । रसाना केवल 25 परिवारों का एक छोटा सा गांव है, जिसमें सभी हिंदू हैं | हीरानगर के स्थानीय एसएचओ, सुरेश गौतम ने पहले ही केस दर्ज कर लिया था और जांच भी शुरू कर दी थी। मंत्रियों और हुर्रियत कार्यकर्ताओं ने रसना और आसपास के क्षेत्र की इस छोटी-सी आबादी के बीच कार्यकर्ताओं और उत्प्रेरकों के नामों की जानकारी लेना शुरू किया । वे इतने पर ही नहीं रुके, सुरेश गौतम को भी उनसे निर्देश मिलने लगे कि उसे कैसे कैसे और क्या क्या करना है | किसे पूछताछ के लिए बुलाना है, किसे बंद करना है, और जांच को किस दिशा में ले जाना है । इसी दौरान आसिफा का मृत शरीर, कठुआ के जिला अस्पताल में शव परीक्षा के लिए भेजा गया । 

एक हफ्ते के अन्दर ही एसएचओ हीरनगर, सुरेश गौतम के स्थान पर जांच साम्बा के अतिरिक्त एसपी आदिल के नेतृत्व में गठित एक विशेष जांच दल को सोंप दी गई । यह टीम महज 10 दिन ही जांच कर पाई थी, कि तभी मामले की जांच अपराध शाखा को सौंप दी गई। हैरत की बात यह कि अपराध शाखा में जम्मू के तीनों अधिकार क्षेत्रों में से किसी को नहीं लिया गया, जहाँ कि अपराध हुआ था । अपराध शाखा को कश्मीर घाटी से आयात किया गया । यहाँ तक कि जांचकर्ताओं में लद्दाख पुलिस का भी कोई व्यक्ति शामिल नहीं किया गया | जम्मू से सिर्फ एक महिला टीम का हिस्सा बनी । इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात थी कि जांच में एएसआई इरफान वानी को शामिल किया गया । 10 साल पहले, यह महानुभाव एक वर्ष से अधिक समय तक जेल में बंद रहे थे । जब वे डोडा में थात्री पुलिस चौकी में पदस्थ थे, उन पर हिरासत में एक व्यक्ति की ह्त्या का आरोप लगा था | इतना ही नहीं तो जिस व्यक्ति की ह्त्या हुई थी, उसकी बहन के साथ बलात्कार का भी आरोप उन पर था था। एक कश्मीरी हिंदू पुलिस अधीक्षक रमेश जल्ला ने आदेशों का पालन करते हुए चतुराई से उसे संरक्षण देकर बचाया । 

केवल जांच दल में ही नहीं, बल्कि पोस्ट मार्टम रिपोर्ट में भी मन माफिक परिवर्तन करवाए गये हैं | बलात्कार या यौन उत्पीड़न का कोई संकेत नहीं होते हुए भी, पोस्टमुर्टम करने वाले डॉ. मुकुल को काफी दबाव डालकर दोबारा रिपोर्ट बनवाई गई । शायद एक आठ वर्षीय बच्ची की हत्या, जन मानस को इतना उद्वेलित नहीं करेगी, जितना बलात्कार जुड़ने से होगा । और फिर अगर वह गैंग-रेप हो तो फिर कहना ही क्या है! 

कश्मीर से पधारी अपराध शाखा प्राप्त आदेशों के अनुसार काम कर रही है। पूरा गांव उनकी गहन घेराबंदी में है | कोई घर बख्शा नहीं है, हर परिवार को लक्षित किया गया है | थर्ड डिग्री तो दिनचर्या में शामिल है। अपमान, यातना और आतंक का एक अभूतपूर्व सिलसिला चल रहा है | 15 दिनों के अंदर इसका परिणाम दिखने लगा है, पूरा गाँव खाली हो गया है और उन्होंने कूटह इलाके के रामलीला मैदान में शरण ली है । लेकिन वे वहाँ भी कहाँ सुरक्षित रह पाए | उनमें से 150 लोगों को हिरानगर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया । सबसे पहले निषेधाज्ञा लगाई गई, फिर सभी को धारा 144 का उल्लंघन करने के आरोप में बंदी बना लिया गया । इसमें पूर्व सरपंच- कांत कुमार और बागमल खजुरिया भी शामिल थे। मुख्यमंत्री ने ट्वीट कर उनका मजाक उड़ाया कि वे लोग बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा फहरा रहे थे | कुल मिलाकर अपराध की जांच के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है, वह अपने आप में जांच का विषय है । 

एक तरफ तो यह सब चल रहा है, दूसरी तरफ मुख्यमंत्री ने 14 फरवरी को अपने आदिवासी कल्याण विभाग की एक बैठक की अध्यक्षता की । बैठक में उनके द्वारा दिए गए कई निर्देशों में से एक है - जम्मू कश्मीर पुलिस को अवैध तरीके से कब्जाई गई, सरकारी या वन भूमि को खाली करवाने में कोई सहायता नहीं करनी है । यह उच्च न्यायालय द्वारा “रोशनी अधिनियम” पर दिए गए स्टे का मजाक नहीं तो क्या है । 

अब चार्जशीट का केंद्र बिंदु एक मंदिर है | वह जगह जहाँ कथित तौर पर उस गरीब बच्ची को पांच दिनों तक कैद में रखा गया । यह मंदिर केवल एक कमरे का है, जिसमें तीन खिड़कियां हैं और उनमें से भी दो पूरी तरह टूटी हुई हैं, अर्थात कमरा पूरी तरह खुला हुआ है । अब एक और तथ्य की ओर ध्यान दें कि संपत्ति के विवाद में असिफा के माता-पिता दोनों की हत्या की गई थी। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि उसे एक बड़ी संपत्ति विरासत में मिली थी और उसकी मौत के बाद उस संपत्ति के कई संभावित लाभार्थि हैं | इस तथ्य को भी ध्यान दें कि क्या 60 वर्ष से अधिक आयु का एक सेवानिवृत्त शासकीय राजस्व अधिकारी अपने पुत्र को, जो मेरठ में अपनी परीक्षा दे रहा है, एक दिन के लिए "अपनी लालसा को संतुष्ट" करने के लिए घर आने के लिए कह सकता है? और क्या यह भी केवल संयोग है कि यह आदमी वही है, जो पूरे इलाके में जम्मू क्षेत्र के जनसांख्यिकीय असंतुलन के खिलाफ चेतावनी दे रहा है ? लोगों को समझा रहा है कि मुसलमानों को अपनी भूमि नहीं बेचो? उसकी इतनी हिम्मत!? उस आरोपी एसपीओ की हिम्मत कैसे हुई कि उसने तस्कर सांडों के खिलाफ कार्यवाही की ? उसे भी धर दबोचो | मेडिकल रिकॉर्ड और चार्जशीट क्या होती है, मामले को विस्तार देने की अकल होना चाहिए, कहानी कैसे बनाई जाए, यह आना चाहिए। 

जिस समय सावधानीपूर्वक यह कहानी बुनी जा रही थी, उसी दौरान 16 मार्च को पास के ही नागराटा में एक छोटी बच्ची शाहबीना अख्तर की उसके ही मदरसे के मौलवी शाहनवाज ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी । कहीं कोई नाराजगी का स्वर सुना किसी ने ? किसी को भी यह याद करने का भी समय नहीं है कि किस प्रकार शोपियां में एक बलात्कार और हत्या का दोष सुरक्षा बलों के मत्थे मढा गया था । वहां जिस डॉक्टर ने पोस्ट मार्टम रिपोर्ट तैयार की थी, उसने सबूत बनाने के लिए अपने अधोवस्त्र रख दिए थे । (यहाँ लेखक ने शब्द प्रयोग कुछ और किया है, किन्तु मैंने शालीन शब्द प्रयोग किया है) | 

हमारे टीवी बहस के योद्धाओं को फुर्सत कहाँ जो यह विचार करें कि इतनी शंकास्पद स्थिति होते हुए भी सी बी आई की जांच की मांग क्यों अक्षम्य अपराध है ? सदैव विष वमन करने वाले ये तक्षक बताएं कि भारत में सीबीआई जांच करना भी कब से सांप्रदायिक राजनीति कहलाने लगी? 

साभार आधार - https://www.sundayguardianlive.com/opinion/anatomy-of-a-concoction
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