भारतीय होने पर शर्मिंदा होने वालो देखो भारत क्या है: एक पश्चिमी विद्वान की नजर में - डेविड फ्राली



डॉ डेविड फॉली (पंडित वामदेव शास्त्री) भारत के प्रति अगाध आस्था रखते हैं | उनके द्वारा कई वर्ष पूर्व लिखा गया यह आलेख आज और भी अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि अनेक राष्ट्र-विरोधी, जन विरोधी शक्तियां देश के राजनीतिक और सामाजिक माहौल को खराब कर भारत के मूल तत्व पर लगातार आघात कर रही हैं | मैंने लेख का भाषानुवाद करने के स्थान पर भावानुवाद करने का प्रयत्न किया है | कैसा लगा, बताइये अवश्य – हरिहर शर्मा 

आधुनिक अंग्रेजीदां भारतीय एक पराजित मानसिकता के शिकार है | आज दुनिया के किसी अन्य देश के लोगों का ऐसा मनोविज्ञान नहीं है। देश के अभिजात वर्ग के दिमाग में गृहयुद्ध और आंतरिक संघर्ष का अज्ञात भय बसा हुआ है । जबकि यहाँ का सांस्कृतिक नेतृत्व का सारा जोर भारत को एक विदेशी छवि में ढालने पर है | उनका मानना है कि बेचारे भारतीय और उनमें भी विशेषकर हिन्दू न तो संरक्षित करने लायक हैं और ना ही सुधारने योग्य । अर्थात उनका कुछ नहीं हो सकता | 

भारत का अभिजात वर्ग अपने ही देश की परंपराओं और संस्कृति से पूर्णतः अलगाव रखते हुए सदा अपने आप को कोसने में व्यस्त रहता है वे क्यों ऐसे निर्दयी देश में पैदा हुए । अंग्रेजी बोलने वाला यह नया अभिजात वर्ग खुद को अपनी मिट्टी और अपने लोगों से प्रथक रखने में ही गर्व महसूस करता है । 

दुनिया का शायद ही कोई अन्य देश ऐसा हो जहां के शिक्षित लोगों का शौक अपनी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास को बदनाम करने का बन गया हो | और हैरत की बात यह कि वह महान संस्कृति हजारों वर्ष प्राचीन है । जब पुरातात्विक अनुसंधान भारत के अतीत की महानता को दिग्दर्शित करते हैं, तो यह उनके लिए राष्ट्रीय गौरव का विषय नहीं होता, बल्कि वे उसे कपोलकल्पित बताकर उसका मजाक उड़ाते हैं | मानो वे ही इस अत्यंत पिछड़ी हुई संस्कृति के अन्दर एकमात्र समझदार तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

'प्रचंड' अल्पसंख्यक 

इसी प्रकार दुनिया में शायद ही ऐसा कोई अन्य देश हो जहां आध्यात्मिक और प्रबुद्ध होते हुए भी बहुसंख्यक के धर्म का उपहास किया जाता हो, जबकि अल्पसंख्यकों का धर्म, कट्टरपंथी या काफी हद तक आतंकवादी होते हुए भी ऊंचा बताया जाता हो । बहुसंख्यक के धर्म और उसके संस्थानों पर कर लगाकर उन्हें नियंत्रित किया जाता हो, जबकि अल्पसंख्यक धर्मों को न केवल लाभ पहुंचाया जाता हो, बल्कि उनके विनियमन या निगरानी की भी कोई व्यवस्था न हो। अल्पसंख्यक धर्मावलम्बी जो चाहे पढ़ सकते हैं, भले ही राष्ट्र विरोधी या मूर्खता पूर्ण ही क्यों न हो । अल्पसंख्यक की धार्मिक भावनाओं को अपमानित करने के बहाने पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता हो, किन्तु बहुमत की आस्था पर प्रहार की प्रशंसा होती हो । 

ऐसा भी कोई अन्य देश नहीं है जहां क्षेत्रीयता, जाति और पारिवारिक निष्ठा राष्ट्रीय हितों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हों, यहां तक ​​कि लोकतांत्रिक, समाजवादी या समाज सुधार का दावा करने वालों के बीच भी। राजनीतिक दल एक राष्ट्रीय एजेंडा को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं बल्कि पूरे देश में क्षेत्रीयता को बढ़ावा देने में जुटे रहते हैं। 

भारतीयों को नीचा दिखाने के लिए बाहर के लोगों की जरूरत नहीं है – क्योंकि खुद को ऊंचा रखने की खातिर भारतीय खुद ही अपने लोगों और यहाँ तक कि देश को भी नीचा दिखाने में जुटे रहते हैं । केवल भारत के बाहर ही भारतीय उल्लेखनीय सफलता अर्जित करते हैं, क्योंकि वहां उनकी मौलिक प्रतिभा, नकारात्मकता और कठोर विभाजन से प्रभावित नहीं होती है, जोकि देश में व्यापक रूप से विद्यमान है । 

भारत के राजनीतिक दलों के लिए सत्ता केवल धन इकट्ठा करने और देश को लूटने का साधन भर है । राजनीतिक नेताओं में गैंगस्टर, चालबाज और जोकर बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं जो खुद और अपने समूह को सत्ता में रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं । यहां तक ​​कि तथाकथित आधुनिक या उदारवादी पार्टियां भी पुराने राजाओं के दरबारों की तरह दिखती हैं, जहां व्यक्तिगत वफादारी किसी भी लोकतांत्रिक भागीदारी से अधिक महत्वपूर्ण है। एक बार जब राजनेता कुर्सी पा जाते हैं, उसके बाद वे जनता की सेवा कम करते हैं, जनता को अपने फायदे के लिए धोखा ज्यादा देते हैं। जो थोड़े बहुत ईमानदार राजनेता है भी, उन्हें लगता है कि वे भ्रष्ट नेताओं के सहयोग के बिना कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि नौकरशाही पर उनका ही प्रभाव होता हैं। 

राजनेता देश को वोट बैंक के रूप में देखते हैं, अतः उनका पूरा जोर एक समुदाय को दूसरे से लड़ाने पर ही रहता है । वे चुने जाने या सत्ता में बने रहने के लिए समुदायों को समर्थन की रिश्वत देते हैं । प्रचार में उनका जोर उन नारों पर ज्यादा रहता है जो समाज में भय और संदेह का वातावरण पैदा करें | राष्ट्रीय सर्वसम्मति या सद्भावना से उनका कोई वास्ता नहीं होता । वे सामाजिक परिवर्तन के लिए किसी भी सकारात्मक कार्यक्रम के बजाय दोष और घृणा के आधार पर सत्ता हासिल करते हैं । वे लोगों को वास्तविक सामाजिक समस्याओं जैसे खराब बुनियादी ढांचे या शिक्षा की कमी के बारे में जागरूक करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते । 

अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भारतीय राजनेता अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिए विदेशी प्रेस का भी दुरुपयोग करने में कोई संकोच नहीं करते, भले ही उन झूठी अफवाहों से बाहरी दुनिया में देश की कितनी बदनामी क्यों न हो जाए । भारत में होने वाले छोटे छोटे संघर्ष भी विदेशी मीडिया में सुर्खियाँ बन जाते हैं, और यह काम विदेशी पत्रकारों द्वारा नहीं, बल्कि भारतीयों द्वारा मीडिया में अपने विरोधियों के खिलाफ विष वमन करने के लिए किया जाता हैं। विदेशी प्रेस में भारत की खबरों के लिए जिम्मेदार भारतीय अपने देश के बारे में जितना जहर और विकृति फैलाते हैं, उतना तो भारतीय संस्कृति को सख्त नापसंद करने वाला कोई विदेशी भी शायद शायद ही फैला सके । 

मीडिया में एक ईसाई मिशनरी की हत्या, ईसाई विरोधी हमलों की एक राष्ट्रीय घटना बन जाती है, जबकि सैकड़ों हिंदुओं की हत्या को कोई महत्व नहीं दिया जाता, मानो केवल सफेद-चमडी ही मायने रखती है, भारत में भारतीयों की हत्या, हत्या नहीं होती । मिशनरी आक्रामकता को सामाजिक उत्थान के रूप में परिभाषित किया जाता है, जबकि धर्मांतरण के खिलाफ आवाज उठाने के हिंदू प्रयासों को कट्टरतावाद के रूप में चित्रित किया जाता है। 

शासक अभिजात वर्ग, पुराने औपनिवेशिक शासकों का ही नया अवतार है, वे अपनी अलग दुनिया में रहते हैं और आम लोगों के रीति रिवाज को समझना तो दूर, उनसे मिलना भी पसंद नहीं करते । वे भी यदाकदा उनकी ही तरह दर्शन देने जनता के बीच प्रकट होते हैं, फूट डालो और राज करो उनका भी घोष वाक्य है | वे चाहते हैं कि लोग इतने कमजोर रहें, कि कोई भी उन्हें चुनौती नहीं दे सके । 

भ्रष्टाचार लगभग हर जगह मौजूद है और रिश्वत लगभग सभी क्षेत्रों में व्यावसायिक स्वरुप ले चुकी है। भारत की नौकरशाही हर परिवर्तन में बाधा डालती है, विकास को बाधित करती है, और अपने नियंत्रण को बरकरार रखना चाहती है। 

अजीब बात यह है कि भारत दुनिया की सबसे प्राचीन और सबसे सम्मानजनक सभ्यताओं में से एक है। इसकी संस्कृति किसी आतंकवादी और कट्टरपंथी धर्म की तरह दुनिया को जीतने की कोशिश नहीं करती, बल्कि एक अधिक प्रभावी वैश्विक दृष्टि का प्रतिनिधित्व करती है | भारत ने हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख जैसे धर्मों को जन्म दिया है, जो विश्व में अपनी सहिष्णुता और आध्यात्मिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। 

इसने संस्कृत जैसी दुनिया की सबसे विशाल भाषा का निर्माण किया है। इसने हमें योग की अविश्वसनीय आध्यात्मिक प्रणाली और ध्यान और आत्म-प्राप्ति की महान परंपराएं दी हैं। आध्यात्मिकता के एक अधिक सार्वभौमिक मॉडल और धार्मिक सिद्धांत के विश्वव्यापी मॉडल के रूप में ये परंपराएं भविष्य की प्रबुद्ध सभ्यता के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण विरासत हैं। 

विडंबना यह है कि अपनी महान परंपराओं को गले लगाने के बजाय, आधुनिक भारतीय मनोविज्ञान पश्चिमी बौद्धिक विचारों जैसे मार्क्सवाद या ईसाई मिशनरी और इस्लामी आक्रामकता के सम्मुख नत मस्तक है। अधिकांश आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी, इस महान भूमि की आत्मा से अनजान हैं। वे इंग्लैंड या चीन में भी रह सकते हैं क्योंकि वे अपने देश के बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं। 

सौजन्य: Organiser
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