भाजपा नेता बुक्कल नवाब के खिलाफ दारुल उलूम देवबंद का फतवा - किया इस्लाम से बेदखल


बुक्कल नवाब उत्तर प्रदेश के एक जाने माने अल्पसंख्यक नेता हैं | समाजवादी पार्टी के एमएलसी रहे बुक्कल नवाब सबसे पहले चर्चा में तब आये, जब उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस कर राम मंदिर निर्माण में सहयोग देने की इच्छा जताई और उसके लिए पंद्रह करोड़ रुपये देने की घोषणा की | इतना ही नहीं तो उन्होंने रामलला के लिए दस लाख रुपये मूल्य का स्वर्ण मुकुट भी अर्पित किया | बाद में बुक्कल नवाब ने समाजवादी पार्टी से स्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया, साथ ही वरिष्ठ सदन से भी स्तीफा दे दिया | 

भाजपा ने भी उन्हें हाथों हाथ लिया और अपनी ओर से वापस एमएलसी भी बना दिया | एमएलसी निर्वाचित होने के बाद बुक्कल नवाब ने लखनऊ के हजरतगंज इलाके में स्थित हनुमान मंदिर में पहुंचकर हनुमान जी की पूजा की तथा एक पीतल का घंटा भी चढ़ाया | 

उनके इस कार्य को इस्लाम विरोधी बताते हुए मदरसा दारुल उलम के प्रमुख, अशरफिया मौलाना सलीम अशरफ काजमी ने नवाब को इस्लाम से बेदखल करने की घोषणा कर दी | उन्होंने कहा कि इस्लाम में मूर्ति पूजा की मनाही है तथा एक मुस्लिम को अल्लाह के अलावा किसी अन्य का सिजदा करने की भी इजाजत नहीं है । 

अलीगढ़ का दारुल उलूम देवबंद पहले भी अपने बेतरतीब फतवों के लिए चर्चित रह चुका है | इससे पहले मार्च में, भाजपा सरकार में मंत्री मोहसिन रजा के खिलाफ भी वे ऐसा ही फतवा जारी कर चुके हैं | इतना ही नहीं तो उन्होंने उन मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ भी फतवा दिया है, जो चूड़ी खरीदते समय दुकानदार की मदद लेती हैं । वे अपने फतवे में शादी समारोह में डीजे और संगीत को भी प्रतिबंधित कर चुके हैं । यहाँ तक कि उनकी नजर में लाइफ इंश्योरेंस भी 'गैर इस्लामिक' है और वे इसे भी प्रतिबंधित कर चुके है। 

स्वाभाविक ही देवबंद द्वारा जारी इस फतवे के बारे में पूछे जाने पर बुक्कल नवाब ने यही कहा कि उन्हें इससे न कोई हैरत हुई है और ना ही कोई परेशानी । उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि भगवान राम तो हम सबके पूर्वज हैं, तो स्वाभाविक ही हनुमान भी हुए | अपने पूर्वजों का सम्मान करने में क्या गलत है ? उन्हें ऐसे फतवों की कोई चिंता नहीं है, क्योंकि इनका उद्देश्य महज हिन्दू और मुसलमान समाजों में फूट डालना भर है, और कुछ नहीं | 

लेकिन इस प्रकरण में सबसे हैरतअंगेज प्रतिक्रिया समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान की सामने आई है, जिन्होंने कहा कि इस्लाम के ये तथाकथित रखवाले और कितने लोगों का बहिष्कार करेंगे। उन्होंने यह भी पूछा कि देवबंद को किसने मुक़र्रर किया कि वह तय करे कि मुस्लिम कौन है और कौन नहीं है। 

क्या बदलते दौर में सचमुच इस्लाम भी बदलने को मजबूर हो रहा है ? अगर सोलहवीं सदी की मान्यताओं पर पुनर्विचार होने लगे तो यह दुनिया के लिए सचमुच राहत की खबर होगी | किन्तु दुर्भाग्य से अभी ये एक्कादुक्का मुस्लिमों के ही स्वर हैं, बहुतायत अभी भी देवबंदी मानसिकता के ही साथ है | काश अनुपात इससे उल्टा हो जाए ?

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