देश में बढ़ती अराजकता और माओवादी षडयंत्र !


पायोनियर में प्रकाशित श्री सतीश कुमार के शोधपूर्ण आलेख का हिन्दी रूपांतर द्वारा हरिहर शर्मा 

माओवादी विद्रोहियों का प्रयत्न अब विश्वविद्यालयों में अपनी गतिविधियाँ बढाने पर है, यह स्थिति न केवल कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए बल्कि देश के आम नागरिकों के लिए भी एक बड़ी चिंता का विषय है। हाल ही में हैदराबाद विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को मारने के लिए माओवादियों द्वारा प्रयास किया गया । पूर्व गोदावरी पुलिस ने दो माओवादियों को कुलपति की हत्या की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया है। पुलिस का दावा है कि आरोपी, तेलंगाना के शीर्ष माओवादी कमांडर के आदेश पर तथाकथित दलित छात्र रोहित वेमूला की मौत का बदला लेने के लिए प्रयत्नशील थे, जिसने दो साल पहले विश्वविद्यालय परिसर में आत्महत्या की थी। 

ऐसे कई प्रमाण हैं जो शहरों में नक्सलियों की बढ़ती गतिविधियों की कहानी स्वयं वर्णन करते हैं। 2016 में, नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने कहा, "समस्या गडचिरोली या सुकमा के माओवादियों से उतनी नहीं हैं, जितनी दिल्ली, पुणे, पटना या हैदराबाद के विश्वविद्यालयों में बैठे उनके उत्प्रेरकों से है। ये लोग ही नक्सलियों के लिए रणनीति तैयार कर रहे हैं। " 

नक्सल समर्थकों की यह सेना आतंकवादियों से कहीं अधिक खतरनाक है। सात सीआरपीएफ जवानों की पिछले महीने हुई हत्याएं नक्सलियों की बर्बरता और नृशंसता का नवीनतम प्रमाण हैं। वामपंथी चरमपंथियों ने 1994 से 2014 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों में 2,700 से ज्यादा सुरक्षा बल कर्मियों सहित 12,000 से ज्यादा लोगों की हत्याएं की हैं। वामपंथी गोलियों के शिकार लोगों में ज्यादातर निर्दोष जनजातीय लोग और गरीब ग्रामीण है। माओवादियों ने वीआईपी लोगों को भी अपना शिकार बनाया हैं। 25 मई 2013 को, एक माओवादी हमले में कांग्रेस नेता और छत्तीसगढ़ के पूर्व मंत्री महेंद्र कर्मा और छत्तीसगढ़ कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंद कुमार पटेल की मौत हुई। वरिष्ठ कांग्रेस नेता वीसी शुक्ला भी माओवादियों के हाथों मारे गए थे। 

विश्वविद्यालयों में माओवादी विद्रोहियों की उपस्थिति एक दीर्घकालिक रणनीति का परिणाम है, जिसके माध्यम से माओवादी जंगलों के स्थान पर अब दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों में घुसपैठ करना चाहते है। अभी तक केवल जेएनयू ही एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय था, जहाँ से लगातार नक्सलवादी विचार को प्रोत्साहन मिलता था, किन्तु अब कई हैं | 

2001 में हुई माओवादियों की नौवीं कांग्रेस में स्वीकृत रणनीतिक दस्तावेज के अनुसार, "गुप्त क्रांतिकारी मास संगठनों" की आवश्यकता है। दस्तावेज कहता है "जनता के हर वर्ग में हमारे गुप्त संगठनों का गठन होना चाहिए; विशेषकर शहरी क्षेत्रों के युवाओं, छात्रों और श्रमिकों के बीच उन्हें स्थापित किया जाना हैं। " 

एक पॉलिट ब्यूरो सदस्य, बंशीधर, उर्फ ​​चिंतन दा, संभवतः जेएनयू का पहला छात्र था, जिसके माओवादियों के साथ संबंध सामने आये । उसे 2006 में गिरफ्तार किया गया था तथा उसने जेएनयू से पीएचडी और एमफिल की डिग्री प्राप्त की थी। 

पुलिस द्वारा जब्त किए गए दस्तावेजों से माओवादी संगठनों के अनेक नापाक संपर्कों का खुलासा हुआ है । वारंगल में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी), कोलकाता में जादवपुर विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय के अतिरिक्त दक्षिण कन्नड़, मैंगलोर और शिमोगा के शैक्षणिक परिसर माओवादियों के पसंदीदा ठिकाने बन चुके हैं। डीयू और जेएनयू के साथ लाभ यह है कि वे भारत में आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र हैं: बैसे भी माओवादी रणनीति में दिल्ली जैसे शहरी क्षेत्रों में विस्तार पर ज्यादा जोर हैं, क्योंकि उसका शासक वर्ग के लिए विशेष राजनीतिक और आर्थिक महत्व है। उनके दस्तावेज़ बड़े शहरों में मजबूत आंदोलनों की रूपरेखा दर्शाते हैं ताकि आंदोलन अधिक प्रभावी हो सकें। कर्नाटक के शैक्षणिक परिसरों में, नक्सलियों की घुसपैठ एकदम नया समाचार हैं। राज्य पुलिस के इंटेलिजेंस सूत्रों के अनुसार नक्सलियों ने मंगलोर और शिमोगो के परिसरों में नए संपर्क बनाए हैं, जिनके माध्यम से नए रंगरूटों की भर्ती हो रही है । कुवेम्पू और मैंगलोर जैसी विश्वविद्यालय भी माओवादियों के लिए नवीन भर्ती क्षेत्रों में बदले जा रहे हैं । 

माओवादियों द्वारा अपना ठिकाना बनाने के लिए उत्तर-पूर्व क्षेत्र को विशेष रूप से चयनित किया गया है। 2006 में वहां के विद्रोही समूहों के माओवादीयों के साथ संपर्क प्रकाश में आये थे । मुख्यतः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का चयन चीन से आने वाले हथियारों और गोला-बारूद की खेप के लिए सुविधाजनक पारगमन मार्ग के नाते से किया गया है। दूसरा, यह क्षेत्र चरमपंथियों के भौगोलिक विस्तार की रणनीति की दृष्टि से भी उपयुक्त माना गया है। भारतीय खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार माओवादी नेताओं ने चीन के युन्नान प्रांत में गोपनीय रूप से हथियार प्रशिक्षण प्राप्त किया है। एबीवीपी के राष्ट्रीय महासचिव सुनील अंबेकर ने उत्तर-पूर्वी राज्यों में माओवादियों और विद्रोहियों के सम्मिलन पर चिंता व्यक्त की है। अब चूंकि उत्तर पूर्व के अधिकांश राज्यों में भाजपा सत्ता में है इसलिए, स्थानीय विपक्षी दलों और माओवादियों ने मिलकर इन राज्यों में कानून-व्यवस्था की स्थिति चौपट करने की योजना बनाई हैं। 

रिपोर्ट के मुताबिक, चीन ने म्यांमार के काचीन प्रांत में एक हथियार निर्माण केंद्र स्थापित किया है, जिसमें एके 47 राइफल्स से मिलते जुलते घातक हथियार बनाकर उग्रवादियों और माओवादियों को आपूर्ति की जायेगी । नवंबर 2009 में तत्कालीन गृह सचिव जी के पिल्लई ने कहा था कि उन्हें विश्वास है कि भारत में माओवादियों को हथियारों की आपूर्ति चीन द्वारा की जाती है। अर्थात सीधे तौर पर कहा जाए तो माओवादियों के माध्यम से चीन बैसा ही छद्म युद्ध लड़ रहा है, जैसा कि पाकिस्तान जिहादी आतंकियों के माध्यम से लड़ता आ रहा है |

सर्वाधिक निंदनीय और घातक प्रवृत्ति तो यह सामने आ रही है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दल भी माओवादी ताकतों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बना रहे हैं। नंदीग्राम और पश्चिम बंगाल में घटित हिंसक घटनाओं ने साबित कर दिया है कि तृणमूल कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय पार्टियां, अपने निहित स्वार्थों के लिए माओवादी विद्रोहियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। माओवादी ताकतें, समस्याओं के खिलाफ संघर्ष के नाम पर नगरीय क्षेत्रों में अपनी जड़ें मजबूत कर रहे हैं । पार्टी के नगर आधारित संवर्ग, राशन-दुकान मालिकों के भ्रष्टाचार और शोषण के खिलाफ, पानी, बिजली, शौचालयों और सीवरेज जैसी बुनियादी सुविधाओं के नाम पर लड़ते हैं। वे स्थानीय समितियों और झुग्गी-झोपड़ियों के संगठनों के माध्यम से इन मुद्दों पर संघर्ष का आयोजन करते हैं। महिला और बेरोजगार युवा इन संघर्षों में प्रमुख भूमिका निभाते हैं, महिला मंडल (महिला संगठन) और युवा क्लबों को भी इसमें शामिल किया जाता है। 

इसलिए, यह कहा जा सकता है कि अब माओवादी गतिविधि का केंद्र केवल मानव रहित बियाबान सुकमा नहीं है, बल्कि माओवादी अब छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के परे भी अपने आधार का विस्तार कर रहे हैं | सुकमा और दंतेवाड़ा जिलों में अपने मौजूदा गढ़ों के बाद अब मध्य प्रदेश-महाराष्ट्र-छत्तीसगढ़, इन तीनों राज्यों में माओवादियों का और अधिक प्रसार देखने को मिल सकता है । पूरा दंडकारण्य क्षेत्र, जिसमें दक्षिणी छत्तीसगढ़ के काफी हिस्सों के साथ, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के विशाल क्षेत्र भी शामिल हैं, साथ ही ओडिशा झारखंड और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से भी माओवाद प्रभावित हैं। शहरी क्षेत्रों की घनी आबादी माओवादियों के नए लक्ष्य हैं, जेएनयू की कैंडललाइट जुलूस ब्रिगेड हो या जंतर मंतर पर हिंसक जुलूस, इन माओवादियों को देखा जा सकता हैं। उन्होंने झुग्गी झोंपड़ी से लेकर दिल्ली के सत्तारूढ़ दल तथा देश की सबसे पुरानी पार्टी के शीर्ष निर्णायक घटकों में भी घुसपैठ कर ली है। 

जैसा कि आलेख के प्रारम्भ में उल्लेखित किया कि माओवादियों ने विश्वविद्यालय परिसरों में अपनी जड़ें मजबूत की हैं, अतः स्वाभाविक ही उनके केडर में प्रशिक्षित तकनीकी विशेषज्ञ भी बड़ी संख्या में हैं । आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक साधनों का इस्तेमाल करने में भी वे महारथी हैं । उनका तात्कालिक लक्ष्य है, मौजूदा केंद्र सरकार को अस्थिर करना । इस उद्देश्य में जाने अनजाने अधिकांश विपक्षी राजनीतिक दल भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से माओवादी ताकतों को बढ़ावा दे रहे हैं। हाल के किसान आंदोलन हों या सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर हुआ अराजकता का नग्न तांडव, हर जगह माओवादी बल शामिल हैं। खुफिया रिपोर्टों ने यह संकेत दिया ही है कि ये समूह अन्य देशों के विद्रोहियों और आतंकवादी संगठनों से जुड़े हैं। 

अगर कतिपय राजनीतिक दल अल्पकालिक लाभ के लिए माओवादियों को बढ़ावा दे रहे है, तो वे राष्ट्रीय हितों का दीर्घकालिक नुकसान कर रहे हैं। माओवादियों का लक्ष्य देश की रीढ़ को तोड़ना है । 

(लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय हरियाणा में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख हैं) 

सौजन्य: पायनियर
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