भारत में मरती भारतीय भाषाएँ | (हिन्दुस्तान टाईम्स में प्रकाशित एक आलेख का हिन्दी अनुवाद)




हिंदुस्तान टाइम्स // 06 मई, 2018 22:30 IST 

कुमकुम दासगुप्त, द्वारा 

भारत 22 से अधिक भाषाओं का घर है। बड़ौदा विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के पूर्व प्रोफेसर और People’s Linguistic Survey of India के कर्ताधर्ता गणेश देवी के अनुसार भारत सैकड़ों भाषाओं और लोक बोलियों का देश है | वे इसे "आवाजों का घना जंगल", a noisy Tower of Babel, कहते हैं । भाषाएं आम तौर पर उन्हें कहा जाता है, जो प्रतिष्ठित और आधिकारिक होती हैं, जिन्हें लिखा पढ़ा जाता है, जबकि बोली वह जिसे जन सामान्य अनौपचारिक रूप से बोलता है । 

दुर्भाग्य से, भारत में भाषाओं/बोलियों की यह विविधता अस्तित्व के संकट से गुजर रही है । विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले कुछ दशकों में कई सौ भाषाएँ तो समाप्त ही हो गई हैं | उसका कारण है, एक समेकित राष्ट्रीय भाषा नीति की कमी, सरकारी संरक्षण की कमी, उन पर विश्वसनीय डेटा की अनुपस्थिति, बोलने वालों की संख्या में कमी, स्थानीय भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा का अभाव, गांवों से जनजातियों का शहरों की ओर पलायन आदि। 

भाषाओं का लुप्त होना एक वैश्विक घटना है। विश्व भाषा संस्थान, स्कूल ऑफ लैंग्वेज, कल्चर, और भाषाविज्ञान, एसओएएस, लंदन विश्वविद्यालय के निदेशक मंडना सेफ्फेद्दीनपुर चेतावनी देते हुए कहते हैं, "एक भाषा केवल तभी जीवित रह सकती है जब इसका उपयोग किया जाता है ...। यह युवा पीढ़ी है, जिसे इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना है क्योंकि वे ही ज्ञान लेकर उसे प्रसारित करते हैं । घरों के अलावा, इन भाषाओं को स्कूलों में भी पढ़ाया जाना चाहिए। 

धीमी मौत 

भारत में, कई भाषाएं या तो मर चुकी हैं या विलुप्त होने के कगार पर है, और इसके लिए राजनीतिक दुर्लक्ष्य को धन्यवाद दिया जा सकता है | क्योंकि जब भाषाई आधार पर राज्यों की सीमाओं का निर्धारण हुआ, तब जिन भाषाओं में लिखित साहित्य था, उन्हें गिना गया और इस तरह वे भाषाएँ दौड़ में हार गईं, जिनका कोई मुद्रित साहित्य नहीं था । स्कूलों और कॉलेजों को भी केवल 'आधिकारिक' भाषाओं में ही स्थापित किया गया और अनेक भाषाओं को शिक्षा प्रणाली में कोई जगह ही नहीं मिली। 

अनुसूचित भाषाएं 

संविधान किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं देता । यह आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी, और साथ ही अंग्रेजी को भी निर्दिष्ट करता है। 22 अनुसूचित भाषाएं हैं: असमिया, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कश्मीरी, कन्नड़, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु, उर्दू। 

प्रशासनिक निरीक्षण पर भी राजनीतिक उदासीनता का प्रभाव दिखता है । 1961 की जनगणना में 1,652 भाषाएं दर्ज की गईं थीं । लेकिन 1971 की जनगणना के बाद, 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं "अन्य" के रूप में दर्ज हुई हैं। 2011 की जनगणना का भाषा डेटा, तो आज तक सार्वजनिक भी नहीं किया गया है। हालांकि, हाल ही में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में, एक जनगणना निदेशालय के अधिकारी ने स्वीकार किया कि "40 भाषाओं और बोलियों के लुप्त होने का खतरा हैं, क्योंकि वे 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाती है"। 

लुप्तप्राय को बचायें 

हालांकि राज्य ने अभी तक भारत की भाषा विविधता पर पूरी रिपोर्ट जारी नहीं की है (कुछ का कहना है कि यह इसलिए नहीं किया गया, क्योंकि इससे राजनीतिक हंगामा होगा), लुप्तप्राय भाषाओं के दस्तावेज बनाने के लिए कई राज्य-शासन के अधीन, संस्थागत और निजी प्रयास हुए हैं । उदाहरण के लिए, डेवी ने 780 जीवित भाषाओं का दस्तावेजीकरण किया है और दावा किया है कि उनमें से 400 के लुप्त होने का खतरा है। 

लेकिन यह संख्या डेवी की टीम ने जो दस्तावेज तैयार किये हैं, उससे कहीं अधिक हो सकती है। हाल ही में, हैदराबाद विश्वविद्यालय में भाषाविज्ञान प्रोफेसर, पंचानन मोहंती ने ओडिशा और आंध्र प्रदेश में बोली जाने वाली दो भाषाओं की खोज की: वाल्मीकि और मल्हार। 

भाषा रक्षकों की प्रतिक्रिया 

शुभ्रांशु चौधरी, संस्थापक, सीजीनेट स्वरा 

गोंडी 12 मिलियन गोंड आदिवासियों द्वारा बोली जाती है और फिर भी, कोई भी मानक गोंडी भाषा नहीं है जो उन सभी को एकीकृत करे। चौधरी एक शब्दकोश प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं जो गोंडी भाषा का मानकीकरण कर रहा है और वे राज्य से आग्रह कर रहे हैं कि इसे अनुसूचित भाषा सूची में शामिल किया जाए । 

चौधरी कहते हैं, "मानकीकृत गोंडी की कमी ने छत्तीसगढ़ राज्य और गोंडी भाषी आदिवासियों के बीच एक दरार पैदा की है। इसका इस्तेमाल माओवादियों ने किया, जो न केवल उनकी भाषा बोलते थे बल्कि उनके साथ रहते भी थे।" "यदि सभी के पास एक मानक शब्दकोश होता, तो उसी समुदाय में से पत्रकार, प्रशासक या शिक्षक उभर सकते थे। उन्हें स्कूलों से बाहर निकलने और बंदूक थामने की आवश्यकता नहीं होती। चौधरी कहते हैं कि वे आल इंडिया रेडियो के साथ मिलकर एक गोंडी समाचार सेवा शुरू करने के लिए काम कर सकते हैं " । 

"यह एक धीमी प्रक्रिया है, लेकिन अगर हम माओवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते है, तो हमें इस पर विचार करना ही होगा ।" 

बनवांग लॉसु और राहुल रणदिवे 

एक स्कूल शिक्षक बनवांग लॉसु ने लगभग 15 साल पूर्व अरुणाचल प्रदेश के वंचो जनजाति समुदाय द्वारा बोली जाने वाली वंचो भाषा के लिए एक फ़ॉन्ट विकसित करने हेतु ध्वनि एकत्र करने का काम शुरू किया। अब महज कुछ तकनीकी कदमों का फासला है और उसके बाद फ़ॉन्ट लगभग तैयार है । लॉसू ने कुछ सामुदायिक बुजुर्गों और कॉलेज के दोस्तों के सहयोग से इस स्क्रिप्ट पर अकेले काम किया | उन्होंने इसके लिए अध्ययन और वेब पर घंटों खर्च किये । जबकि सभी लॉसू द्वारा किए गए प्रयासों की सराहना करते हैं, बस औपचारिक रूप से वंचो भाषी समुदाय इसे स्वीकार ले यह आवश्यक है । 

फोटोग्राफर और फिल्मकार राहुल रणदिवे भी इस परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए रणनीति बना रहे हैं, उनका कहना है कि स्वयंसेवी संस्था “वन्चो लिटरेरी मिशन” इस फॉण्ट को विद्यालयों में शिक्षकों और समुदाय के अन्य लोगों को सीखने की सुविधा प्रदान करेगा।राज्य में अनुमानित 50,000 वंचो हैं। 

डॉ शैलेन्द्र मोहन, दक्कन कॉलेज, पुणे 

निहाली एक उपेक्षित भाषा है, जिसे महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के जलगांव-जमोद तहसील में लगभग 2,000 लोगों द्वारा बोला जाता है। प्रोफेसर और भाषाविज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. मोहन, इस भाषा के विस्तृत वर्णनात्मक व्याकरण, एक त्रिभाषी शब्दकोश (निहाली-हिंदी-अंग्रेज़ी) और विभिन्न शैलियों में बोली के 20 घंटे के अभिलेखीय ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग के नमूनों पर काम कर रहे हैं, जिसमें कहानियां, मिथक और किंवदंतियों, और ऐतिहासिक घटनाएँ शामिल हैं । डॉ मोहन कहते हैं, "ऐसी भाषाओं का दस्तावेज बनाने में मुख्य समस्या यह है कि बोलने वाले अशिक्षित हैं और समुदाय में से ऐसे लोगों को ढूंढना मुश्किल होता है जो हमारे सवालों का जवाब दे सकें।" 

एक लुप्तप्राय भाषा को बचाने का पहला कदम उसका दस्तावेजीकरण ही है, जो एक कठिन कार्य है। सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन लैंग्वेज (सीआईआईएल), मैसूर के निदेशक डॉ डीजी राव कहते हैं, "यह एक लंबी प्रक्रिया है और इसके लिए बड़े संसाधनों की आवश्यकता है क्योंकि यह सिर्फ भाषा को दस्तावेज करने के बारे में नहीं बल्कि समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रथाओं और जातीय प्रथाओं के बारे में भी है।" "सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शोधकर्ताओं को इसके लिए बहुत समय चाहिए।" हालांकि भारत के मृतप्राय भाषाओं का दस्तावेज बनाने वाले कई शोधकर्ता हैं, पर इस प्रक्रिया का कोई मानकीकरण नहीं हुआ है। इसे व्यवस्थित करने के लिए, सीआईआईएल भाषा प्रलेखन के लिए मैनुअल के साथ आया है, समयरेखा के लिए पैरामीटर और परियोजनाओं पर काम करने वाले लोगों को प्रशिक्षण देना इसका कार्य है । 

समय की मांग 

भारतीय भाषा केंद्र, स्कूल ऑफ लैंग्वेज, लिटरेचर एंड कल्चर स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कन्नड़ के प्रोफेसर डॉ. पुरुषोत्थमा बिलीमाले कहते हैं कि भाषाओं को जीवित रखने में, स्कूलों में मातृभाषा की भूमिका बहुत सहयोगी हो सकती है | यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में कोई स्पष्ट भाषा नीति ही नहीं है। वर्तमान में, भारत में इन भाषाओं के अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं हैं । 

उदाहरण के लिए, कोरगा को लें। कर्नाटक के दक्षिणी कन्नड़ और उडुपी जिलों में अधिकतम 45-50 लोग इस भाषा बोलते हैं। उन सभी की आयु 60 से अधिक है | उनके बच्चों ने इस भाषा को नहीं सीखा है और वे शक्तिशाली स्थानीय भाषा तुलु और कर्नाटक की आधिकारिक भाषा कन्नड़ बोलते हैं । अगले दशक में, कोरगा बोलने वाला कोई नहीं बचेगा । बिलीमाले कहते हैं, "इस तरह एक भाषा मर जाती है।" 

ऐसा ही एक अन्य उदाहरण, मेघालय के गारो हिल्स में बोली जाने वाली रुगा है, जिसके अब केवल तीन बोलने वाले बचे हैं । रुगा बोलने वाला समुदाय, अब क्षेत्र की प्रमुख भाषा गारो बोलता है। 

"डॉ राव कहते हैं - "संविधान बच्चों के माता-पिता पर भाषा की पसंद छोड़ता है; इसका शोषण करते हुए, राज्यों ने अंग्रेजी-माध्यमिक विद्यालयों को प्रोत्साहित किया और निजी उद्यमियों को उस क्षेत्र में जाने की इजाजत दी जो राज्य का विषय होना चाहिए था । "फिर आईटी क्षेत्र आया और माता-पिता के दिमाग में अंग्रेजी का फितूर छा गया... ऐसी लापरवाह नीतियों के चलते भाषाओं, यहाँ तक कि प्रमुख भाषाओं के सम्मुख भी अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है और स्कूलों में विदेशी भाषाओं की प्राथमिकता बढ़ती चली जा रही है ।" 

अंत में एक विचारणीय प्रश्न 

मंत्री ने कहा कि नई शिक्षा नीति हिंदी को उचित महत्व देगी 

क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारे देश में भाषा का पेड़ धीरे-धीरे सूख रहा है, जबकि नाइजीरिया, इंडोनेशिया और छोटे से न्यू गिनी में जीवित भाषाओं की सबसे बड़ी संख्या है |
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