सिख पंथ में अलगाववाद - गुलामी काल का औपनिवेशिक षडयंत्र !
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हर भारतीय गौरवान्वित होता
है, जब वह गुरू तेगबहादुर की बलिदानी गाथा स्मरण करता है | गुरू गोविन्दसिंह जी का
शौर्य और गुरूपुत्रों की बलिदानी गाथा किसे रोमांचित नहीं करती ? मुस्लिम शासकों
के हाथों हुई बन्दा बहादुर की नृशंस हत्या की कहानी को कैसे विस्मृत किया जा सकता
है ?
आँखों के सामने उसके पुत्र
की ह्त्या की गई, इतना ही नहीं तो बेटे का कलेजा निकालकर बन्दा के मुंह में ठूंस
दिया गया | और उसके बाद - मांस नुच रहा था देही का मुख पर थी स्वधर्म की जय |
वीर बालक हकीकत राय का
बलिदान, सति दास, मति दास, भाई दयाल आदि के बलिदानों को क्या सिक्ख इतिहास से अलग किया जा सकता
है ?
इतना ही नहीं तो “गुरू ग्रन्थ साहब” को दशमेश गुरू गोविन्द
सिंह जी ने अपने बाद गुरू घोषित किया उसमें "हरी" शब्द का प्रयोग 8 हज़ार से
भी अधिक बार हुआ है, "राम" शब्द 2
हज़ार से अधिक बार आया है, जबकि
"वाहेगुरु" शब्द मात्र 17 बार आया है ।
इसके बाद भी जब कुछ चरमपंथी
स्वयं को हिन्दुओं से प्रथक बताते हुए मुस्लिम देश पाकिस्तान से दोस्ती की पेंगें
बढाते हुए प्रथक खालिस्तान का स्वर गुंजाते हैं, तो हैरत होती है | निहित स्वार्थ
में मुस्लिम आक्रान्ताओं के हाथों हुए गुरुओं के अमर बलिदान को भुलाना अपने पूज्य
पूर्वजों के प्रति विश्वासघात और कृतघ्नता की पराकाष्ठा है |
आखिर यह जहर कि सिख, हिन्दू
नहीं है, कैसे फैला ? किसने फैलाया ?
सिक्ख हिन्दू अलगाव का
बीजारोपण करने वाला और कोई नहीं एक अंग्रेज ही था, जिनकी फूट डालो और राज करो की
नीति का खामियाजा आज भी सामजिक विद्वेष के रूप में भारत के हर गाँव गली मोहल्ले
में अनुभव किया जा रहा है |
यह शख्स था 1882 में
पंजाब का डिप्टी कमिश्नर नियुक्त हुआ मैक्स आर्थर मेकलीफ़ । इसने अनुभव किया कि अगर
हिन्दू और सिक्खों को अलग नहीं किया गया तो पंजाब में अंग्रेजों की सत्ता सदैव
अस्थिर ही रहेगी | अतः इसने सबसे पहले तो एक सिक्ख काहन सिंह नाभा को अपना
विश्वस्त बनाया तथा उससे बड़े मनोयोग पूर्वक गुरुमुखी सीखी और फिर गुरू ग्रन्थ साहब
का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया |
पाठकों को यह जानकर हैरत
होगी कि सबसे पहले आरक्षण का जन्मदाता भी यही मेकलीफ़ ही था | इसने पंजाब मे आर्मी
की नौकरी में सिखों के लिए आरक्षण लागु कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप कोई भी राम
कुमार सरकारी नौकरी नही पा सकता था पर वही राम कुमार दाड़ी मूछ और पगडी रखकर राम
सिंह बनकर नौकरी पा सकता था।
इसका नतीजा ये हुआ कि इन
महाशय की योजनानुसार पंजाब मे सिख सख्या बढ़ती गई ----
1881 से 1891 के बीच 8.5% बढी।
1891 से 1901 के बीच 14% बढी।
1901 से 1911 के बीच 37% बढी।
1911 से 1921 के बीच 8% बढी।
योजना के अगले चरण में इन
महाशय ने 1889 मे अपने ट्यूटर काहन सिंह नाभा से एक पुस्तक लिखवाई - "हम
हिन्दू नहीं" । स्वाभाविक ही पुस्तक के प्रकाशन से लेकर वितरण की सभी
व्यवस्था के लिए आवश्यक फंड की व्यवस्था इन्हीं मैक्स आर्थर मेकलीफ़ साहब ने की | इसके
बाद 1909 मे खुद मेकलीफ़ ने भी एक पुस्तक लिखी - Sikh religion: Its Gurus, Sacred writings,and
authors ।
पुस्तक की भूमिका में
इन्होने यह रहस्य भी खोला कि ----
किस तरह इन्होंने खालसा
पूजा पद्धति आरम्भ की और सिखो के लिए आर्मी में अलग शपथ परम्परा की शुरुआत की ।
स्मरणीय है कि उस समय तक
गुरूद्वारों की व्यवस्था महंतो और साधुओं की देखरेख मे संचालित होती थी ।
गुरूद्वारो के लिए महंतो और हिन्दु पुरोहित की जगह खालसा सिखो की प्रबंधक कमेटी का
विचार भी इन्हीं का था।
इसके बाद 1920 के बाद
शुरू हुआ महंतो से गुरूद्वारो को छीनने का खूनी इतिहास, जिसका वर्णन न करना ही
उचित है ।
1925 मे सिख गुरूद्वारा बिल पारित हुआ और कानून बना कर गुरूद्वारो के
कब्जे खालसा सिखो को दिये गये तथा शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का गठन हुआ।
फिर एक मर्यादा बनाई गई जो तय करती है कि कौन सिख है और कौन नही। जिस का एकमात्र उद्देश्य
था सिखों को हिन्दुओं से अलग करना।
SGPC के तत्वावधान मे सिख इतिहास को नये सिरे से लिखा गया, जिसमें नए
हिन्दू ब्राह्मण खलनायक घड़े गए। पंजाबी मे पारसी भाषा के शब्दो का अधिकधिक प्रयोग
किया गया। गंगू बामन और स्वर्ण मंदिर की नीव मुसलमान के हाथो रखवाना जैसे
काल्पनिक प्रसंग भी प्रचारित किये गए, जिनका कोई प्रमाण इतिहास में उपलब्ध नही है
।
गुरू गोविंद सिंह जी की
वाणी दशम ग्रंथ मे चंडी दी वार और विचित्र नाटक को इसमे ब्राह्मणी मिलावट घोषित
किया गया। हकीकत राय, सति दास, मति दास, भाई दयाल आदि के बलिदानों को सिखों के बलिदान बताकर प्रचारित किया
गया, जबकि इनके वंशज तो आज की तारीख मे भी हिन्दू है। निर्मली अखाडा जिसे गुरू
गोविंद सिंह जी ने ही प्रारम्भ किया था, और जो संस्कृत एवं वेदांत के प्रचार
प्रसार को समर्पित है, उसे हिन्दू विरोध की खातिर SGPC ने सिख इतिहास से नकार
दिया। गुरू नानक के पुत्र थे श्रीचंद जोकि अपने समय कै महानतम और प्रसिद्ध योगी थे
जिनो ने उदासीन पंथ की स्थापना की थी।
गुरू राम राय जोकि गुरू हर
राय के बडे पुत्र थे ने जिनो देहरादून मे अपनी गद्दी स्थापित की। इनकी जगह इनके
छोटे भाईकृष्ण राय ने पिता की गद्दी सम्भाली और अगले सिख गुरू कहलाये। ये सभी
अखाडे आज भी महंतो द्वारा संचालित है। समाज सेवा मे है।
आनंद मैरिज एक्ट पास कर
सिखों के लिए अलग से विवाह पद्धति आरम्भ की गई ''आनंद कारज'' । अन्यथा
1920 से पहले तक तो हिन्दू पुरोहित ही सिख घरों में विवाह आदि वैदिक
संस्कार करवाने जाते थे।
तो संभवतः अब यह स्पष्ट हो
चुका होगा कि आज जो खालिस्तान के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं, उसकी नींव उस कुटिल
अंग्रेज मेक्स ऑर्थर मेकलीफ़ ने ही डाली थी ।
बब्बर खालसा उग्रवादियों के
हाथों लगभग पचास हजार निरपराध हिन्दुओं की हत्या होते देखकर क्या गुरू तेगबहादुर की
आत्मा ने चीत्कार नहीं की होगी ? जिन्होंने धर्म और ब्राह्मणों की रक्षा की खातिर
ही अपना बलिदान दिया था ।
खालिस्तानी वो लोग हैं जो
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब को झुठला रहे हैं । अपने ही दसवें गुरु के लिखे चण्डी दी
वार " चढ़ मैदान चण्डी महिषासुर नु मारे" को झुठलाते हैं। "देव शिवा
वर मोहे इहे" को झुठलाते हैं। लाखों खालिस्तानी है आज, इनका
पूरा गैंग सक्रिय है, कनाडा, ब्रिटैन जैसे देशों में तो इनका पूरा गैंग ही सक्रिय है, और
पाकिस्तान से इनकी बड़ी मित्रता है ये उन हिन्दुओ को गाली देते है, जो इनके भी
पूर्वज थे | स्वयं गुरू नानक भी जब पैदा हुए, तब हिन्दू ही थे और उनके पिताश्री का
नाम था कालू चंद, (कालू, कल्याण मेहता) था । और हद तो यह है कि इन खालिस्तानियों को औरंगजेब
और पाकिस्तान प्यारा है ।
आईये इस अलगाववादी मानसिकता
से बचे। एकता में ही शक्ति है। यह सन्देश स्मरण करे।
सामाजिक विद्वेष फैलाने हेतु
अग्रेजो द्वारा अपनाये गये षडयत्रं को जानने समझने की आवश्यकता है |
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