कर्नाटक विधानसभा चुनावों में खंडित जनादेश के निहितार्थ – सावधान मध्यप्रदेश !



जेडीएस नेता हरदनहल्ली दुंडेगौड़ा देवेगौड़ा जिस प्रकार 1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997 तक इस महान देश के प्रधान मंत्री बनने में सफल हुए थे, वह अपने आप में एक अजूबा था | आपातकाल के दौरान बेंगलौर सेन्ट्रल जेल में निरुद्ध रहे देवगौड़ा जनता पार्टी के गठन के बाद कर्नाटक जनता पार्टी के अध्यक्ष बने | वे 1994 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी रहे | 1996 में जब नरसिंहाराव के नेतृत्व में कांग्रेस की करारी हार हुई और कोई भी दल स्पष्ट बहुमत नहीं पा पाया, तब एक हैरत अंगेज घटना क्रम में गैर कांग्रेसी – गैर भाजपा वाद और आम सहमति के नाम पर देवेगौडा साहब भारत के प्रधान मंत्री भी बन बैठे, जबकि उनकी पार्टी के महज 37 सांसद ही थे | 

आज कर्नाटक में एक बार फिर वही नाटक चल रहा है | कहने को तो कर्नाटक में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, किन्तु बहुमत से आठ कम है । जेडीएस तीसरे स्थान पर और कांग्रेस दूसरे स्थान पर है। बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस, तीसरे नंबर की पार्टी के नेता, देवेगौडा के बेटे कुमार सामी को मुख्यमंत्री बनाने को सहमत हो गई है | लेकिन जिस प्रकार 96 में देवेगौडा महज 10 माह ही प्रधान मंत्री रह पाए, संभवतः यह साझे की हंडिया भी जल्द ही फूटना तय है | फिलहाल आज तो यह ही तय नहीं है कि कुमार सामी मुख्यमंत्री बन भी पायेंगे या नहीं, किन्तु बने भी तो कितने दिन रहेंगे यह देखने की बात है | 

आपातकाल से आज तक जनता दल एस कांग्रेस विरोधी ही रहा है | इस चुनाव में भी अपने चुनाव अभियान में पार्टी नेताओं ने सिद्धरमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को इतिहास की सबसे खराब सरकार ही निरूपित किया था | कांग्रेस और मुख्यतः सिद्धरमैया इन सब बातों को क्या कभी भूल पायेंगे ? फिलहाल तो एक बड़े शत्रु भाजपा का सामना करने के लिए सांप और छछूंदर साथ साथ बैठने को विवश हुए हैं | 

आईये अब सिद्धारामैया के पतन के क्या कारण हैं, उन पर एक नजर डालते हैं - 

अल्पसंख्यक तुष्टीकरण और भ्रष्टाचार के अतिरिक्त लोकप्रिय योजनाओं की शिगूफेवाजी से जनता तिक्त और त्रस्त हुई, क्योंकि नागरिकों के जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ । 

हिंदुओं को विभाजित करने की कांग्रेसी योजना पूरी तरह फ़ैल हुई, क्योंकि लिंगायत बहुल क्षेत्रों में भाजपा की जीत हुई | लिंगायत और वीरशैव दोनों ही चुनाव से ठीक पहले के घटना क्रम से खुश नहीं थे। 
सिद्धरमैया के शासनकाल में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण चरम पर पहुँच गया था | यहाँ तक कि पीएफआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ चल रहे दंगों और आगजनी के 166 मामले वापस लिए गए । हजारों हिन्दुओं की क्रूर ह्त्या करने वाले टीपू सुल्तान का पूरे पांच साल तक महिमा मंडन किया गया । 'टीपू जयंती' तो सरकार द्वारा प्रायोजित सालाना जलसा ही बन गया । और जले पर नमक छिड़कते हुए सिद्धरमैया टीपू को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में चित्रित कर इतिहास को अपने अनुसार फिर से लिखने का प्रयास करते रहे । टीपू जयंती समारोहों के दौरान कानून और व्यवस्था का बिगड़ना और कई हिंदू कार्यकर्ताओं का मारा जाना, लोगों के मन में कांग्रेस के प्रति गुस्सा भरता रहा, जिसका चुनाव में प्रगटीकरण हुआ । 

पिछले 5 वर्षों के दौरान जिहादी तत्वों द्वारा हिंदू कार्यकर्ताओं की नृशंस हत्याएं की गईं । इनमें से अधिकतर हत्याएं तटीय बेल्ट में हुईं, जिनमें आज भाजपा को भारी सफलता अर्जित हुई है । दक्षिणी कन्नड़, उत्तर कन्नड़ और उडुपी की 21 सीटों में से 17 सीटें भाजपा जीती हैं। यह सीधे सीधे कांग्रेस की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति के खिलाफ जनमत संग्रह है | जनता राहुल के मंदिर मंदिर जाने के नाटक से ज़रा भी प्रभावित नहीं हुई | 

सिद्धारामैया के कार्यकाल के दौरान बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्यायें कीं । पिछले 4 वर्षों में 3700 से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। कांग्रेस सरकार ने किसानों के नुकसान को कम करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार की योजनाओं को आगे बढ़ाने में रुचि नहीं दिखाई, यहाँ तक कि फसल बीमा योजना जैसी लाभकारी योजना की ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया । पड़ोसी राज्यों के साथ जल विवादों को हल करने के बजाय, मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट मंत्री बीजेपी पर राजनीतिक निशाना साधने में लगे रहे और न्यायालय में भी हारे, साथ ही जल संकट से जूझते क्षेत्रों में भी उनका सूपड़ा साफ़ हो गया । 

अपनी ऊटपटांग योजनाओं के वित्तीय प्रबंधन के लिए बड़ी तादाद में उधार लिया गया, जिसके कारण दीर्घकालिक बुनियादी ढांचा ही चरमरा गया | दूसरी ओर विकास परियोजनाओं में निवेश करने के लिए कुछ बचा ही नहीं । 

स्कूली बच्चों को भी जाति के आधार पर विभाजित किया गया । यहाँ तक कि स्कूल यात्राएं भी केवल कुछ समुदायों और अल्पसंख्यकों के लिए आयोजित की गई, जबकि अन्य समुदायों के छात्रों को छोड़ दिया गया । एससी / एसटी के लिए प्रोमोशनल आरक्षण की घोषणा अवश्य हुई, किन्तु अदालतों में पीछे हट गए। 

ग्रामीण और शहरी आवास के लिए चल रहीं केंद्रीय योजनाओं को उपेक्षित कर दिया गया और धन अप्रयुक्त ही रह गया। शेष देश बुनियादी ढांचे और भविष्य की परियोजनाओं के मामले में आगे बढ़ रहा था, जबकि कर्नाटक पीछे रह गया। बुनियादी ढांचे, पानी और अन्य सुविधाओं की कमी के कारण कई ऑटोमोटिव कंपनियों ने अन्य राज्यों की तरफ रुख कर लिया । 

कर्णाटक चुनाव के तीन सन्देश है -

1 कर्नाटक के लोगों ने कांग्रेस को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया और परिवर्तन के लिए मतदान किया । ये चुनाव एक प्रकार से कांग्रेस ब्रांड को लेकर जनमत संग्रह थे, जिसमें वे पूरी तरह असफल रहे । मतदाताओं का स्पष्ट निर्णय फूट डालो और राज करो की नीति के खिलाफ है | अब जनता सुशासन, स्वच्छ प्रशासन और दूरदर्शी नेतृत्व चाहती है। 

2 किन्तु भाजपा के लिए भी यह स्थिति विशेष चिंतनीय है, क्योंकि विगत लोकसभा चुनाव में कर्नाटक की कुल 28 सीटों में से भाजपा 17 सीटें हासिल करने में सफल रही थी | उस अनुपात में विचार करें तो भाजपा भले ही राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, किन्तु उसका ग्राफ कम ही हुआ है | ऐसे में जोड़तोड़ कर सरकार बना भी ली तो उससे देश में उसके प्रति कोई सद्भाव बढेगा, ऐसा तो कतई संभव नहीं है | पार्टी विथ डिफरेंस के नारों का खोखलापन जगजाहिर हो रहा है | और गर सरकार नहीं बन पाई तो और ज्यादा उपहास का पात्र बनना तय है | आदर्श स्थिति तो यह होती कि भाजपा गरिमा पूर्वक विपक्ष में बैठकर, अपने ही विरोधाभाष में इस बेमेल गठबंधन के टूटने का इन्तजार करती | 

3 इसी वर्ष के अंत में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव होने वाले हैं | कर्नाटक में सिद्धरमैया के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी की बात सभी स्वीकार रहे हैं, जिसके चलते कांग्रेस की फजीहत हुई | सवाल उठता है कि क्या उक्त तीन राज्यों में स्थापित नेत्रत्व विरोधी भावनाएं नहीं होंगी ? कर्नाटक में तो त्रिकोणीय संघर्ष था, किन्तु उक्त राक्यों में तो नेक टू नेक सीधी लड़ाई है | बसपा ने जिस प्रकार की रणनीति अख्तियार की है, उससे भी भाजपा को सतर्क हो जाना चाहिए | कहा जाता है कि कांग्रेस और जनता दल एस को मिलकर सरकार बनाने के लिए मायावती ने भी आग्रह किया था | इसी प्रकार मायावती मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगी ऐसी सुगबुगाहट आम है | 

लेकिन भाजपा के लिए सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है, उनके स्टार प्रचारक - राहुल गांधी | अगर इस नादान नेता ने ठीक चुनाव के मध्यकाल में स्वयं को प्रधान मंत्री पद का दावेदार घोषित न किया होता, तो शायद यह चुनाव सिद्धरमैया विरुद्ध येदियुरप्पा ही रहता | किन्तु स्वयं राहुल ने इसे नरेंद्र मोदी विरुद्ध राहुल गांधी बना दिया और चारों खाने चित्त हो गए |

साभार आधार ओर्गेनाइजर में प्रकाशित प्रशांत वैद्यराज का आलेख
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