आरएसएस पर राहुल गांधी के निरंतर हमलों का कारण ? - राकेश सिन्हा



आजकल राहुल गांधी के सर पर आरएसएस विरोध का जुनून चढ़ा हुआ है | संभवतः उनके राजनीतिक सलाहकारों का मानना है कि आरएसएस का विस्फोटक विरोध ही उन्हें चर्चित रखने का एकमेव तरीका है | क्योंकि बैसे तो कोई उन्हें प्रासंगिक मानता ही नहीं | यह भी स्पष्ट है कि आरएसएस की निंदा करने से उन्हें संतुष्टि मिलती है | आखिर क्यूं न हो ? भारतीय राजनीति में उनके राजवंश पर जब भी संकट के बादल घिरे हैं, तो उसके पीछे मुख्य कारण आरएसएस ही रहा । 

राहुल ही क्यों, राजनीति में अप्रासंगिक होने के बाद अनेक राजनेता पूर्व में भी इसी प्रकार आरएसएस कोसो अभियान चला चुके हैं । यदि कोई इतिहास पन्ने पलटे तो ज्ञात होगा कि 1979 में जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद समाजवादी राज नारायण को भी राहुल जैसा ही दिमागी बुखार चढ़ा था । इसे दर्शाने वाला एक दिलचस्प प्रकरण है – 

एक बार ये महाशय कानपुर के एक प्रतिष्ठित स्कूल में सभा को संबोधित कर रहे थे, कि तभी एक छात्र ने सूचना दी कि एक कारखाने में आग लग गई है, राज नारायण की प्रथम प्रतिक्रिया थी - 'इसमें अवश्य आरएसएस का हाथ है, यह मेरी सभा बिगाड़ने की साजिश है' | राज नारायण हों या मधु लिमये, समाजवादियों का मानना रहता था कि देश में जो भी बुरा होता है, उसका कारण केवल आरएसएस ही है । 

कुछ ऐसा ही हाल राहुल गांधी का भी है | यहाँ तक कि अब तो आम कांग्रेसी भी उनसे आजिज आने लगा है, क्योंकि वे उनके ऊटपटांग बयानों का ना तो समर्थन कर पा रहे और ना ही विरोध । इसका ताजातरीन उदाहरण है, राहुल द्वारा 23 मई को, तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले में हुई पुलिस गोलीबारी के लिए आरएसएस को दोषी ठहराया जाना, जिसमें वेदांत की स्टरलाइट तांबा इकाई के खिलाफ विरोध जताने वाले 13 नागरिकों की मौत हो गई थी । 

यह बयान उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है। राज्य में नातो बीजेपी की सरकार है, और न ही आरएसएस का राज्य पुलिस पर कोई नियंत्रण, यहाँ तक कि वेदांता से भी आरएसएस का दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं है । इसके विपरीत, 2011 से ही आरएसएस के सहयोगी संगठन - स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ - ओडिशा में वेदांता पर प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का आरोप लगाते हुए, उसकी परियोजनाओं का विरोध करते आ रहे हैं । 

राहुल का बयान न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि तमिल अलगाववाद का पोषण करने वाला और अत्याधिक उत्तेजक भी है | जरा उनके शब्दों पर गौर कीजिए – 

उन्होंने कहा, "तमिलों की हत्या की जा रही है क्योंकि वे आरएसएस के दर्शन को मानने से इनकार कर रहे हैं। आरएसएस और मोदी की गोलियां कभी भी तमिल लोगों की भावना को कुचल नहीं सकतीं। तमिल भाइयों और बहनों, हम आपके साथ हैं! " 

एक एक शब्द नफ़रत के जहर से भरा हुआ | शायद यह बचकाना नेता तमिलनाडु सरकार की आलोचना करने से बचना चाहता था, क्योंकि एआईएडीएमके में उन्हें कांग्रेस का संभावित सहयोगी नजर आ रहा था? 

इसके पूर्व 22 मई को भी राहुल ने एक सरासर झूठे ट्वीट द्वारा बेरोजगार युवाओं को भड़काने की कोशिश की और यूपीएससी के माध्यम से चुने गए बेरोजगार युवाओं को संबोधित करते हुए लिखा – 

विद्यार्थियों जागो, आपका भविष्य खतरे में है | आरएसएस चाहता है कि वह तय करे कि आपके लिए क्या सही है। नीचे दिया गया पत्र मोदी की उस योजना को दर्शाता है, जिसके बाद मेरिट सूची में हेरफेर कर, परीक्षा रैंकिंग के बजाय व्यक्तिपरक मानदंडों का उपयोग करके केंद्रीय सेवाओं में आरएसएस की पसंद के अधिकारियों को नियुक्त किया जा सके । # बाय बाय यूपीएससी (एसआईसी) " 

जानबूझकर राहुल इस बात को सिरे से गोल कर रहे हैं कि जब यूपीए सरकार सत्ता में थी, तो वह प्रशासनिक कौशल विकसित करने के लिए अमेरिका में सिविल सेवक भर्ती के लिए एक आधार पाठ्यक्रम की पक्षधर थी ! कितने आश्चर्य की बात है कि आधार पाठ्यक्रम उनके लिए भारत में अब अस्वीकार्य है! यहाँ ध्यान देने योग्य है कि एक कोचिंग संस्थान, “संकल्प”, पिछले तीन दशकों से, सिविल सेवा परीक्षा पर ध्यान केंद्रित करने वाले, सैकड़ों उम्मीदवारों को आकर्षित कर रहा है। जबकि यह संस्थान वाणिज्यिक नहीं है, बल्कि इस राष्ट्रवादी उद्यम को स्वयंसेवक द्वारा ही प्रबंधित किया जाता है। कांग्रेस और आरएसएस के बीच यही अंतर है कि राहुल आरएसएस को एक विचार मानते है, जबकि आरएसएस केवल भारत का विचार करता है। 

आरएसएस को लेकर राहुल का रुख न केवल भ्रामक है, बल्कि देश के लिए भी खतरनाक है। उन्होंने लगातार आरएसएस पर 'दलित विरोधी' होने का आरोप लगाया है, जबकि महात्मा गांधी द्वारा अनुसूचित जाति (अनुसूचित जनजाति) के कल्याण और सशक्तिकरण के लिए, 1932 में बनाए गए संगठन “हरिजन सेवा संघ” को कांग्रेस शासन के दौरान समाप्त किया गया था। कांग्रेस के सामंती रवैय्ये के कारण ही एससी के 70 प्रतिशत आज भी भूमिहीन हैं। 

भारतीय संवाद जगत की यही त्रासदी है कि यहां छद्म-धर्मनिरपेक्ष ताकतों और धरातल की वास्तविकताओं से अनजान का प्रभुत्व है। उनका मानना है कि आरएसएस सिर्फ सत्ता राजनीति का खिलाड़ी है । अपनी इसी मान्यता के कारण वे आरएसएस की वास्तविकता को जानबूझकर देखना समझना नहीं चाहते । जबकि सचाई यह है कि हाशिए पर पड़े लोगों को सशक्त बनाने के लिए आरएसएस की प्रेरणा से 1,70,000 परियोजनाएं देश में चल रही है। 

काश ये बौद्धिक बिचौलिये और समकालीन राजनेता, इन हजारों स्कूल, ब्लड बैंक और आई बैंक, कुष्ठ रोगियों के लिए केंद्र, केवल आदिवासी क्षेत्रों, दलित मुहल्लों और शहरी गरीब इलाकों का दौरा करके इन कार्यों को देखने का समय निकाल पायें । 

जहाँ तक राहुल गांधी का सवाल है, उनके आरएसएस विरोध में कोई हैरत की बात नहीं है। असल में, भारत के स्वतंत्र होने के तत्काल बाद से ही आरएसएस पर राजनैतिक प्रहार होते रहे हैं । जवाहरलाल नेहरू को जब भी कांग्रेस के भीतर समस्या का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने आरएसएस पर निशाना साधकर और उसे दुश्मन नंबर एक बताकर इसे पार कर लिया। उन्होंने आरएसएस पर "प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक और फासीवादी विचारधारा" रखने का आरोप लगाया और फिर इसे संगठन के अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग किया। उदाहरण के लिए, तत्कालीन निर्वाचित पार्टी अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन को पद छोड़ने के लिए इसी बहाने मजबूर किया गया । इंदिरा गांधी को भी आमजन की नाराजगी का सामना करना पड़ा, तो उसके पीछे आरएसएस द्वारा प्रारम्भ किया गया “आपातकाल विरोधी सत्याग्रह” अभियान ही था, जिसके कारण वे लोकतंत्र बहाली के लिए विवश हुईं । राजीव गांधी को बोफोर्स सौदे पर आंदोलन का सामना करना पड़ा और नाराजगी का ठीकरा आरएसएस पर फूटा जो उनके लिए स्वाभाविक था। राहुल गांधी भी अपने पूर्वजों के नक़्शे कदम पर चल रहे हैं । उनके आरएसएस विरोध में न तो कोई धार है, न द्रष्टि और ना ही कोई संगठन कौशल । 

लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक, इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के मानद निदेशक हैं।
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