वर्तमान सरकार से परेशान चर्च – आखिर क्यों? – न्यू इन्डियन एक्सप्रेस में प्रकाशित श्री बलबीर पुंज के आलेख का अनुवाद !



पिछले दिनों दो प्रमुख बिशपों ने कहा कि संविधान खतरे में है। दूसरों पर उंगली उठाने के पहले चर्च को आत्मचिंतन करना चाहिए ! 

हाल ही में एक के बाद एक, दो ईसाई पादरियों द्वारा दिए गए बयान, अखबारों की सुर्खियाँ में छाए रहे । शुरूआत गोवा के विशप ने की, तो दिल्ली के विशप ने भी उनके सुर में सुर मिलाया | दोनों बयानों का लुब्बेलुआब था - संविधान गंभीर खतरे में है, बहुलवादी परम्परा खतरे में हैं और अल्पसंख्यक (विशेष रूप से ईसाई), आदिवासी और दलितों को सताया जा रहा है। 

दोनों बिशप के बयानों में हालाँकि किसी के नाम का संदर्भ नहीं हैं, लेकिन उनका लक्ष्य कौन है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो दोनों पत्र वास्तव में 2019 के आम चुनावों में भाजपा और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को पराजित करने के लिए अपने समर्थकों और अनुयाईयों को सक्रिय करने का प्रयत्न हैं। 

दोनों पत्रों में लोकतंत्र, बहुलवाद, बौद्धिक और धार्मिक स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और मानवाधिकार जैसे शब्दों की भरमार हैं। इन मुद्दों पर अगर हम चर्च के रिकॉर्ड को खंगालेगे तो पायेंगे कि न केवल भारत में बल्कि दुनिया के अलग अलग हिस्सों में उनका कार्य व्यवहार इससे सर्वथा भिन्न रहा है | इन शब्दों का प्रयोग महज पाखंड और छल के अतिरिक्त कुछ नहीं है । 

1989 और 1991 के बीच की अवधि में कश्मीर घाटी में व्यापक रूप से कश्मीरी पंडितों की हत्या और उत्पीड़न हुआ । इस्लामिक उन्माद से लवरेज और पाकिस्तान प्रेरित (हथियारों और प्रशिक्षण के मामले में) स्थानीय मुसलमानों ने पंडित महिलाओं से बलात्कार किया और दर्जनों मंदिरों को ध्वस्त कर दिया। यह एक व्यक्ति के खिलाफ हिंसा का मामला नहीं था, जैसे कि मोहम्मद अखलाक (दादरी 2015)। 

आत्म सम्मान, जीवन और संपत्ति के भारी नुकसान के बाद एक पूरे समुदाय को अपने पूर्वजों की भूमि से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। फरवरी 2002 में गोधरा में 59 कारसेवक जिन्दा जला दिए गए । क्या इन सभी त्रासदियों ने चर्च की चेतना को स्पर्श किया ? क्या कभी इसका विरोध हुआ? यहां तक ​​कि 13 अप्रैल 1919 को हुए जालियावाला बाग नरसंहार और बाद में पंजाब में भारतीयों पर पुलिस की बर्बरता ने भी चर्च की संवेदना को नहीं जगाया । इन गंभीर घटनाओं पर कोई भी प्रतिक्रिया उनकी ओर से नहीं आई । इसके विपरीत भारत के मिशनरियों ने पंजाब में हुई ब्रिटिश सैन्य कार्रवाई को उचित ही ठहराया! 

वर्तमान संविधान आने से बहुत पहले, हिंदू भारत के साथ ईसाई धर्म की पहली मुलाक़ात हुई थी। चौथी शताब्दी में जब ईरान का पुराना विरोधी रोमन साम्राज्य, एक ईसाई राज्य बन गया, तब ईरान में ईसाईयों को संदेह की नजर से देखा जाने लगा और उन्हें अपनी मातृभूमि छोड़कर भागना पड़ा | उन लोगों ने मलाबार तट पर शरण मांगी। 

बाद में, सीरिया और आर्मेनिया के शरणार्थी भी उनके साथ आ जुड़े, जो ईसाई पाखंड के ही शिकार होने से बचने के लिए वहां पहुंचे । किसी हिंदू, राजा या सेनापति को इस बात से कोई आपत्ति नहीं हुई, कि शरणार्थियों की आस्था क्या है, या वे किस भगवान की पूजा करते हैं । इन शरणार्थियों को सीरियाई ईसाई के रूप में जाना जाने लगा। 

अब हिंदू-ईसाई रिश्ते में "असहिष्णुता" कहाँ से आ गई? जबकि इसके विपरीत पुर्तगाली शासन के दौरान, 1542 में, सेंट फ्रांसिस जेवियर ने गोवा में कदम रखे और स्थानीय विधर्मियों को सबक सिखाने पर कमर कसी | 'मूर्तिपूजा’ के खिलाफ तो मानो युद्ध ही छेड़ दिया गया । उस दौरान व्यापक पैमाने पर गैर-ईसाईयों का धर्मांतरण और उत्पीड़न ही आदर्श बन गया था । (अब भारत में स्थान स्थान पर सेंट फ्रांसिस जेवियर के नाम पर बने हुए मिशनरी स्कूल और चर्च कौनसी सहिष्णुता की याद दिलाते हैं ?) 

केरल में बसे सीरियाई ईसाई भी कैथोलिक चर्च के मिशनरी उन्माद से बच नहीं पाए। डॉ बी आर अम्बेडकर के मुताबिक, "गोवा वालों के अनुसार सीरियाई ईसाई एकदम बकबास और भेड़ की खाल में भेड़िये जैसे थे, और इसलिए सीरियाई चर्चों पर पोप के प्रतिनिधियों ने कब्जा जमा लिया ।" (इसे इटालिसिस कहा गया) 

इसके बाद डॉन एलेक्सिस डी मेनेजेस को गोवा का आर्कबिशप नियुक्त किया गया। डॉ अम्बेडकर के शब्दों में, "उनका मिशन नए ईसाई बनाना कम, पुराने ईसाईयों को अपने अधीन करना ज्यादा था, और वे अतिरिक्त उत्साह से अपने काम में जुट गए, ताकि रोम के प्रियपात्र बन जाएँ ।" 

यह वह युग था जब नए नए उभरे प्रोटेस्टेंट विश्वास (ईसाई धर्म का एक संप्रदाय) और वेटिकन यूरोप के बीच युद्ध छिड़ा हुआ था । दोनों प्रतिद्वंद्वी चर्च, एक दूसरे को निर्दयता पूर्वक ठिकाने लगाने के धर्मकार्य में सिद्दत से जुटे हुए थे । आस्था के इस आतंरिक संघर्ष की आग ने अनगिनत निर्दोष ईसाईयों को ख़ाक में मिला दिया, अनेकों जिंदा जला दिए गए अकथनीय अत्याचार हुआ । हैरत की बात यह कि अत्याचारी और पीड़ित दोनों एक ही सम्प्रदाय और आस्था वाले लोग थे । 

यह सब बहशीपन हुआ ईश्वर के नाम पर और थोडा बहुत नहीं, कई शताब्दियों तक जारी रहा । कैथोलिक चर्च इसी “गर्वोन्मत्त” विरासत का उत्तराधिकारी है और कैसा मजाक है कि वही आज 'सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता' जैसे महान मूल्यों की बात कर रहा । भारत धर्मनिरपेक्ष इसलिए नहीं है कि संविधान में इसका उल्लेख है, बल्कि संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द भारत की हजारों वर्ष पुरानी बहुलवादी हिंदू परंपराओं की वजह से है । 

अब पुराने सवाल पर आते है कि आखिर चर्च मोदी शासन से परेशान क्यों है? इसका एकमेव कारण है, अवैध धर्मांतरण का अब और अधिक कठिन हो जाना । विभिन्न नकली चेहरों में छुपे अनगिनत गैर सरकारी संगठन, चर्च के वेतन भोगी सिपाहियों के रूप में काम करते रहे हैं। विदेशी मुल्लाओं और उनके बीच वर्षों पुराना अपवित्र गठबंधन है। 

विदेश से अवैध धन का प्रवाह - कई संदिग्ध गैर सरकारी संगठनों की जीवन दायिनी शक्ति रहा है – जिसे अब रोक दिया गया है। 2015-16 में गैर सरकारी संगठनों के विदेशी वित्त पोषण को 17,773 करोड़ रुपये से घटाकर 2016-17 में 6,499 करोड़ रुपये कर दिया गया है। 

पिछले दिनों फोर्हन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए) के अंतर्गत पंजीकृत 18,868 गैर सरकारी संगठनों के पंजीकरण को भी नियमों के उल्लंघन के आधार पर रद्द कर दिया गया है। और स्वाभाविक ही इससे चर्च की धर्मांतरण की योजनाओं को गहरा धक्का लगा है और वे घबरा रहे हैं। अब मोदी चर्च को क्यों पसंद आने लगे ? स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी तक, अनेक प्रतिष्ठित भारतीयों की एक लंबी श्रृंखला ने चर्च के हिंसक चरित्र के प्रति अपनी नापसंदगी खुलकर व्यक्त की है। 

1956 में मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार द्वारा प्रकाशित नियोगी समिति की रिपोर्ट में चर्च के कई कारनामे सामने आए। बाद के वर्षों में चर्च ने अपनी रणनीति में आवश्यक बदलाव किए हैं। लेकिन इसके उद्देश्य और तकनीक आज भी वही हैं। इसका अर्थ यह है कि दूसरों से भलमनसाहत की आशा करने वाले चर्च का दूसरों के प्रति आदर्श व्यवहार से कभी भी दूर दूर का नाता नहीं रहा । 

लेखक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के जाने माने समीक्षक और पूर्व राज्यसभा सदस्य हैं । 

सौजन्य: न्यू इंडियन एक्सप्रेस
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें