भारतीय महानायकों को उपेक्षित करने वाले मिथ्या इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता - अमूल्य गुप्ता



आज हमारी भावी पीढी बामपंथी इतिहासकारों द्वारा लिखे गए उस इतिहास को पढ़ने के लिए विवश है, जिसमें हमारी अति प्राचीन सभ्यता और सांस्कृतिक मानदंडों की सराहना करने से बचते हुए भारतीय महानायकों की पूरी तरह उपेक्षा की गई है । अब समय आ गया है, जब भारत के इतिहास का वस्तुपरक पुनर्लेखन किया जाए | बिना किसी पूर्वाग्रह के इतिहास को निष्पक्ष तरीके से लिखा जाना चाहिए | 

यह कितनी विचित्र स्थिति है कि मार्क्सवादी और औपनिवेशिक इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण इतिहास लेखन ने श्री राम जैसे प्रतिष्ठित राजाओं के वंशज, विशाल ज्ञान के स्रोत वेदों - पुराणों जैसे साहित्य, मौर्य- गुप्त- विजयनगर- चोल और पांड्या जैसे योद्धाओं तथा शक्तिशाली साम्राज्यों के उद्भव को कहीं उल्लेख योग्य भी नहीं समझा । चन्द्रगुप्त मौर्य, महाराणा प्रताप, शिवाजी, मार्तण्ड वर्मा, आदि प्रबल पराक्रमी महानायक, जो विश्व इतिहास के भी अभिन्न अंग होने योग्य हैं, उनको भारत की पाठ्यपुस्तकों में कोई स्थान नहीं है । 

हमारे इतिहासकार विजयनगर जैसे साम्राज्यों और महाराणा प्रताप जैसे योद्धाओं के साथ न्याय करने में नाकाम रहे हैं | भारतीय इतिहास के अपंग लेखन ने असली नायकों को विस्मृत ही कर दिया हैं। 

औपनिवेशिक द्रष्टिकोण से प्रचारित मिथक 

ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिए हर संभव साजिश रची और इसी दृष्टि से भारतीय संस्कृति, सभ्यता और इतिहास पर भी आक्रमण किए। उन्होंने व्यवस्थित रूप से ऐसी शिक्षा प्रणाली तैयार की, जो भारत को एक निम्नस्तरीय देश के रूप में दर्शाये, एक ऐसा देश जिसका न कोई समृद्ध अतीत है और न कोई सभ्यता । इसी दृष्टिकोण से आर्य आक्रमण सिद्धांत प्रतिपादित किया गया और हड़प्पा के लोगों को यहाँ का मूल निवासी दर्शाकर विदेशी आर्यों द्वारा उनपर विजय की कहानी रची गई । इस सिद्धांत को जानबूझकर उत्तर और दक्षिण भारत, उच्च और निम्न जाति के बीच विभाजन का हथियार बनाया गया । जबकि भारतीय वांग्मय में आर्य शब्द प्रजाति या वंश सूचक न होकर 'महान' के रूप में प्रयुक्त हुआ है । आधिकारिक माने जाने वाले प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ, अमरकोष के अनुसार – “महाकुला कुलीन आर्य सभ्य सज्जन साधवः” अर्थात जिसने महान कुल में जन्म लिया है, जिसका व्यवहार सौम्य है, जो अच्छी प्रकृति का है और जिसका आचरण धार्मिक है, वह आर्य है । 

ऋग्वेद में भी 'आर्य' शब्द का उपयोग छत्तीस बार लगभग इसी प्रकार हुआ है, किन्तु कहीं भी इसका अर्थ प्रजाति नहीं निकलता । प्रजा आर्य ज्योतिराग्रह- आर्य प्रजा प्रकाश की आग्रही है (ऋग्वेद, VII 33.17)। वेदों में कहीं भी हरप्पा जैसी किसी शक्तिशाली सभ्यता पर हुए किसी भी आक्रमण या पराजय का वर्णन नहीं मिलता । साथ ही कहीं भी यह उल्लेख भी नहीं मिलता कि आर्य कहीं बाहर से आये थे । भौगोलिक और पुरातात्विक प्रमाणों ने भी इस सिद्धांत को झूठ मान लिया है । स्वामी विवेकानंद जैसे अधिकांश विद्वानों और प्रबुद्ध व्यक्तित्वों द्वारा भी इसे पूर्णतः अमान्य किया है, किन्तु दुर्भाग्यवश आज भी हमारी पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से यही झूठ विद्यार्थियों को लगातार पढ़ाया जा रहा है । 

औपनिवेशिक नजरिया था कि धार्मिक आधार पर भारत को विभाजित रखा जाये, इसलिए इसी दृष्टि से भारतीय इतिहास को भी विभाजन को बढाने के उद्देश्य से निर्माण किया गया। पूरे मध्ययुगीन भारत को मुस्लिम काल निरूपित किया गया । विजयनगर जैसे हिंदू साम्राज्यों को नजरअंदाज कर दिया गया और लोदी जैसे राजवंशों को प्रमुखता दी गई । महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे भारतीय नायकों की तुलना में अकबर और औरंगजेब पर बड़े बड़े पाठ लिखे गए । दुर्भाग्यवश, यही प्रवृत्ति स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जारी रही। 

मार्क्सवादी प्रपंच 

भारतीय इतिहास के इस छल प्रपंच के पीछे मूलतः भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकार जिम्मेदार हैं। उन्होंने मानवता, मानव जाति और विज्ञान के लिए किये गए भारत और हिंदू धर्म के योगदान को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने केवल जाति व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए भारतीय इतिहास में कपोल कल्पित प्रसंग जोडकर गौरवशाली भारतीय सभ्यता पर सीधे हमले किये । उनके लेखन में केवल उन युद्धों को प्रमुखता दी गई है, जिनमें भारतीय पक्ष को पराजय का सामना करना पड़ा। उन्होंने आक्रमणकारियों और आक्रमणों को महिमा मंडित किया, जबकि भारतीयों द्वारा शताब्दियों तक किये गए प्रतिरोध की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया । इसके सबसे प्रमुख उदाहरण है, मोहम्मद बिन कासिम द्वारा सिंध पर हमला, गजनी के सुलतान महमूद और मुहम्मद गौरी के आक्रमण और उनका विवश होकर वापस जाना, 300 साल की इस पूरी अवधि को अनदेखा किया गया । क्यूं? यह भारतीय छात्रों को सिखाए जा रहे इतिहास की विश्वसनीयता पर एक गंभीर सवाल है। 

ललितादित्य की जुनैद में हुई लड़ाई में हार हुई, इसी प्रकार बप्पा रावल को भी लगातार पराजय मिली, किन्तु इन लोगों के सतत संघर्ष के परिणाम स्वरुप तीन सौ वर्षों तक अरब साम्राज्य, घुटनों के बल रेंगने पर विवश रहा । भारतीय शासकों ने शक्तिशाली अरबों को 300 वर्षों तक सिंध से आगे नहीं बढ़ने दिया और उन्हें भारत के अन्य हिस्सों पर कब्ज़ा करने से रोके रखा । यह महत्वपूर्ण अवधि हमारे इतिहास से पूरी तरह गायब है। इसके अलावा, मार्क्सवादियों ने भारत के महान संतों पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिन्होंने अपने पवित्र ग्रंथों, विचारों और आविष्कारों के द्वारा सारी दुनिया को प्रबुद्ध किया। 

दिल्ली का पक्षपातपूर्ण इतिहास 

भारतीय इतिहासकारों का लेखन इस प्रकार है, मानो केवल दिल्ली ही समूचा भारत हो | इसीलिए लोदी जैसा सामान्य राजवंश भारतीय पाठ्य पुस्तकों में जगह बनाए हुए है | जबकि बंगाल और उड़ीसा की समुद्रीय परम्पराएं, चोल और पांडवों के सम्बन्ध, दक्षिण के महान और शक्तिशाली मराठा साम्राज्य को समय के पन्नों पर विस्मृति के गर्त में दफना दिया गया है। यहाँ तक कि हम इस तथ्य को भी भूल गए हैं कि अंग्रेजों ने भारत को मुगलों से नहीं, बल्कि मराठों से कब्जे में लिया था । उस तथाकथित मुगल दौर में भी विजयनगर साम्राज्य अपनी बुलंदी पर था, समृद्ध और उन्नत था | लेकिन इस तथ्य को भारतीय इतिहास से लगभग मिटा ही दिया गया है। 

आज अगर किसी छात्र के सम्मुख मार्तण्ड वर्मा जैसे राजाओं का नाम लिया जाये, तो वे हैरत में पड़ जाते हैं, कि यह कौन है । जबकि मार्तण्ड वर्मा वे महान शासक थे, जिन्हें त्रावणकोर साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है, किन्तु भारतीय पाठ्यपुस्तकों में भूल से भी इनका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। पाठक महानुभाव मित्रो, सच बताना कि क्या आपको भी यह तथ्य ज्ञात है कि 18 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सबसे शक्तिशाली मानी जाने वाली, डच ईस्ट इंडिया कंपनी को भी त्रावणकौर नरेश महाराजा मार्तण्ड वर्मा के हाथों निर्णायक पराजय का सामना करना पड़ा था । प्राचीन भारतीय शौर्य और इतिहास अविस्मरणीय है, किन्तु भारतीय इतिहासकारों ने उसे एक विचित्र दुखांत कहानी बना दिया है। यही कारण है की आधुनिक भारतीय पीढी अपने इतिहास, सभ्यता और सांस्कृतिक आचार विचारों में कुछ भी सराहना योग्य नहीं मानती । शायद यही बामपंथी इतिहासकारों का मूल उद्देश्य भी था, आत्म गौरव विहीन, आत्म विश्वास रहित और स्वाभिमान शून्य भारतीय समाज की रचना ! किन्तु क्या अब भी हम गाफिल रहेंगे ? पप्पू ही बने रहेंगे, कभी परिपक्व नहीं होंगे । 

(लेखक इतिहास के शोधकर्ता हैं) साभार : ओर्गेनाईजर
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