भारतवर्ष का इतिहास - रविंद्रनाथ टैगोर (भाग -1)

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हम परीक्षाओं के लिए भारत के जिस इतिहास को पढ़ते और याद करते हैं, वस्तुतः वह तो भारत के लिए एक दुःस्वप्न जैसा है। कुछ लोग कहीं से आते ह...


हम परीक्षाओं के लिए भारत के जिस इतिहास को पढ़ते और याद करते हैं, वस्तुतः वह तो भारत के लिए एक दुःस्वप्न जैसा है। कुछ लोग कहीं से आते हैं और नारकीय दृश्य उपस्थित हो जाता है। और फिर तो मानो सबको खुली छूट मिल जाती: आक्रमण और प्रत्याक्रमण, हिंसा और रक्तपात का मंजर दिल दहलाता है । सिंहासन के लिए पिता और पुत्र, भाई - भाई एक-दूसरे के साथ झगड़ते दिखाई देते हैं। यदि एक समूह रुकने का प्रयास करता है, तो दूसरा समूह मानो नीले आसमान से टपक पड़ता है; पठान और मुगल, पुर्तगाली और फ्रेंच और अंग्रेजों ने एक साथ इस दुःस्वप्न को और अधिक भयावह बना दिया ।

लेकिन इस खूनी स्वप्न लोक में वास्तविक भारतवर्ष की चमक नहीं दिख सकती। यह इतिहास इस सवाल का जवाब भी नहीं देता कि उस दौर में भारत के लोग कहां थे? मानो भारत के लोग तो अस्तित्वशून्य ही हों, केवल दबे कुचले दीन-हीन और मारे गए लोग ही उल्लेखनीय हों ।

रक्तपात और नरसंहार के उस सर्वाधिक पीड़ादायक समय में भी भारत में अनेक महत्वपूर्ण चीजें थीं। आंधी-तूफ़ान के दिन भी, उसके भीषण गर्जन के बावजूद, केवल तूफान को ही सबसे महत्वपूर्ण घटना के रूप में नहीं माना जा सकता । आसमान में उमड़ते धूल के गुबार के बीच भी जीवन और मृत्यु का प्रवाह जारी रहता है, अनगिनत गांवों के घरों में खुशी और दुःख का प्रवाह भी चलता रहता है । लेकिन एक विदेशी यात्री को यह सब नहीं दिखा सकता, उसके लिए तो तूफान ही सबसे महत्वपूर्ण बात है; वह समझता है कि इस धूल के बादल ने सब कुछ भस्म कर दिया। क्योंकि वह घर के अंदर नहीं है, वह बाहर है। यही कारण है कि विदेशियों द्वारा वर्णित इतिहास में हमें धुल धूसरित तूफानों का वर्णन मिलता हैं, लेकिन हमें घरों के बारे में एक शब्द भी नहीं मिलता । उनके लिखे इतिहास को पढ़कर तो ऐसा महसूस होता है कि मानो उस समय भारतवर्ष अस्तित्व में ही नहीं था; जैसे कि पठानों और मुगलों की विजय पताका उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक फहरा रही थी ।

हालांकि, यह देवभूमि भी मौजूद थी, और देश व स्वदेशी का भाव भी विद्यमान था। अन्यथा, इतनी अशांति के बीच भी, कबीर, नानक, चैतन्य और तुकाराम कहाँ से आते? ऐसा नहीं था कि केवल दिल्ली और आगरा ही सबकुछ हों, भारत में काशी और नवदीप भी थे। वास्तविक भारत में तब भी जीवन की तरंग बह रही थी, आगे बढ़ने के प्रयास और सामाजिक परिवर्तनों की लहरें भी उठ रही थीं - इनमें से किसी का भी उल्लेख हमारे इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में ढूंढें से नहीं मिलता ।

लेकिन हमारा वास्तविक संबंध तो उस भारतवर्ष के साथ हैं जो हमारी पाठ्यपुस्तकों के बाहर हैं। यदि इस सम्बन्ध का इतिहास हम लम्बे समय तक भूले रहे तो हमारी आत्मा की स्थिति बैसी ही हो जायेगी, जैसे सागर में बिना पतवार का जहाज । आखिरकार, हम भारतवासी कोई खरपतवार या परजीवी पौधे नहीं हैं। कई सैकड़ों वर्षों से यही हमारा मूल है, इनमें से सैकड़ों और हजारों ने भारतवर्ष के दिल पर कब्जा कर लिया है। लेकिन, दुर्भाग्य से, हम वह इतिहास पढ़ने और सीखने को बाध्य हैं, जो हमारे बच्चों को यह तथ्य विस्मृत कराता है। ऐसा लगता है जैसे भारत में हम कुछ नहीं हैं; जैसे कि भारत में केवल बाहर से आए लोग ही मायने रखते हैं।

जब हम सीखते हैं कि हमारे देश के साथ हमारा सम्बन्ध इतना महत्वहीन है तो हमारे जीवन का उद्देश्य ही क्या है? यही कारण है कि हमें अपना स्वयं का देश छोडकर दूसरों के देशों में बसने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती । हमें भारतवर्ष के अपमान पर नातो कोई क्रोध आता और नाही कोई शर्म महसूस होती । हम आसानी से यह कह देते हैं कि हमारे अतीत में गौरव करने लायक कुछ नहीं था और इसीलिए आज हम भोजन और कपड़ों से लेकर व्यवहारिक शिक्षा तक के लिए विदेशियों के रहमोकरम पर हैं ।

भाग्यशाली देशों को अपने इतिहास में अपनी भूमि की अनन्त छवि मिलती है। यह इतिहास है जो बचपन में हमें अपने देश से परिचित कराता है । लेकिन हमारे यहाँ इससे विपरीत होता है: हमारे देश का इतिहास, हमें हमारी भूमि से ही विलग करता है। महमूद के आक्रमण से लेकर लार्ड कर्ज़न की घमंडी शाही घोषणा तक का सारा इतिहास, भारतवर्ष पर केवल अजीब धुंध घनीभूत करता है । इतिहास के ये पाठ हमारी मातृभूमि के प्रति हमारी दृष्टि को स्पष्टता नहीं देते । वास्तव में, ये केवल शंकाओं के बादल फैलाने का काम करते हैं । ये पाठ उन अँधेरे स्थानों पर कृत्रिम प्रकाश का पुंज फेंकते हैं, जिनसे हमारी आंखों में हमारे ही देश की छवि धुंधली होती है। उस अंधेरे में हम देखते हैं, रोशनी से सराबोर नवाब का रंगमहल, उसमें नाचती नृत्यांगना के हीरे जडित गहनों की जगमगाहट, शराब के ग्लास से उठते बेंगनी झाग और नशे में मदहोश बादशाह की लाल आँखें । उस अंधेरे में हमारे प्राचीन मंदिरों के गुम्बज डूब जाते हैं और भव्य शिल्प कौशल से सज्जित, सफेद संगमरमर से बनी सुल्तानों की प्रेमिकाओं की कब्रों के शिखर, सितारों की दुनिया को चूमते दिखाई देते हैं। 

घोड़ों की टापों की आवाजें, हाथियों की चिंघाड़, हथियारों की झनझनाहट, लहरदार धूसर सैन्यशिविरों की विशाल व्यूह रचना, सुनहरी किरणों से चमकते मखमली परदे, झाग के बुलबुलों के आकार के मस्जिद के गुंबद, न जाने कितने भयानक रहस्यों को अपने में समाये - शाही महलों के आंतरिक कक्ष, उन पर सतर्क निगाह रखने वाले नपुंसक रक्षक - इन सभी अजीब आवाज़ों, रंगों और भावनाओं के पंखों पर सवार अंधेरे की वह विशाल जादुई दुनिया । आखिर इसे भारतवर्ष का इतिहास कहे जाने का औचित्य क्या? इन लोगों ने शाश्वत और मंगलकारी प्राचीन भारतीय पाठ को अरेबियन-नाईट के रोमांस से ढक दिया है । कोई भी किताब उठाकर देख लो, हमारे बच्चे उन अरेबियन-नाईट- रोमांस की हर पंक्ति को याद करने के लिए विवश हैं। और बाद में, जब मुगल साम्राज्य मर रहा था, तब इसके विघटन की पूर्व संध्या पर, जैसे इसने धोखेबाजी, विश्वासघात और हत्या की शुरुआत की थी, ठीक बैसे ही मानो दूर से आने वाले गिद्धों के समूह श्मशान पर उतरे। 

लेख की अगली कड़ी में अंग्रेज आगमन के बाद का विषद वर्णन 

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भारतवर्ष का इतिहास - रविंद्रनाथ टैगोर (भाग -1)
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