भारतीय प्रजातंत्र बनाम चंद लोगों की तानाशाही !



भारत में, मतदाता उन उम्मीदवारों को वोट देते हैं जो पार्टी टिकट पर चुनाव लड़ते हैं | हाँ कुछ निर्दलीय भी मैदान में होते हैं, किन्तु वे अमूमन जीतने के लिए कम, जीतने न देने के लिए ज्यादा लड़ते हैं, अतः स्वाभाविक ही जीतते भी बहुत कम हैं । तो आज की चर्चा का विषय है – राजनैतिक दलों का आतंरिक लोकतंत्र | 

हम बड़े गर्व से अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते नहीं थकते ! किन्तु यह कैसा विरोधाभाष है कि हमने अभी तक ऐसी कोई प्रणाली ही विकसित नहीं की, कि राजनैतिक दलों में टिकिट किस आधार पर आवंटित होना चाहिए । टिकिट तो बाद की बात है, किसी राजनैतिक दल का अध्यक्ष कौन बनेगा, पार्टी पदाधिकारी कौन बनेगा, इसका भी कोई प्रजातांत्रिक तंत्र नहीं है हमारे यहाँ | संक्षेप में, राजनीतिक दलों की आंतरिक संरचना में और संगठन में लोकतंत्र है ही नहीं । हद तो यह है कि चुने जाने के बाद भी सांसद या विधायक अपने मतदाता - जनता के प्रति नहीं, अपने संगठन के प्रति जबाबदेह होते हैं | दसवीं अनुसूची का चाबुक उन्हें विवश करता है कि वे सदन में मतदान करते समय पार्टी व्हिप के अनुसार ही मतदान करें, अन्यथा उन्हें सदन की सदस्यता से अयोग्य करार दिया जाएगा । वाह रे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र ! 

चुनावों के दौरान, हमारे मतदाता भी व्यक्ति को उसकी क्षमताओं के आधार पर नहीं चुनते, वे राजनीतिक पार्टी को देखकर मतदान करते हैं | इसलिए कहा जाता है कि जब किसी पार्टी के पक्ष में माहौल होता है तो उसकी आंधी में बिजली का खम्बा भी जीत जाता है, एक अक्षम उम्मीदवार पांच वर्ष के लिए गले पड़ जाता है । क्या कोई ऐसी प्रणाली नहीं होना चाहिए कि राजनीतिक पार्टी, कौन से उम्मीदवार को टिकिट दे, इसका निर्णय कुछ लोग या एक व्यक्ति करे, उसके स्थान पर उस पार्टी के सदस्यगण करें ? अभी जो एक परिवार की पार्टियां देश में दिखाई दे रही हैं, या पार्टी पदाधिकारियों पर पैसे लेकर टिकिट देने के जो आरोप लगते रहते हैं, उसके मूल में यही खामी है । 

एक और महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिस पर आजकल कोई चर्चा ही नहीं करता और वह है चुनावों में धन बल का अत्याधिक प्रभाव | आज के राजनैतिक दलों के पास तो अकूत पैसा होता ही है, वे प्रत्यासी भी उसे ही बनाते हैं, जो धनबल और बाहुबल से चुनाव परिणामों को अपने पक्ष में करने का महारथी हो | वास्तविक जनसेवी तो आमतौर पर निर्धन ही होते हैं, और उनके लिए वर्तमान प्रजातांत्रिक व्यवस्था में कोई जगह ही नहीं है | कितने हैरत की बात है कि – 

देश में नीति गौण ओ तंत्र प्रबल है, 
इसीलिये राजनीति में राजतंत्र सबल है !! 

दासताकाल में जो थे राजा ओहदेदार, 
अंग्रेजों के दुमहिलैया मनसबदार ! 
जिन्हें इंदिराजी ने बताई थी औकात, 
छीनकर विशेषाधिकार प्रिवीपर्स की सौगात !! 

आज भी उनमे से बहुत से फिर दिखते ऐंठे, 
वे, उनके बेटे, फिर पोते पडपोते तन बैठे ! 

यह राजतंत्र है, वंशतंत्र या स्वस्थ प्रजातंत्र ? 
ढूंढो ढूंढो स्थिति परिवर्तन का कोई मन्त्र !

आखिर वह समय कब आयेगा, जब मतदाताओं की अपनी पसंद का सम्मान किया जायेगा ? अभी तो भेड़िया धसान चल रहा है, जिसकी लाठी उसकी भेंस !



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