अंग्रेजों के विरुद्ध ग्वालियर के अंतिम संघर्ष में महारानी लक्ष्मीबाई की पीठ पर बंधे उनके दत्तक पुत्र का अक्श निश्चय ही आपके जहन में ...
अंग्रेजों के विरुद्ध ग्वालियर के अंतिम संघर्ष में महारानी लक्ष्मीबाई की पीठ पर बंधे उनके दत्तक पुत्र का अक्श निश्चय ही आपके जहन में सुरक्षित होगा | लेकिन महारानी के बलिदान के बाद उस दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) का क्या हुआ?
वह किसी काल्पनिक कहानी का किरदार नहीं था, जीता जागता इतिहास था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था | आईये आज उसी दामोदर राव की चर्चा करते हैं, जिसने रानी के देहांत के बाद गुलाम भारत में ही अपनी जिंदगी काटी |
अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली | ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने भी सुभद्रा कुमारी चौहान के अलंकारिक काव्य वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली |
1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा | उक्त पुस्तक में दामोदर की कहानी का उल्लेख दामोदर की जुबानी ही कुछ इस प्रकार किया गया है –
15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.
मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.
डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.
इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.
मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.
नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.
असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.
मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.
देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.
मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.
ग्वालियर रियासत के सीपरी गांव (आज की शिवपुरी) के लोगों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.
हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.
उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.
फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.
सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.
इसके आगे की गाथा उक्त पुस्तक में कुछ इस प्रकार वर्णित है –
इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने उनके सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.
दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे, जहाँ उनकी असली माँ ने उनकी परवरिश की । दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते।
बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह हुआ, किन्तु कुछ ही समय बाद पत्नी का देहांत हो गया । दामोदर राव की दूसरी शादी हुई और एक पुत्र लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। 28 मई 1906 को दामोदर राव ने इंदौर में ही अपनी आख़िरी सांस ली ।
दामोदर राव के बेटे लक्ष्मण राव के दो पुत्र हुए, कृष्ण राव और चंद्रकांत राव ।
कृष्ण राव के भी दो पुत्र हुए - मनोहर राव और अरूण राव |
चंद्रकांत राव के तीन पुत्र हुए - अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव ।
दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे।
अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति धन्वंतरिनगर इंदौर में रह रहे हैं।
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चित्र में बैठे हुए श्री अरुण राव झांसीबाले, खड़े हुए श्री योगेश अरुण राव अपनी पत्नी श्रीमती प्रीति के साथ |
झांसी की रानी के वंशज वर्तमान में इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं।
महारानी लक्ष्मीबाई के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है |
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