यह कोढ़ तो रिसनी ही थी - संजय तिवारी

यह कोढ़ तो रिसनी थी। बहुत मवाद भर गया है इसमें। कोई जिला, कोई शहर अछूता नहीं है। कथित नेता, कथित समाजसेवी और अफसर तक कौन शामिल नहीं है समाज को यह जख्म देने में। फिल्मो से लेकर कहानियो की किताबो तक में संरक्षण गृहो को लेकर हजारो बार हजारो लोगो ने बहुत ही गंभीर सवाल उठाये है। कई बार कुछ पत्र -पत्रिकाओं और अखबारों ने भी बाल और नारी संरक्षण गृहो की करतूतों से परदा हटाने की कोशिश की है, लेकिन उन कोशिशों को परिणामहीन कोशिश कहना ही बेहतर होगा ,क्योकि उन कोशिशों के बाद तो इन गृहो में रहने वाले किशोरों और नारियों पर और भी खूंखार गिद्धों की नजर पड़ गयी।

देवरिया और मुजफ्फरपुर तो मवाद की केवल दो बूँदें हैं। अभी तो पूरा समंदर भरा पड़ा है। इन दो गृहों में जो सामने आया है वह बिलकुल नया नहीं है। देश में किसी भी नारी संरक्षण गृह या सुधार गृह पर ईमानदारी से तहकीकात की जाएगी तो कहानी इससे भी भयावह दिख सकती है। यह मामला किस कदर बदबूदार हो चुका है, इसका प्रमाण तो स्वयं केंद्रीय मंत्री श्रीमती मेनका गाँधी का वह बयान है जिसमे वह स्वीकार करती हैं कि दो साल से वह लगातार सभी सांसदों को पत्र लिख कर उनके क्षेत्रो के इन कथित सुधारगृहों की रिपोर्ट मांगती रहीं लेकिन किसी सांसद ने कोई रिपोर्ट तो नहीं ही दी, मंत्री के पत्र का कोई संज्ञान तक नहीं लिया। अब प्रश्न यह है कि इन नारी निकेतनों, संरक्षण गृहों, सुधार गृहो, संवासिनी गृहों, बाल सुधार गृहों को देखने, उन्हें अर्थ पोषण करने और उनकी व्यवस्था को जांचने परखने की जिम्मेदारी है किसकी। आखिर वह कौन सा मानक होता है जिस आधार पर इन केन्द्रो को चलाने की अनुमति दी जाती है। इन केन्द्रो को संचालित करने वाली गैर सरकारी संस्थाओ को किस आधार पर, कौन चुनता है। इनको धन किस आधार पर दिया जाता है। इनके रख रखाव और मानक को परखने जिम्मेदारी किसकी है। जिले में चलने वाले ऐसे गृहो लेकर जिला प्रशासन की क्या भूमिका होती है।

यह प्रायः देखा गया है और अभी भी पाया जा सकता है कि जो भी गैर सरकारी लोग या संस्थाएं ऐसे गृहो का सञ्चालन कर रहे हैं वे इतने रसूख वाले होते हैं कि उन पर सवाल करने की हिम्मत किसी सामान्य आदमी या कस्बाई पत्रकार की भी नहीं है। पत्रकारीय अनुभव बताते हैं कि इन गृहो की प्रत्येक गतिविधि के बारे में उस इलाके का थानेदार सब जानता है। इसलिए शासन या सरकार यह कह कर बच ही नहीं सकते कि उनको जानकारी नहीं होती। व्यवस्था सब जानती है। शासन के हाथ बहुत लम्बे और सक्षम होते हैं। प्रशासन बहुत ही सक्षम प्रणाली है इसलिए जानकारी न होना केवल एक बहाना है। सब जानते हुए भी सब होते देने की वे कौन सी मजबूरियाँ हैं, प्रश्न यह है। इन गृहो के संचालक, वहां की राजनीति और प्रशासन एक दूसरे में बहुत ही गहरे जुड़े हैं। यह जुड़ाव ऐसा है कि किसी एक की नस दबाइये तो दर्द दूसरे दोनों को होने लगता है। यह हमारे सिस्टम विशेषता है। जनता को जल्दी भूल जाने और सिस्टम को चर्चा के लये नए विषय उछलने की महारत है। देवरिया और मुजफरपुर भी भूल जायेंगे क्योकि चर्चा के लिए कुछ और आ ही रहा होगा।


संजय तिवारी
संस्थापक - भारत संस्कृति न्यास (नयी दिल्ली)
वरिष्ठ पत्रकार
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें