हिन्दू मुस्लिम मानसिकता - समस्या और समाधान दर्शाती एक फिल्म "मुल्क"


प्राचीन भारत में शास्त्रार्थ का प्रचलन था | ये सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक गुत्थियों को सुलझाने के उद्देश्य से हुआ करते थे | यह प्रक्रिया अपने विचार को सही सिद्ध करने को नहीं, बल्कि जटिलताओं को सरल करने और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए होती थी | किन्तु दुर्भाग्य से आज तो संसद भी इतनी उदार नहीं है | वहां होने वाली बहसों में भी स्वयं को सही और दूसरे को गलत दिखाने की जिद्द दिखाई देती है |

ऐसे अपरिपक्व व असहिष्णु माहौल में मुल्कजैसी फिल्म का बनना और प्रदर्शित होना, बाकई बड़े हैरत की बात है | फिल्म निर्माता ने हिन्दू-मुस्लिम जैसे संवेदनशील मुद्दे पर फिल्म निर्माण कर सचमुच बहुत बड़ा जोखिम उठाया है | लम्बे समय से फ़िल्में केवल फूहड़ मनोरंजन व अश्लीलता परोसने का माध्यम भर बनकर रह गई हैं | सामाजिक सरोकारों पर सोद्देश्य व सन्देश परक फ़िल्में बनना लगभग बंद सा है | ऐसे में मुल्कफिल्म ताजा हवा के झोंके जैसा आभास कराती है |

कहा जाता रहा है कि बोलीबुड में दाऊद जैसे आतंकी भी पैसा लगाते हैं व उनका उद्देश्य होता है कि या तो भारतीय नई पीढी को चरित्र हीनता के दलदल में धकेलना या समाज में बुराई को महिमामंडित करना | किन्तु मुल्कफिल्म ठीक पुरातन शास्त्रार्थ की तरह, भारत की हिन्दू-मुस्लिम मानसिकता को ईमानदारी से प्रगट करने के साथ समाधान भी प्रस्तुत करती है, जिसका कि आजकल की नव फिल्मों में नितांत अभाव रहता है | यथास्थिति दर्शाने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर, समाज का गंद प्रदर्शित करना, एक प्रकार से नैराश्य व अराजकता को बढ़ावा देता है

मुल्कका प्रारम्भ और अंत समस्या की जड़ और उसके इलाज को दर्शाता है |


प्रारम्भ में एक आतंकी एक नौजवान को भड़काते हुए कहता है कि – “इन तमाम लोगों पर इल्जाम है मुसलमान होने का शाहिद मियाँ, किन्तु अफसोस यह हैं नहीं | टखने के ऊपर पाजामा और घुटने के नीचे का कूडता पहिनकर सर पर 12 रुपये की टोपी टिकाकर और हर जुम्मे भेड़ बकरियों की तरह सड़क पर नमाज पढने से कोई मुसलमान नहीं हो जाता | मां बाप अपने बच्चों को अरबी में कुरान की आयतें रटवा देते हैं , मतलब मालूम नहीं | मालूम होता तो ये हाल नहीं होता मुसलमान का |”

आतंकी के बहकावे में आकर 16 लोगों की जान लेकर स्वयं पुलिस के हाथों मारे गए उस नौजवान का पूरा परिवार समाज और क़ानून की नजर में संदिग्ध हो जाता है | फिल्म के लगभग अंतिम दौर में बचाव पक्ष की वकील उस परिवार के मुखिया से नाटकीय अंदाज में ही सही, एक माकूल सवाल पूछती है

अली मोहम्मद जी आपके पास कोई प्रूफ ही नहीं है कि आप देशद्रोही नहीं हैं | क्योंकि आपको देखकर लगता नहीं है कि आप देशप्रेमी हो सकते हैं |... एक आम आदमी कैसे फर्क करेगा इस दाढी वाले अली मोहम्मद और उस ढाढी वाले सीरियन, ईरानी, अफगानी, पाकिस्तानी, कश्मीरी टेरेरिस्ट से..... कैसे हमें पता चलेगा कि वह एक खराब मुसलमान है और आप एक अच्छे मुसलमान हैं | अली मोहम्मद जी, आपका भतीजा, जो आपके साथ आपके ही घर में रहता था, उसने दहशतगर्दों के साथ मिलकर सोलह लोगों की जानें ले ली हैं | आपके भाई बिलाल और आप पर भी आरोप है, इस साजिश में शामिल होने का | कैसे साबित करेंगे आप कि आप एक अच्छे मुसलमान हैं |

अली मोहम्मद के जबाब के अंश देखिये कितने जबरदस्त – 
जब कुरआन पढ़ा था, तो पता चला था कि क़यामत के दिन अल्लाह मुझसे यह सवाल पूछेगा कि मैं एक अच्छा मुसलमान था या नहीं | और वो फैसला करेगा, सिर्फ वो | कोशिश तो पूरी की थी कि एक अच्छा मुसलमान बनूँ , पर कहीं गलतियाँ हो जाती हैं
.... मुझ पर कम्यूनल हार्मोनी डिस्टर्ब करने के आरोप लगाए गए हैं | 6 दिसंबर 1992 की रात, हम सब बहुत सहमे हुए थे | हर मुसलमान बहुत डरा हुआ था | फिर मेरे पास कुछ लोग आये
.... बोले आप बिलकुल टेशन मत लीजियेगा वकील साहब, हम यहाँ ही ठहरेंगे और हमारे रहते, आप लोगों का कुछ भी नहीं बिगड़ सकता | काश उस रात चौबे और सोनकर जैसे लोग हर मुसलमान के घर पहुँचते
.... गले लगाकर सवाल पूछियेगा तो कलेजा निकालकर हाथ में रख दूंगा | अगर उंगली उठाकर पूछियेगा ना, तो याद रखियेगा कि मेरी जबाबदारी आपसे नहीं है, अपने मुल्क से है |

अली मोहम्मद की यह स्वीकारोक्ति महत्वपूर्ण है कि मोहल्ले के हिन्दू ही उसकी व उसके परिवार की रक्षा को आगे आये | हिंदू मानसिकता सारे मुस्लिमों को पाकिस्तान भगाने की कभी नहीं रही | आम हिन्दू शांतिप्रिय है, इसलिए स्वाभाविक ही वह दहशतगर्दी को सख्त नापसंद करता है | इसी नाते वह उन लोगों को पाकिस्तान जाने को कहता है, जो आतंकियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं या जो पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाते हैं अथवा क्रिकेट में पाकिस्तान के जीतने पर मिठाइयां बांटते हैं !

पाकिस्तान का भी विरोध आम देश प्रेमी व्यक्ति इसलिए नहीं करता कि वह मुस्लिम देश है इसलिए करता है कि वह दुश्मन देश है और दुश्मन देश के प्रति सहानुभूति रखने वाले को कोई भी यही कहेगा कि वही चले जाओ !

वहीँ बचाव बकील के तर्कों के अंश भी गौर करने योग्य है – 
गांधी को एक इंसान ने मारा, एक ब्राह्मण, एक समुदाय को दोषी नहीं ठहरा सकते ना ? अगर हर मुसलमान को इस दायरे में रखा गया तो दुनिया की एक तिहाई आवादी शक के दायरे में आ जायेगी
.... अली मोहम्मद जैसों को शाहिद जैसों पर नजर रखनी होगी | हम और वो मिलकर मुल्क नहीं बनता, हम इस मुल्क को बनाते हैं |

और अंत में कोर्ट का फैसला – 
मुकदमे के दौरान आपके भाई की मौत हुई, हमें अफसोस है किन्तु गुस्सा भी कि आप अपने लडके पर नजर नहीं रख पाए | नजर न रख पाने की कोई सजा तो है नहीं, संभालिये अपने लड़कों को, किससे मिलते हैं, क्या बोलते हैं
... अपने बिजनेस और पोलिटिक्स के लिए ये इस्लाम का मिसयूज कर रहे हैं, इस बात को इकनोलेज करें हम लोग, इससे बचने का रास्ता भी निकल आयेगा |

कुल मिलाकर फिल्म को आरोप प्रत्यारोप के नजरिये से देखने के बजाय अगर समस्या और उसके समाधान के नजरिये से देखेंगे तो शायद फिल्मकार के उद्देश्य के साथ न्याय करेंगे | आतंकी हमले होते हैं, यह यथार्थ है, उसके बाद मुस्लिम समुदाय के प्रति हिन्दुओं के मन में शक सुबहे का भाव आता है, इसमें असामान्य क्या है ? आतंकियों के जनाजे में हजारों की तादाद में उमड़ती भीड़ इस संदेह के भाव को और पुख्ता करती है | फिल्मकार ने बहुत डरते डरते समाधान सुझाया है कि हम और वोका भाव समाप्त होना चाहिए | किन्तु यह होगा कैसे ?

उसके लिए मुस्लिम समाज को तथाकथित भटके हुए नौजवानोंपर स्वयं भी नजर रखनी होगी और हिन्दू समाज को भी अपनी पुरातन सहिष्णुता को बरकरार रखते हुए हर मुस्लिम को आरोपी मानने से बचना होगा

मुसलमान अपने शासन काल में देश के पूरे हिन्दुओं को मुसलमान नहीं बना पाए, तो क्या वे अब यह कर सकते हैं ? ना वे सबको धर्मान्तरित कर सकते हैं और न ख़तम | इसी प्रकार हिन्दू भी पूरे समुदाय को न तो पाकिस्तान भगा सकता और न ही अरब सागर में धकेल सकता | रहना साथ ही है, तो दोस्त बनकर रहें या दुश्मनों की तरह, यह दोनों समुदायों को देर सबेर तय करना ही होगा

बामपंथी नजरिया विद्वेष को भड़काने का रहता है तो समझदार देशभक्तों का आग बुझाने का होना ही चाहिए

उद्देश्य परक फिल्म का सकारात्मक पक्ष उम्दा है |

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