संवेदनशील नेता शिवराज सिंह जी से आग्रह - बन सकती है ऐसी योजनायें, जिनसे रुक सकती हैं किसानों की आत्महत्याएं !



आज के समाचार पत्रों में वर्ष 2016-17 के लिए नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) द्वारा आयोजित अखिल भारतीय वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण के निष्कर्ष प्रकाशित हुए हैं। सर्वेक्षण की जानकारी नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ राजीव कुमार द्वारा जारी की गई है । इस अखिल भारतीय सर्वेक्षण में 29 राज्यों के 295 जिलों को सम्मिलित किया गया था और इसमें 2016 गांवों के नमूने लिए गए थे। कुल 1,87,518 लोगों से जानकारी ली गई । 

सर्वेक्षण के निष्कर्ष चोंकाने वाले और स्थापित धारणाओं के विपरीत हैं | सर्वेक्षण के अनुसार "गैर-कृषि गतिविधियों में लगे परिवारों की वार्षिक आय 87,228 रुपये है, जबकि इसकी तुलना में कृषि कार्य करने वाले परिवारों की औसत वार्षिक आय 1,07,172 रुपये है। 

सर्वेक्षण में वार्षिक आय के अलावा ऋण, बचत, निवेश, बीमा, पेंशन और व्यक्ति की वित्तीय क्षमता और व्यवहार जैसे अन्य पहलुओं को भी शामिल किया गया । 

अब सवाल उठता है कि जब कृषि कार्य से सम्बंधित परिवारों की औसत आय, गैर कृषि कार्य करने वालों से ज्यादा है, तो फिर किसान आत्महत्या की दर ज्यादा क्यूं है ? संभवतः इसका जबाब सर्वेक्षण निष्कर्ष के अंतिम बिंदु में है | और वह यह कि कृषि कार्य करने वाले परिवार ज्यादा ऋण ग्रस्त हैं | बकाया कर्जा उनकी सबसे बड़ी परेशानी है | कृषि कार्य से जुड़े परिवारों में से 52.5 प्रतिशत बकाया कर्जे के बोझ तले दबे हुए हैं | जबकि गैर कृषि कार्य वाले ग्रामीण परिवारों में यह औसत 42.8 प्रतिशत है । 

सर्वे में बेशक कृषि कार्य करने वाले परिवारों की औसत आय ज्यादा दर्शाई गई है, किन्तु अहम सवाल यह है कि इसमें छोटे किसान कितने हैं, जिनके पास दो बीघा से कम भूमि है ? साथ ही सिंचित और असिंचित भूमि वाले किसानों का अंतर भी स्पष्ट नहीं है | अतः इस सर्वेक्षण से ग्रामीण कृषि जीवन का सही सही चित्र सामने नहीं आता | कई बड़े बड़े लोग स्वयं को किसान दर्शाकर और अन्य कार्यों से हुई अपनी दो नंबर की कमाई को कृषिकार्य से हुई बता देते हैं | अतः यह सर्वेक्षण कितना सत्य एवं सही है, यह नहीं कहा जा सकता | 

अब सवाल उठता है कि कृषक समस्याओं का निराकरण कैसे हो ? इस प्रकार के सर्वे से तो समस्या की गहराई को समझना नितांत कठिन है | तो किसान आत्महत्याएं कैसे रुकेंगी ? 

इस सवाल का सीधा जबाब है – छोटे और मंझोले किसान को ऋण से मुक्ति दिलाना | उसकी स्थाई ऋण मुक्ति - तात्कालिक कर्ज माफी से संभव नहीं है | यह समस्या का स्थाई समाधान नहीं है | स्थाई समाधान यह है कि ऎसी व्यवस्था बनानी होगी कि किसान को भविष्य में कर्ज लेना ही न पड़े | 

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कृषि को राष्ट्रकार्य मानकर लघु और सीमांत किसान को बीज-खाद-बिजली निशुल्क उपलब्ध कराई जाए ? साथ ही ऐसी व्यवस्था बनाने के विषय में सोचा जाए कि किसान को अपनी फसल मंडी में ले जाने के झंझट से छुट्टी मिले, उसके द्वारा उत्पादित अनाज खेत से ही खरीदा जाये | आज तो हालत यह है कि कम ज़मीन वाले छोटे किसान को अपनी उपज मंडी या बाज़ार तक पहुँचाना ही बहुत ख़र्चीला साबित होता है। उसे 35-40 कि.मी. की दूरी से मंडी तक अनाज पहुँचाने के बदले ट्रेक्टर-ट्राली के मालिक 2000 से 2500 रुपये किराया देना पड़ता हैं। अगर किसी किसान के पास पाँच क्विंटल गेहूँ है, जिसका दाम मंडी में उसे 1450 रुपये प्रति क्विंटल मिलना है, तो ट्रेक्टर मालिक का किराया चुकता करने पर उसके हाथ में अधिकतम 5250 रुपये आएंगे। सो अक्सर किसान अपनी फ़सल गाँव के ही दुकानदार या बड़े किसान को 1200-1250 रुपये प्रति क्विंटल में बेच देते हैं, ताकि उनके हाथ में 6000 रुपये के आसपास राशि आ सके। यानी निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ भी वह किसान चाहते हुए भी नहीं ले पाता।

पहली नजर में उक्त सुझाव पूर्णतः अव्यवहारिक लग सकते है, किन्तु यह इतने असंभव भी नहीं है | केवल आवश्यकता है दृढ इच्छाशक्ति संपन्न योजनाकारों की | आखिर आज से पंद्रह साल पूर्व किसने सोचा था कि किसान को शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज मिल सकता है ? लेकिन मध्य प्रदेश में शिवराज जी ने करके दिखाया | एक माह पूर्व किसने कल्पना की थी कि हर आम व्यक्ति का बकाया बिजली बिल माफ़ होगा ? लेकिन शिवराज जी ने करके दिखाया | 

तो शिवराज जी अपने अगले चरण में इस योजना को भी सम्मिलित कीजिए और किसानों को कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या करने की विवशता से मुक्ति दिलवाईये | आप जैसा संवेदनशील नेता ही यह दुष्कर कार्य कर सकता है |
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