आजादी / विभाजन पूर्व के पंद्रह दिन - ६ अगस्त, १९४७ - गांधी जी और गुरूजी द्वारा लाहौर में दिए गए उद्बोधन - प्रशांत पोळ



आज गांधीजी का काफिला लाहौर जाने वाला था. लगभग ढाई सौ मील की दूरी थी. संभावना थी कि कम से कम सात-आठ घंटे तो लगने ही वाले हैं. इसीलिए ‘वाह’ से जल्दी निकलने की योजना थी. निश्चित कार्यक्रम के मद्देनजर, सूर्योदय होते ही गांधीजी ने वाह कैंट छोड़ दिया और रावलपिन्डी मार्ग से वे लाहौर की तरफ निकल पड़े. 

रावी नदी के तट पर स्थित यह शहर सिख इतिहास का महत्त्वपूर्ण शहर, प्राचीन ग्रंथों में ‘लवपुर’ अथवा ‘लवपुरी’ के नाम से पहचाना जाता था. इस शहर में लगभग चालीस प्रतिशत से ज्यादा, हिन्दू-सिखों की आबादी थी, किन्तु मार्च में मुस्लिम लीग द्वारा भड़काए गए दंगों के बाद बड़े पैमाने पर हिन्दु और सिखों ने अपने घरबार छोड़ने आरम्भ कर दिए थे. 

इस बात के स्पष्ट संकेत मिल चुके थे कि लाहौर पाकिस्तान में जाएगा. इस कारण महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी और उनकी समाधि वाला यह शहर छोड़कर भारत जाना लाहौर के सिखों के लिए बहुत कठिन हो रहा था. शीतला माता मंदिर, भैरव मंदिर, दावर रोड स्थित श्रीकृष्ण मंदिर, दूधवाली माता मंदिर, डेरा साहब, भाभारियां स्थित श्वेताम्बर और दिगंबर पंथ के जैन मंदिर, आर्य समाज मंदिर जैसे कई प्रसिद्ध मंदिरों का अब क्या होगा, इसकी चिंता प्रत्येक हिन्दू-सिख के मन में थी. प्रभु रामचंद्र के पुत्र लव, जिन्होंने यह शहर बसाया था, उनका मंदिर भी लाहौर के किले के अन्दर स्थित था. 

ऐसे ऐतिहासिक शहर लाहौर में काँग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत करने दोपहर लगभग डेढ़ बजे गांधीजी का काफिला लाहौर पहुंचा. यहां भोजन करने के पश्चात तुरंत ही गांधीजी काँग्रेस के अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करने वाले थे. इस बीच एक और महत्वपूर्ण वाकया हुआ. लाहौर आते समय रास्ते में गांधीजी को एक कार्यकर्ता ने बताया कि “भारत का राष्ट्रध्वज लगभग तैयार हो चुका है. केवल उसके बीच में स्थित चरखे को निकालकर सम्राट अशोक का प्रतीक चिन्ह ‘अशोक चक्र’ रखा गया है”. 

यह सुनते ही गांधीजी भड़क गए. चरखा हटाकर सीधे ‘अशोक चक्र’? सम्राट अशोक ने तो भरपूर हिंसा की थी. उसके बाद में बौद्ध पंथ अवश्य स्वीकार किया था. लेकिन उससे पहले तो जबरदस्त हिंसा की थी ना? ऐसे हिंसक राजा का प्रतीक चिन्ह भारत के राष्ट्रध्वज में?? नहीं, कदापि नहीं.... इसीलिए कार्यकर्ताओं की बैठक समाप्त होते ही गांधीजी ने महादेव भाई से तुरंत एक वक्तव्य तैयार करके अखबारों में देने का आदेश दिया. 

गांधीजी ने अपना बयान लिखवाया, “मुझे आज पता चला है कि भारत के राष्ट्रध्वज के सम्बन्ध में अंतिम निर्णय लिया जा चुका है. परन्तु यदि इस ध्वज के बीचोंबीच चरखा नहीं होगा, तो मैं इस ध्वज को प्रणाम नहीं करूंगा. आप सभी जानते हैं कि भारत के राष्ट्रध्वज की कल्पना सबसे पहले मैंने ही की थी. और ऐसे में यदि राष्ट्रध्वज के बीच में चरखा नहीं हो, तो ऐसे ध्वज की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता...” 

काँग्रेस कार्यकर्ताओं का दूसरा अर्थ हिन्दू और सिख ही था, क्योंकि लाहौर कांग्रेस के मुस्लिम कार्यकर्ता पहले ही ‘मुस्लिम लीग’ का काम करने लगे थे. जब पाकिस्तान का निर्माण होना ही है और यहाँ काँग्रेस का कोई अस्तित्त्व नहीं रहेगा, तो फिर क्यों खामख्वाह काँग्रेस का बोझा अपनी पीठ पर ढोना? यही सोचकर मुस्लिम कार्यकर्ता काँग्रेस से गायब हो चुके थे, इसलिए अब लाहौर के इन बचे-खुचे हिन्दू-सिख कार्यकर्ताओं को गांधीजी की यह भेंट बहुत ही आशादायक लग रही थी. 

जिस काँग्रेस पदाधिकारी के यहां गांधीजी का भोजन होने वाला था, उस बस्ती में गांधीजी ने जो दृश्य देखा, वह मन को खिन्न करने वाला ही था. उन्हें मार्ग में कुछ जले हुए मकान, कुछ जली हुई दुकानें दिखाई दीं. हनुमानजी के मंदिर का दरवाजा किसी ने उखाड़कर फेंक दिया था. एक प्रकार से देखा जाए तो वह मोहल्ला भुतहा नजर आ रहा था. 

हमेशा की तरह प्रार्थना के बाद उनकी सभा शुरू हुई. गांधीजी ने हलके हलके मुस्कुराते हुए कार्यकर्ताओं से अपनी बात रखने का आग्रह किया.... और मानो कोई बांध ही फूट पड़ा हो, इस प्रकार सभी कार्यकर्ता धड़ाधड़ बोलने लगे. केवल हिन्दू-सिख कार्यकर्ता ही बचे थे, वे अपने ही नेतृत्व पर बेहद चिढ़े हुए थे. क्रोध में थे. उन्हें अंतिम समय तक यही आशा थी, कि जब गांधीजी ने कहा है, कि “देश का विभाजन नहीं होगा, और यदि हुआ भी तो वह मेरे शरीर के दो टुकड़े होने के बाद ही होगा”, तो चिंता की कोई बात ही नहीं. इस बयान के आधार पर लाहौर के सभी काँग्रेस कार्यकर्ता आश्वस्त थे कि कुछ नहीं होगा. 

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तीन जून को ही मानो सब कुछ बदल चुका था. इसी दिन विभाजन की घोषणा हुई थी, और वह भी काँग्रेस की सहमति से. ‘अब अगले आठ-पन्द्रह दिनों के भीतर हम जितना भी सामान समेट सकते हैं, उतना लेकर हमें निर्वासित की तरह भारत में जाना होगा. सम्पूर्ण जीवन मानो उलट-पुलट हो गया हैं, अस्तव्यस्त हो चुका हैं.. जबकि हम सब काँग्रेस के ही कार्यकर्ता हैं...!’ 

सभी कार्यकर्ताओं ने गांधीजी पर अपने प्रश्नों की बौछार कर दी. गांधीजी भी शांत चित्त से यह सब कुछ सुन रहे थे. वे चुपचाप बैठे थे. अंततः पंजाब काँग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने कार्यकर्ताओं को शांत किया और उन्हें रोकते हुए कहा कि ‘गांधीजी क्या कहना चाहते हैं, कम से कम उन्हें सुन तो लीजिए’. 

लाहौर शहर के सात-आठ सौ कार्यकर्ता एकदम शांत हो गए. अब वे बड़ी आशा भरी निगाहों से यह जानने के लिए उत्सुक थे कि आखिर गांधीजी के मुंह से उनके लिए कौन से शब्द मरहम के रूप में निकलते हैं. 

गांधीजी ने शांत चित्त से अपना भाषण आरम्भ किया. 

“...मुझे यह देखकर बहुत ही बुरा लग रहा है कि पश्चिमी पंजाब से सभी गैर-मुस्लिम लोग पलायन कर रहे हैं. कल ‘वाह’ के शिविर में भी मैंने यही सुना, और आज लाहौर में भी मैं यही सुन रहा हूँ. ऐसा नहीं होना चाहिए. यदि आपको लगता है कि आपका लाहौर शहर अब मृत होने जा रहा है, तो इससे दूर न भागें. बल्कि इस मरते हुए शहर के साथ ही आप भी अपना आत्मबलिदान करते हुए मृत्यु का वरण करें. जब आप भयग्रस्त हो जाते हैं, तब वास्तव में आप मरने से पहले ही मर जाते हैं. यह उचित नहीं है. मुझे कतई बुरा नहीं लगेगा, यदि मुझे यह खबर मिले कि पंजाब के लोगों ने डर के मारे नहीं, बल्कि पूरे धैर्य के साथ मृत्यु का सामना किया...!” 

गांधीजी के मुंह से यह वाक्य सुनकर दो मिनट तक तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं को समझ में ही नहीं आया कि क्या कहें. वहां बैठे प्रत्येक कांग्रेस कार्यकर्ता को ऐसा लग रहा था मानो किसी ने उबलता हुआ लोहा उनके कानों में उंडेल दिया हो. गांधीजी कह रहे हैं कि ‘मुस्लिम लीग के गुंडों द्वारा किए जा रहे प्राणघातक हमलों के दौरान आने वाली मृत्यु का सामना धैर्य से करें..!” ये कैसी सलाह है?

दूसरे दिन अखबारों ने उनके भाषण को कुछ इस प्रकार लिखा भी - गांधी जी ने कहा कि वे अपना शेष जीवन पाकिस्तान में ही गुजारेंगे ! इस पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने आग्रह किया कि बाद में क्यों, आज भी प्रांत से न जाओ ! 

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जिस समय गांधीजी वाह से लाहौर के लिए निकल रहे थे, लगभग उसी समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक, गुरूजी भी कराची से सिंध प्रांत के दूसरे बड़े शहर, हैदराबाद जाने के लिए निकले थे. गांधीजी की ही तरह वे भी तड़के चार बजे ही उठ गए थे. यह उनकी नियमित दिनचर्या थी. सुबह छह बजे सूर्योदय होते ही गुरूजी ने प्रभात शाखा में प्रार्थना की और शाखा पूर्ण करने के उपरान्त एक छोटी सी बैठक ली. सिंध प्रांत के सभी प्रमुख शहरों के संघचालक, कार्यवाह एवं प्रचारक इस बैठक में उपस्थित थे. ये सभी लोग गुरूजी के कल वाले कार्यक्रम के लिए कराची में आए थे. इस बैठक में ‘पाकिस्तान के हिंदु-सिखों को हिन्दुस्थान में सुरक्षित रूप से कैसे पहुंचाया जाए’, इस बारे में योजना बनाई जा रही थी. 

गुरूजी अपने कार्यकर्ताओं की व्यथा सुन रहे थे, उनकी समस्याएं समझ रहे थे. पास में ही बैठे हुए डॉक्टर आबाजी थत्ते, बड़े ही व्यवस्थित पद्धति से अनेक बातों के ‘नोट्स’ तैयार कर रहे थे. कल संघ के सार्वजनिक बौद्धिक में जो बातें गुरूजी ने अपने उदबोधन में कही थीं, वे पुनः एक बार वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को समझाईं. ‘हिंदुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी नियति ने ही संघ के कंधों पर सौंपी हैं’. गुरूजी ने कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाया और कहा कि ‘संगठन क्षमता से हम लोग बहुत सी असाध्य बातें भी सरलता से पूरी कर सकते हैं’. 

बैठक के पश्चात सभी कार्यकर्ताओं के साथ गुरूजी ने अल्पाहार ग्रहण किया, और लगभग सुबह नौ बजे गुरूजी हैदराबाद की तरफ निकल पड़े. कराची के कुछ स्वयंसेवकों के पास कार थी. उन्हीं में से एक कार में गुरूजी, आबाजी, प्रांत प्रचारक राजपाल जी पुरी एवं सुरक्षा की दृष्टि से एक स्वयंसेवक इस गाड़ी में बैठे. कारचालक भी शस्त्र से सुसज्जित था, भले ही ऊपर से ऐसा दिख नहीं रहा था. ऐसी ही एक और कार गुरूजी की कार के पीछे-पीछे चली. उसमें भी कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ता थे, जो शस्त्रों से सज्जित थे. खतरे को भांपते हुए इन दोनों कारों के आगे और पीछे कई स्वयंसेवक मोटरसाइकिल से चल रहे थे. दंगों के उस अत्यंत अस्थिर वातावरण में भी, किसी सेनापति या राष्ट्राध्यक्ष की तरह वहां के स्वयंसेवक गुरूजी गोलवलकर को हैदराबाद ले जा रहे थे. 

कराची से हैदराबाद का रास्ता लगभग चौरानवे मील का हैं, लेकिन काफी अच्छा हैं. इस कारण ऐसा विचार था कि दोपहर भोजन के समय गुरूजी हैदराबाद पहुंच जाएंगे. रास्ते में ही प्रांत प्रचारक राजपाल जी ने गुरूजी को वहां की भयावह परिस्थिति के बारे में अवगत कर दिया था. 

हैदराबाद पहुंचकर भोजन के तुरंत बाद गुरूजी ने वहां के स्वयंसेवकों के साथ बातचीत करना प्रारम्भ कर दिया. 

हैदराबाद के स्वयंसेवक पिछले वर्ष नेहरू जी के हैदराबाद दौरे का किस्सा सुना रहे थे. 

नेहरू जी ने पिछले वर्ष, अर्थात १९४६ में, हैदराबाद में एक आमसभा लेने का सोचा था. उस समय तक विभाजन वाली कोई बात नहीं थी. सिंध प्रांत में मुसलमानों की संख्या गांवों में ही अधिक थी. कराची को छोड़कर लगभग सभी शहर हिन्दू बहुल थे. लरकाना, और शिकारपुर में ६३% हिन्दू जनसंख्या थी, जबकि हैदराबाद में लगभग एक लाख हिन्दू थे, अर्थात ७०% से भी अधिक हिन्दू जनसंख्या थी. इसके बावजूद मुस्लिम लीग की तरफ से देश के विभाजन की मांग वाला आंदोलन जोर शोर से चल रहा था, और यह आंदोलन पूरी तरह हिंसक था. इसीलिए केवल ३०% होने के बावजूद मुसलमानों ने शहर पर अपना दबदबा कायम कर लिया था. सभी सार्वजनिक स्थानों पर हिंदुओं के विरोध में बड़े-बड़े बैनर लगे हुए थे. सिंध प्रांत के मंत्रिमंडल में मुस्लिम लीग का मंत्री खुर्रम तो सरेआम अपने भाषणों में हिंदुओं की लड़कियां उठा ले जाने की धमकियां दे रहा था. 

इन दंगाई मुसलमानों की गुंडागर्दी का मुकाबला करने में केवल एक ही संस्था सक्षम सिद्ध हो रही थी, और वह थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. हैदराबाद में संघ शाखाओं की अच्छी खासी संख्या थी. प्रांत प्रचारक राजपाल पुरी इस क्षेत्र में नियमित रूप से प्रवास पर आते रहते थे. 

इसीलिए जब कांग्रेस कार्यकर्ताओं को यह पता चला कि हैदराबाद में १९४६ में जवाहरलाल नेहरू की होने वाली सभा को मुस्लिम लीग के गुंडे बर्बाद करने वाले हैं तथा नेहरू की हत्या की योजना बना रहे हैं, तब उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. इस समय सिंध के वरिष्ठ कांग्रेस नेता चिमनदास और लाला कृष्णचंद ने संघ के प्रांत प्रचारक राजपाल पुरी से संपर्क किया और नेहरू की सुरक्षा के लिए संघ स्वयंसेवकों की मदद मांगी. राजपाल जी ने सहमति जताई और मुस्लिम लीग की चुनौती स्वीकार की. 

इसके बाद ही हैदराबाद में नेहरू जी की एक विशाल आमसभा हुई, जिसमें संघ के स्वयंसेवकों की सुरक्षा व्यवस्था एकदम चौकस थी. उन्हीं के कारण इस आमसभा में कोई गड़बड़ी नहीं हुई ना ही कोई व्यवधान उत्पन्न हुआ. (सन्दर्भ :- ‘Hindus in Partition – During and After’, www.revitalization.blogspot.in – V. Sundaram, Retd IAS Officer) 

गुरूजी के सान्निध्य में हैदराबाद में स्वयंसेवकों का बड़े पैमाने पर एकत्रीकरण हुआ. लगभग दो हजार से अधिक स्वयंसेवक उपस्थित थे. पूर्ण गणवेश में उत्तम सांघिक संपन्न हुआ. इसके पश्चात गुरूजी अपना उदबोधन देने के लिए खड़े हुए. उनके अधिकांश मुद्दे वही थे जो उन्होंने कराची के भाषण में कहे थे. अलबत्ता गुरूजी ने इस बात पर बल दिया कि “नियति ने हमारे संगठन पर एक बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी है. परिस्थितियों के कारण राजा दाहिर जैसे वीरों के इस सिंध प्रांत में हमें अस्थायी और तात्कालिक रूप से पीछे हटना पड़ रहा है. इस कारण सभी हिन्दू-सिख बंधुओं को उनके परिवारों सहित सुरक्षित रूप से भारत ले जाने के लिए हमें अपने प्राणों की बाजी लगानी है.” 

“इस बात पर हमें पूरा विश्वास और श्रद्धा है कि गुण्डागर्दी और हिंसा के सामने झुककर जो विभाजन स्वीकार किया गया है, वह कृत्रिम है. आज नहीं तो कल हम पुनः अखंड भारत बनेंगे. लेकिन फिलहाल हमारे सामने हिन्दुओं की सुरक्षा का काम अधिक महत्त्वपूर्ण और चुनौती भरा है.” अपने बौद्धिक का समापन करते हुए गुरूजी ने संगठन का महत्त्व प्रतिपादित किया. “अपनी संगठन शक्ति के बल पर ऐसे अनेक असाध्य कार्य हम संपन्न कर सकते हैं, इसलिए धैर्य रखें. संगठन के माध्यम से हमें अपना पुरुषार्थ दिखाना है...”. 

इस बौद्धिक के पश्चात गुरूजी स्वयंसेवकों से भेंट करते जा रहे थे. उन्हें हालचाल पूछ रहे थे. ऐसे अस्थिर, विपरीत एवं हिंसक वातावरण में भी गुरूजी के मुख से निकले शब्द स्वयंसेवकों के लिए बहुमूल्य और धैर्य बढाने वाले साबित हो रहे थे... उनका उत्साह बढाने वाले शब्द थे वे. 

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यह तो हुए गांधी जी और गुरू जी के यात्रा वृत्त, किन्तु इसके अलावा भी बहुत कुछ देश में घट रहा था – 

’१७, यॉर्क रोड’... नेहरू जी अपने निवास स्थान पर ५ अगस्त को लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा लिखित एक पत्र का उत्तर अपने सचिव को डिक्टेट कर रहे थे ... 

“प्रिय लॉर्ड माउंटबेटन, 

आपके पाँच अगस्त वाले पत्र का आभार. इस पत्र में आपने उन दिनों की सूची भेजी है, जिन दिनों में भारत की शासकीय इमारतों पर यूनियन जैक फहराया जाना चाहिए. मेरे अनुसार इसका अर्थ यह निकलता है कि भारत के सभी सार्वजनिक स्थानों पर हमारे राष्ट्र ध्वज के साथ-साथ यूनियन जैक भी फहराया जाए. आपकी इस सूची में केवल एक दिन के बारे में मुझे समस्या है. वह दिन है १५ अगस्त का, अर्थात हमारी स्वतंत्रता का दिवस. मुझे ऐसा लगता है कि इस दिन यूनियन जैक फहराना उचित नहीं होगा. हालांकि लन्दन स्थित इण्डिया हाउस पर आप उस दिन यूनियन जैक फहराएं तो उसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है. 

अलबत्ता जो अन्य दिन आपने सुझाए हैं – जैसे १ जनवरी – सैनिक दिवस; १ अप्रैल – वायुसेना दिवस; २५ अप्रैल – अन्झाक दिवस; २४ मई – राष्ट्रकुल दिवस; १२ जून – (ब्रिटेन के) राजा का जन्मदिन; १४ जून – संयुक्त राष्ट्रसंघ का ध्वज दिवस; ४ अगस्त – (ब्रिटिश) महारानी का जन्मदिन; ७ नवंबर – नौसेना दिवस; ११ नवंबर – विश्व युद्ध में दिवंगत हुए सैनिकों का स्मरण दिवस... इन सभी दिनों में हमें कोई समस्या नहीं है. इन अवसरों पर सभी सार्वजनिक स्थानों पर यूनियन जैक फहराया जाएगा.” 

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मुम्बई में डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर से भेंट करने वालों, विशेषकर शेड्यूल कास्ट फेडरेशन कार्यकर्ताओं की लंबी कतारें हैं. स्वाभाविक ही हैं, क्योंकि उनके प्रिय नेता को भारत के पहले केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री पद मिला हैं. 

इस तमाम व्यस्तताओं के बीच बाबासाहब के दिमाग में अनेक विचार चल रहे थे. विशेषकर देश के पश्चिम भाग में भीषण हिन्दू-मुस्लिम दंगों की ख़बरें उन्हें बेचैन कर रही थीं. इस सम्बन्ध में उनके विचार एकदम स्पष्ट थे. बाबासाहब भी विभाजन के पक्ष में ही थे, क्योंकि उनका यह साफ़ मानना था कि हिंदुओं और मुसलमानों का सह-अस्तित्त्व संभव ही नहीं है. अलबत्ता विभाजन के लिए अपनी सहमति देते समय बाबासाहब की प्रमुख शर्त थी ‘जनसंख्या की अदला-बदली करना’. उनका कहना था कि चूंकि विभाजन धर्म के आधार पर हो रहा है, इसलिए प्रस्तावित पाकिस्तान के सभी हिंदु-सिखों को भारत में तथा भारत के सभी मुसलमानों को पाकिस्तान में विस्थापित किया जाना आवश्यक है. जनसंख्या की इस अदला-बदली से ही भारत का भविष्य शांतिपूर्ण होगा. 

काँग्रेस के अन्य कई नेताओं, विशेषकर गांधीजी और नेहरू के कारण बाबासाहब का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुआ, इसका उन्हें बहुत दुःख हुआ था. उन्हें बार-बार लगता था कि यदि योजनाबद्ध तरीके से हिंदु-मुस्लिमों की जनसंख्या की अदलाबदली हुई होती, तो लाखों निर्दोषों के प्राण बचाए जा सकते थे. गांधीजी के इस वक्तव्य पर कि “भारत में हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की तरह रहेंगे”, उन्हें बहुत क्रोध आता था. 

६ अगस्त की शाम, मध्य मुम्बई के एक प्रतिष्ठित सभागार में मुंबई के समस्त अधिवक्ताओं के संगठन का एक कार्यक्रम रखा गया, जिसमें स्वतंत्र भारत के पहले क़ानून मंत्री डॉक्टर बाबासाहब अम्बेडकर ने पूरे मनोयोग से अपना भाषण दिया. भारत की पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर फैले दंगों और हिंसात्मक वातावरण पर भी वे बोले. पाकिस्तान के सम्बन्ध में उनके विचार एक बार पुनः उन्होंने अपने मजबूत तर्कों के साथ रखे. जनसंख्या की शांतिपूर्ण अदलाबदली की आवश्यकता भी उन्होंने बताई. 

कुल मिलाकर यह कार्यक्रम बेहद सफल रहा. बाबासाहब ने पाकिस्तान और मुसलमानों से सम्बंधित उनकी भूमिका और विचार स्पष्ट रूप से समझाए एवं अधिकांश वकीलों को उनके तर्क समझ में भी आ रहे थे. 

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जैसे-जैसे छह अगस्त की रात, काली और घनी अंधेरी होती जा रही थी, वैसे-वैसे पश्चिम पंजाब, पूर्वी बंगाल, सिंध, बलूचिस्तान इत्यादि स्थानों पर रहने वाले हिदू-सिखों के मकानों पर भय की छाया और गहरी होती जा रही थी. हिन्दु और सिखों के घरों, परिवारों और विशेषकर लड़कियों पर हमले लगातार तीव्र होते जा रहे थे. सीमावर्ती इलाकों में हिन्दुओं के मकानों में लगी आग की ज्वालाओं को दूर से देखा जा सकता था...! स्वतंत्रता / विभाजन की दिशा में जानेवाला एक और दिन समाप्त हो रहा था. 

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