केरल की महान आध्यात्मिक विभूति श्री नारायण गुरू



केरल की महान आध्यात्मिक विभूति श्री नारायण गुरू के विषय में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा – 

मैंने संसार के विभिन्न भागों की यात्रा की है | इस यात्रा में मुझे अनेक संत और ऋषियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है | परन्तु यह सत्य है कि मुझे कोई ऐसा आध्यात्मिक व्यक्तित्व नहीं मिला, जो केरल के श्री नारायण गुरू से महान हो | और न ही कोई ऐसा व्यक्तित्व मुझे मिला है, जिसने इनके समान आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की हो | 

तो आईये एक विहंगम दृष्टि श्री नारायण गुरू के जीवन - व्यक्तित्व और कृतित्व पर डालते हैं | 27 अगस्त 1856 को त्रिवेंद्रम से 12 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से गाँव चेम्बाजनती में एजावा जाति के परिवार में नारायण गुरू का जन्म हुआ | यह वह समय था जब केरल में अलग अलग जाति समूह को उच्चता या निम्नता के स्तर के अनुसार सवर्णों से दूरी रखनी होती थी | एजावा से 32 फुट से कम दूरी होने पर सवर्ण अशुद्ध हो जायेगा, ऐसी मान्यता थी | केरल की इसी स्थिति को देखकर स्वामी विवेकानंद ने इसे “भारत का पागलखाना” कहकर संबोधन दिया था | 

किन्तु इसके बाद भी पारस्परिक मेलजोल था | इसका प्रमाण है नारायण गुरू के गाँव का भगवती मंदिर, जिसके बाहर दो चबूतरे बने हुए थे, जिनमें से एक पर बैठकर सवर्ण नायर और दूसरे पर निम्न कहे जाने वाले एजावा बैठकर उत्सव के दौरान पूजन अर्चन करते थे | कई एजावा ऐसे भी थे, जिन्हें आयुर्वेद और संस्कृत का अद्भुत ज्ञान था | स्वयं नारायण गुरू के मामा बहुत बड़े संस्कृतज्ञ व वैद्य थे | 

नारायण गुरू को बचपन में सब लोग नानू कहकर पुकारते थे | उनके विद्वान मामा कृष्ण वाडियार ने पांच वर्ष की आयु में ही उनका अध्ययन प्रारम्भ करवा दिया था | नानू गायें भी चराते और श्लोकों का पाठ भी करते और उनका अर्थ भी समझते | उच्च शिक्षा के लिए 

संस्मरण – 

एक बार जब वे दूसरे बच्चों के साथ स्कूल से घर आ रहे थे, तब उन्होंने मार्ग में एक सन्यासी को देखा | उनके गेरुए वस्त्र, लंबी दाढी एवं बिखरे हुए केशों को देखकर बच्चों को बड़ा कौतुहल हुआ | कुछ शरारती बच्चों ने सन्यासी का मजाक उड़ाते हुए उन पर पत्थर फेंकना भी शुरू कर दिया | नानू छोटे थे और उन बच्चों को समझाने या रोकने में असमर्थ थे | वे और तो कुछ नहीं कर पाए, बस जोर जोर से रोना शुरू कर दिया | सब बच्चे घबरा गए, सन्यासी भी उनके पास आकर चुप करने का प्रयत्न करने लगे | पर नानू का रोना कम नहीं हुआ, तो सन्यासी उन्हें कंधे पर बैठाकर उनके घर पहुंचा कर आये, तब जाकर उनके रोने का कारण पता चला | 

जब वे मात्र छः वर्ष के थे, तब उनके घर में किसी निकट संबंधी की मृत्यु हो गई | दाह संस्कार के अगले ही दिन नानू को घर में न पाकर सब लोग परेशान हो गए | रात को एक हरिजन ने आकर सूचना दी कि उसने नानू को जंगल में छुप कर बैठे देखा है | नानू के मामा-मामी, भतीजे सब लोग भागकर वहां पहुंचे और गोद में उठाकर उन्हें घर लाये | जब उनसे पूछा गया कि जंगल में क्यों गए थे, तो उनका उत्तर सुनकर सब हैरत में आ गए – 

“दो दिन पहले चाचा की मृत्यु हुई तो सब कितना ro रहे थे, किन्तु कुछ देर बाद ही, सब पहले जैसे हो गए, हँसी मजाक चलने लगा, सारा दुःख कैसे दूर हो गया ? इसका जबाब सोचने ही जंगल में गया था | अब इतने छोटे बच्चे को कौन कैसे समझाता कि समय बड़े से बड़े दुःख का घाव भी भर देता है | 

बचपन का ही एक और प्रसंग है | नानू पर चेचक का प्रकोप हुआ तो बिना घर में किसी को बताये ये जंगल में स्थित देवी के मंदिर में चले गए | वहां कोई आता जाता नहीं था अतः कोई उन्हें ढूंढ भी नहीं पाया | बुखार, शरीर दर्द एवं बेचैनी अकेले झेली | नियमित स्नान, पूजन एवं ध्यान इसके बाद भी जारी रहा | रात के अँधेरे में मुंह ढककर आसपास के गाँवों में जाकर भीख मांग लाते और मंदिर में ही लौट आते | अठारह दिन की इस तपस्या के बाद वे ठीक होकर घर वापस पहुंचे तो मुख पर चेचक के दाग देखकर सब आतंकित और परेशान हुए | जब नानू ने यह बताया कि वह इसलिए मंदिर में चला गया था, ताकि परिवार के अन्य किसी सदस्य पर उसका कोई दुष्प्रभाव न पड़े तब सबको उन पर लाड भी आया और अभिमान भी हुआ | 

मामा ने सोचा कि जो बच्चा इतनी छोटी सी उम्र में इतना दृढ प्रतिज्ञ और सहनशील है, उसे पशु चराने या खेती बाडी में लगाना फिजूल है | इसे तो उच्च शिक्षा मिलना चाहिए | अतः एक सवर्ण विद्वान गुरू करुणागपल्ली के आश्रम में उन्हें भेजा गया | यहाँ सबको शिक्षा तो समान दी जाती थी, किन्तु जातीय भेदभाव भी था | नायर बच्चे आश्रम में ही रहते थे, किन्तु एजावा आश्रम के बाहर बने एक छात्रावास में ही रहते थे | नानू की कुशाग्र बुद्धि देखकर उन्हें गुरू ने क्लास का चट्टम्बी (मोनीटर) नियुक्त कर दिया | किन्तु 1879 में भयंकर पेचिस हो जाने के कारण उनका अध्ययन बीच में छोड़कर उन्हें घर वापस जाना पड़ा, जहाँ एक और बंधन उनकी प्रतीक्षा कर रहा था | 

घर आकर उन्होंने बच्चों को पढाना व मंदिर में गीता पर प्रवचन देना प्रारम्भ किया, साथ ही काव्य रचना भी | इसी दौरान रिश्तेदारों के अत्याधिक आग्रह को मानकर विवाह तो कर लिया, किन्तु पत्नी से दूर ही रहे | किसी तरह मध्यस्थ नाई ने एक बार पत्नी से बात कराने की कोशिश की तो सबके सामने पत्नी से बोले – 

इस संसार में मनुष्य अलग अलग उद्देश्यों को लेकर पैदा होता है| इसी प्रकार तुम्हारा और मेरा रास्ता अलग अलग है | तुम अपने रास्ते चलकर सुखी रहो और मुझे अपने रास्ते पर चलने दो | 

इतना कहकर नारायण स्वामी सभी दैहिक बंधनों को तोड़कर देशाटन को निकल पड़े | गीता में संभवतः ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है – “अनिकेतः स्थिर मति” | अर्थात ऐसा व्यक्ति जिसका मन तो स्थिर है, किन्तु जो नित्य अपना ठिकाना बदलता रहता है | 

जंगलों में कंद मूल फल खाकर उन्होंने योगाभ्यास भी किया | न उन्हें जंगली जानवरों का भय था न जानवर ही उनको कोई नुक्सान पहुंचाते थे | कभी कभी वनवासी उनको भोजन दे जाया करते थे | प्रथ्वी ही उनका बिछौना और भुजाएं ही उनका तकिया होतीं | उनके प्रथम शिष्य ने जो एक ओवरसियर था, उन्हें दो चीतों के साथ देखा | बाद में मरुथ्वापर्वत और पिलाथधाम के एकाकी जीवन को छोड़कर सांसारिक प्राणियों के साथ रहने को नानू योगी नीचे मैदान में आ गए | पवित्र आभा, करुणामई आँखें, कष्ट निवारक ह्रदयस्पर्शी उपदेश और शांतिदायक मुस्कान की छटा ने लोगों को आकृष्ट करना शुरू कर दिया | आध्यात्मिकता, विनय और निस्वार्थ भावना में उनकी महानता स्पष्ट दिखाई देती थी | 

वे समुद्र के किनारे ध्यानस्थ होकर बैठते, मछुआरे जो देते खा लेते और साथ ही सहज भाव से उनके काम में मदद भी करते | कुछ लोग उन्हें भिखारी कहते तो कुछ लोग सनकी भी कहते कि देखो एक संपन्न परिवार का लड़का कैसे फिजूल घूम रहा है | 

1888 में संसार के कोलाहल से दूर अरुवीपुरम के चेरूकुन्नु नामक स्थान पर सोपानी प्रपात के निकट जंगल में उन्होंने तपस्या प्रारम्भ की | शीघ्र ही एक सिद्ध पुरुष के रूप में उनकी ख्याति हो गई | स्वामी जी ने उसी स्थान पर एक शिव मंदिर बनाने की इच्छा व्यक्त की | उपस्थित श्रद्धालुओं के बीच शिवरात्री के दिन एक समतल चट्टान को पीठिका बनाया गया | शिवरात्री जागरण चल रहा था | ठीक अर्धरात्रि को स्वामी जी ने नदी में डुबकी लगाई और एक शिवलिंग लेकर बाहर निकले | उसे ही रात्रि तीन बजे पीठिका पर स्थापित किया गया | ॐनमः शिवाय का जाप लगातार चल ही रहा था | 

इस प्रकार उस भोर बेला में केरल में एक नए युग का प्रारम्भ हुआ | कालान्तर में जब वहां मंदिर निर्माण हुआ, तो श्री नारायण गुरू के इस जीवन सन्देश को एक प्रस्तर पर अंकित कर दिया गया – 

“यह एक आदर्श निवास, जहाँ रहते मानव भ्रातृ सम, धार्मिक द्वेषभाव और जातीय संकीर्णताओं से मुक्त हो “| 

वे केरल को ऐसा आदर्श राज्य बनाना चाहते थे, जिसे सारा विश्व उस परम सत्ता की ही अभिव्यक्ति लगे | “एक जाति, एक धर्म, एक भगवान” ही उनका सन्देश था, जो शीघ्र ही समूचे विश्व में फ़ैल गया | नानू स्वामी द्वारा स्थापित इस शिव मूर्ति ने मानो केरल के रुग्ण समाज का उपचार कर दिया था | नारायण स्वामी के आध्यात्मिक प्रभा मंडल के कारण भेदभाव से अत्याधिक ग्रस्त केरल में भी विरोध का कोई मुखर स्वर सुनाई नहीं दिए | एक युवा नम्बूदरी ब्राह्मण ने गुरू से पूछा – 

एक एजावा होकर शिवमूर्ति का अभिषेक करने का तुम्हें क्या अधिकार था ? 

गुरू ने शांत भाव से मुस्कुराते हुए कहा – “मैंने तो एजावा शिव का अनुष्ठान किया है |” 

इस हाजिर जबाबी ने उस युवक को निरुत्तर कर दिया | 

इसके बाद तो एक के बाद एक केरल में – तीस मंदिरों की स्थापना श्री नारायण गुरू द्वारा की गई, जिनमें आज बिना किसी विरोध के पूरी श्रद्धा से हर जाति का व्यक्ति पूजा करता है | 

सेक्यूलर पत्रकार उस जमाने में भी थे | एक पत्र के सम्पादक ने उनसे पूछा – “स्वामीजी, इन मूर्तियों या स्पष्ट रूप से कहूं तो इन पत्थरों के पूजन से क्या आप अंधविश्वासों को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं ?” 

अपनी सम्मोहक मुस्कान के साथ स्वामी जी ने प्रत्युत्तर दिया – “जन समुदाय ईश्वर को पूजता है, पत्थर को नहीं” | और फिर हंसते हुए कहा – “जब तक कि दूसरे लोग उससे ऐसा नहीं करवाते | जन समुदाय इस प्रकार तब तक नहीं सोचता, जब तक कोई उन्हें जानबूझकर भ्रमित न करे” | 

नारायण गुरू ने “अवर्णों” द्वारा अपने पूर्वजों, जनजातीय वीरों और वीरांगनाओं, नदियों, सर्पों, यहाँ तक कि भूत प्रेतों के पूजे जाने का भी विरोध नहीं किया, उनके विरुद्ध कुछ नहीं कहा | किन्तु वे उन लोगों को सहन नहीं कर पाते थे, जो पूजा के नाम पर मद्यपान करने या पशुबलि में विश्वास करते थे | उन्होंने कहा और जनता ने माना और सौ से अधिक स्थानों पर ऐसे तमाम देवी देवताओं के स्थान पर शिव-गणेश-सुब्रमण्यम की मूर्तियाँ स्थापित कर दी गईं और उनके अनुरूप सात्विक पूजन प्रारम्भ हो गए | सीधी सी बात है कि गुरू ने किसी देवी देवता के विरुद्ध कुछ नहीं कहा, पूजा के तौर तरीकों को लेकर आवाज उठाई | जिनके लिए मंदिर प्रवेश वर्जित था, उनके लिए नए मंदिर बनवाये | उनके मंदिरों में दिखावा नहीं होता, जो भी चढोतरी आती है, उससे स्कूल, पुस्तकालय, छात्रावास आदि खुलते हैं | इनके पुजारी निम्न वर्ग के तो होते हैं, किन्तु तंत्र, मन्त्र, शास्त्र, वेद, उपनिषद एवं आध्यात्म दर्शन का उन्हें नौ वर्ष का प्रशिक्षण अनिवार्य होता है | 

नारायण गुरू की सबसे विलक्षण उपलब्धि यह है कि उन्होंने अपनी विनीत पद्धति से रूढ़िवादिता को जड़ से उखाड़ फेंका | जिस केरल को स्वामी विवेकानंद ने अस्पृश्यता के चलते “पागलखाना” कहकर पुकारा था, वहां नारायण स्वामी के प्रयत्नों से अछूतोद्धार में अद्भुत प्रगति हुई है, और वह भी बिना किसी संघर्ष के | 

20 सितम्बर 1928 को 72 वर्ष की आयु में, सायं चार बजे यह महामानव अंतिमतः समाधिस्थ हो गया | स्वामी विद्यानंद उस समय योग वशिष्ठ का पाठ कर रहे थे | शोकाकुल अपार जनसमुदाय ने उन्हें अंतिम विदाई दी | 30 वर्गफुट क्षेत्र में सात फुट गहरी समाधि बनाई गई | चारों ओर से पत्थरों की पक्की चिनाई की गई | स्वामी जी के पार्थिव शरीर को आसन की मुद्रा में रखा गया और फिर सिर को छोड़कर शेष शरीर को नमक, कपूर, चन्दन आदि से भर दिया गया और सारे गड्ढे को बड़े पत्थर से ढक दिया गया | एक अद्वैत सन्यासी के लिए निर्धारित सभी संस्कार किये गए | 45 दिनों तक विशेष पूजा होती रही | 

दिनांक 5 जनवरी 2013 को श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा लिखित एक ब्लॉग के अंश विचारणीय हैं - 

महान योगी तथा सिध्द श्री नारायण गुरु द्वारा किये गए अस्पृश्यता और जातिवाद के विरुध्द अथक संघर्ष की प्रशंसा स्वयं महात्मा गांधी ने भी की है । 



श्री नारायण गुरु का जन्म ऐसे समय पर हुआ जब अस्पृश्यता का अपने घृणित रुप में चलन था। ऐसी भी गलत धारणा प्रचलित थी कि कुछ लोगों की छाया भी अन्यों को अपवित्र कर देती थी। एक समान आराध्य और धर्म को मानने वाले लाखों श्रध्दालुओं में से कुछ को मंदिर में प्रवेश से वंचित कर दिया गया था। 



शिवगिरी में सरस्वती की प्रतिमा स्थापित करने से पूर्व श्री नारायण गुरु ने अरुविप्पुरम में शिव मंदिर स्थापित किया। प्रत्येक वर्ष 30,31 दिसम्बर और 1 जनवरी को यहाँ एक विशेष आयोजन होता है। 30 दिसम्बर को इस आयोजन की औपचारिक शुरुआत राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा की गई। दूसरे दिन के तीर्थदनम सम्मेलन, के इस वर्ष का उद्धाटन मुझे करने को कहा गया था। इसकी अध्यक्षता केंद्रीय मंत्री वायलर रवि ने की। अंतिम दिन अनेक प्रमुख विद्वानों ने श्री नारायण गुरु द्वारा प्रतिपादित आचार संहिता (Code of Ethics) के विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार प्रस्तुत किए। 



अपने भाषण में मैंने एक दिन पूर्व मुख्यमंत्री ओमन चाण्डी द्वारा की गई घोषणा कि 2013 से श्री नारायण गुरु की शिक्षाओं को केरल राज्य में स्कूली पाठयक्रम में जोड़ा जाएगा, का स्वागत किया। 



वस्तुत: यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय विद्यालयों में इतिहास की पढ़ाई अधिकांशतया राजाओं, उनके वंश, उनके युध्दों और शोषण पर ही केंद्रित रहती है। हमारे विध्दानों, साधु-संतो के अविस्मरणीय योगदान से सामान्यतया बच्चों को अक्सर इस आधार पर वंचित रखा जाता है कि एक सेकुलर देश में धर्म वर्जित कर्म है। यह एक बेहूदा दृष्टिकोण है। अत: शिवगिरी में अपने भाषण में मैंने केंद्रीय मंत्री वायलर रवि से अनुरोध किया कि केरल द्वारा की गई पहल को केंद्रीय और अन्य राज्यों में भी अपनाया जाए। यदि स्वामी दयानन्द सरस्वती, श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द जैसे संतों की शिक्षाओं को पाठयक्रमों का सामान्य हिस्सा बना दिया जाए तो स्कूली पढ़ाई का स्तर बढ़ेगा। 



प्रवासी भारतीय मंत्री श्री रवि ने कहा कि वे इस विषय को प्रधानमंत्री के ध्यान में लाएंगे। 



उस दिन के अपने सम्बोधन में मैंने स्मरण किया कि स्कूल में पढ़ते समय हमें पता चला कि किसी विद्यार्थी की प्रतिभा के स्तर का आधार इस से आंका जाता था कि उसका ‘बौध्दिक स्तर‘ (इन्टेलिजेन्स क्वोशन्ट) कितना उपर या नीचे है। बाद में संयोग से एक पुस्तक ‘इ क्यू‘ यानी ‘भावात्मक स्तर‘ (इमोशनल क्वोशन्ट) पढ़ने पर मुझे लगा कि किसी के निजी व्यक्तित्व को परखने के लिए ‘बौध्दिक स्तर‘ (इन्टेलिजेंस क्वोशन्ट) महत्वपूर्ण होगा परन्तु उसका इ क्यू यानी‘भावात्मक स्तर‘ पर भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। ‘भावात्मक स्तर‘ से तात्पर्य यह है कि कैसे एक व्यक्ति क्रोध, द्वेष इत्यादि जैसे भावों को ग्रहण करता है। उस दिन मैंने कहा कि जो केरल ने किया है और जो मैंने देशभर के शैक्षणिक संस्थानों को करने के लिए अनुरोध किया, कुछ ऐसा है जो हमारे सभी देशवासियों का ‘आध्यात्मिक स्तर‘ (स्पिरिचवल क्वोशन्ट) भी बढ़ाएगा। एस क्यू (स्पिरिचवल क्वोशन्ट) धारणा गढ़ते समय मेरे मन में किसी धर्म या पंथ का विचार नहीं था, मैं तो सिर्फ उन नीतिपरक और नैतिक मूल्यों के बारे में सोच रहा था जो एक विद्यार्थी अपने संस्थान से ग्रहण कर सकता है। 



सन् 1902 में अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व स्वामी विवेकानन्द जी ने टिप्पणी की थी कि देश को एक ऐसी मनुष्य निर्माण मशीन की जरुरत है जो एम पूंजी के साथ मनुष्यों का निर्माण कर सके। उनके दिमाग में ऐसे मनुष्य रहे होंगे जो आइ क्यू, इ क्यू और एस क्यू सम्पन्न हों यानी वे मनुष्य जो अपवाद रुप उच्च चरित्र और असाधारण योग्यता तथा प्रतिभा सम्पन्न हो। 



यदि हमारे शैक्षणिक संस्थान स्वामी विवेकानन्द द्वारा विचारित मनुष्य निर्माण मशीनरी को अमल में लाने में सफलता प्राप्त करते हैं तो यह देश के लिए अनुकरणीय सेवा होगी। 

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