स्वामी विवेकानंद का शिकागो आख्यान और वर्त्तमान परिद्रश्य !


(एक विनम्र आग्रह - इस लेख को कृपया पूरा अवश्य पढ़ें)

११ सितम्बर १८९३ को गुलाम देश भारत का गैरिक वस्त्रधारी सन्यासी एश्वर्य के प्रतीक माने जाने बाले अमरीका के जगमगाते शहर शिकागो में सर्व धर्मं सम्मलेन सभामंच पर लोगों का दिल जीत लेता है | आज भी ११ सितम्बर है | १८९३ में भारतीय जनमानस परतंत्रता के कारण आत्मविश्वास शून्य था, तो आज अनास्था के दौर से गुजर रहा है | शिष्टाचार की परिभाषाएँ ही बदल गईं हैं | भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन चुका है | एसे में स्वामी विवेकानंद का आत्म विश्वास प्रेरणा देता है |

गुरू की आज्ञा मानकर अमरीका पहुँच तो गए, किन्तु जेब में अर्थ का अभाव | जाकर मालुम हुआ कि सम्मलेन की तिथि आगे खिसक गई है | शिकागो महंगा शहर इसलिए पास के होस्टन शहर में पहुँच गए | ना रहने का ठिकाना न भोजन की व्यवस्था | 
प्रातःकाल सडक पर घूम रहे थे ! 
आसपास और भी पश्चिमी परिधान युक्त नागरिक प्रातःकालीन सैर पर निकले हुए थे | 
स्वाभाविक ही स्वामी जी का लिबास उनके लिए कौतुहल कारक था | ऐसे में एक दंपत्ति बहां से गुजरे तथा महिला के शव्द स्वामीजी के कानों में पड़े – देखो कैसा विचित्र पहनावा है ? यह व्यक्ति सभ्य नहीं दिखता | 
भला स्वामीजी इसे कैसे सहन करते ? उन्होंने तुरंत प्रतिउत्तर दिया | महोदया मैं ऐसे देश से आया हूँ, जहां चरित्र सभ्य बनाता है | किन्तु लगता है आपके यहाँ यह काम दर्जी को सोंपा गया है |

अभिभूत पति महोदय ने पूछा यहाँ किसे ढूंढ रहे हैं, सन्यासी ने हंसकर उत्तर दिया आपको | 
चकित व्यक्ति का अगला प्रश्न था, यहाँ कोई मित्र है ? 
हाँ है न, आप ही हैं | 
यह सज्जन और कोई नहीं विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर राईट थे ! उन्होंने ही बाद में परिचयपत्र देकर विवेकानंद जी को सर्वधर्म सम्मलेन में भेजा !

इसे क्या कहा जाये कि आज देशवासी केवल इतना जानते हैं कि स्वामीजी ने अपना भाषण बहनों और भाइयो से शुरू किया और हाल में देर तक तालियाँ बजती रही | स्वामीजी ने उस गुलामी के कालखंड में ओज का जो संचार किया, उसका पूर्ण ज्ञान होना वर्त्तमान परिस्थिति में भी दिशादायक है | भारत की आत्मा, भारत की आदर्श सांस्कृतिक विरासत ने वस्तुतः अमरीका के वासिंदों को प्रभावित किया था | उस सर्व धर्म सम्मलेन में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि -

अमेरिकावासी बहनों तथा भाईयों।

आपने जिस सौहार्द्र और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रगट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में सन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं। धर्माें की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं, और सभी सम्प्रदायों एवं मतों केे कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं।

मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वस्तुओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्हांेने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है, कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशांे में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मुझे ऐसे धर्मावलंबी होने का गौरव है, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्माें प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्माें को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्माें को तथा देशों के उत्पीडि़तों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। 

मुझे यह बतलाते हुए गर्व की अनुभूति हो रही है कि जिस समय यहूदियों का पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया, उसी समय दक्षिण भारत आये अभिजात यहूदी परिवारों को भारत में सहारा मिला । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। 

मैं आप लोगों को उस स्त्रोत के कुछ पद सुनाता हूँ, जिसे मैं बचपन से गाता आया हूँ | और जिसे प्रतिदिन लाखों लोग गाया करते हैं –

रुचीनां वैचित्र्या द्रजुकुटिल नानापथजुषाम,

नृणामेकोगम्यस्त्वमसि पय सामर्णव इव |

अर्थात जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्त्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े मेढे या सीधे रास्ते से जाने बाले लोग अंत में तुममें ही जाकर मिल जाते हैं

यह सभा जो संसार की अब तक की सर्वश्रेष्ठ सभाओं में से एक है, जगत के लिए गीता के उस अद्भुत उपदेश की घोषणा एवं विज्ञापन के लिए उपयुक्त है, जो हमें बतलाता है कि –

ये यथामाम्प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम |

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||

जो मेरी और आता है, चाहे जिस प्रकार हो, मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ ! लोग भिन्न भिन्न मार्ग से प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही और आते हैं !

जो कोई मेरी ओर आता है, चाहे किसी प्रकार से हो, मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।

साम्प्रदायिकता, संकीर्णता और इससे उत्पन्न धर्म विषयक भयंकर उन्मत्तता इस सुन्दर प्रथ्वी पर बहुत समय राज्य कर चुकी है | इन्होने अनेकों बार मानव रक्त से धरणी को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली तथा समस्त जातियों को हताश कर दिया | यदि यह सब ना होता तो मनुष्य आज से कहीं अधिक उन्नत होता | पर अब समय आ गया है, और मैं आंतरिक रूप से आशा करता हूं, कि जो घंटे आज सुबह सभा के प्रारम्भ में बजाये गए, वे समस्त आक्रांताओं, तलवार या लेखनी की दम पर किये जाने बाले अत्याचारों तथा हर प्रकार की कटुता के लिए मृत्युनाद ही सिद्ध होंगे !”

विश्वधर्म-महासभा एक मूर्तिमान तथ्य सिद्ध हो गई है, और दयामय प्रभु ने उन लोगों की सहायता की है, तथा उनके परम निस्वार्थ श्रम को सफलता से विभूषित किया है, जिन्होंने इसका आयोजन किया।

उन महानुभावों को मेरा धन्यवाद है, जिनके विशाल हृदय तथा सत्य के प्रति अनुराग ने पहले इस अद्भुत स्वप्न को देखा और फिर उसे कार्य रूप में परिणत किया। उन उदार भावों को मेरा धन्यवाद, जिनसे यह सभामंच आप्लावित होता रहा है। इस प्रबुद्ध श्रोतृमण्डली का धन्यवाद, जिसने मुझ पर अविकल कृपा रखी है और जिसने मत-मतान्तरों के मनोमालिन्य को हल्का करने का प्रयत्न करने वाले प्रत्येक विचारांे का सत्कार किया है। इस समसुरता में कुछ बेसुर स्वर भी बीच-बीच में सुने गये हैं, उन्हें मेरा विशेष धन्यवाद, क्योंकि उन्होंने अपने स्वर वैचित्रय से इस समरसता को और भी मधुर बना दिया है।

धार्मिक एकता की सर्वसामान्य भित्ति के विषय में बहुत कुछ कहा जा चुका है। इस समय मैं इस संबंध में अपना मत आपके समक्ष नहीं रखूंगा, किन्तु यदि वहाॅ कोई यह आशा कर रहा है, कि यह एकता किसी एक धर्म की विजय और बाकी सब धर्माें के विनाश से सिद्ध होगी तो उनसे मेरा कहना है, कि ‘‘भाई, तुम्हारी यह आशा असम्भव है।‘‘ क्या मैं यह चाहता हूं कि ईसाई लोग हिन्दू हो जाएॅं ? कदापि नहीं। ईश्वर ऐसा न करें। क्या मेरी यह इच्छा है कि हिन्दू या बौद्ध लोग ईसाई हो जाएॅं ? ईश्वर इस इच्छा से बचाए।

बीज भूमि में बो दिया गया और मिट्टी, वायु तथा जल उसके चारों ओर रख दिए गए, तो क्या वह बीच मिट्टी हो जाता है ? अथवा वायु या जल बन जाता है ? नहीं वह तो वृक्ष ही होता है। वह अपनी वृद्धि के नियम से ही बढ़ता है। वायु, जल और मिट्टी को अपने में पचाकर, उनको अभिज्य पदार्थ में परिवर्तित करके एक वृक्ष हो जाता है।

ऐसा ही धर्म के संबंध में भी है। ईसाई को हिन्दू या बौद्ध नहीं हो जाना चाहिए और न ही हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही। पर हाॅ प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सारभाग को आत्मसात करके पुष्टिलाभ करें और अपने वैशिष्टय की रक्षा करते हुए अपनी निजी वृद्धि के नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हों।

इस धर्म-महासभा ने जगत् के समक्ष यदि कुछ प्रदर्शित किया है तो वह यह है, कि उसने यह सिद्ध कर दिया है, कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी सम्प्रदाय विशेष की एकान्तिक सम्पत्ति नहीं है, एवं प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नत चरित्र स्त्री-पुरूषों को जन्म दिया है।

अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजूद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखें कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जाएंगे और केवल उसका धर्म जीवित रहेगा तो उस पर मैं अपने हृदय के अन्तस्तल से दया करता हूं और उसे स्पष्ट बतलाएॅ देता हूं कि शीघ्र ही, सारे प्रतिरोधों के बावजूद, प्रत्येक धर्म की पताकापर यह लिखा रेगा-‘‘सहायता करो, लड़ो मत, परभाव-ग्रहण, न कि परभाव-विनाश, समन्वय और शान्ति, न कि मतभेद और कलह।‘‘

क्या उक्त विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक नहीं हैं ? क्या आज भी पीत पत्रकारिता की कलम और नृशंश पशुबल कहर नहीं बरपा रहा है ? कब बजेंगे वे घंटे जो अत्याचारों का मृत्युनाद सिद्ध होंगे |


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