दलित सवर्ण संघर्ष – समस्या के समाधान हेतु विश्लेषण आवश्यक !


25 अप्रैल 2012 को दैनिक जागरण में एक समाचार प्रकाशित हुआ - माया-राज में दलित उत्पीड़न के 3551 केस निकले फर्जी। समाचार हाथरस के एक अधिवक्ता गौरव अग्रवाल द्वारा गृह मंत्रालय से आरटीआइ आवेदन के तहत माँगी और प्राप्त की गई जानकारी से सम्बंधित था। 

गौरव अग्रवाल को आरटीआई के तहत जो जानकारी गृह मंत्रालय से मिली, उसके आंकड़े आज के सामाजिक तनाव के माहौल में गंभीरता से विचार करने योग्य हैं। उत्तर प्रदेश को हांडी का एक चावल माना जा सकता है, जो स्थिति परिस्थिति वहां की है कमोबेश वही समूचे जातीय विद्वेष से प्रभावित क्षेत्रों की भी कही जा सकती है। 

गौरव अग्रवाल ने पूछा था कि यूपी में 2007 से 2010 के दौरान दलित उत्पीड़न के कितने मामले दर्ज किए गए? इनमें से कितने फर्जी निकले? कितनों को गिरफ्तार किया गया और कितने केस लंबित हैं? स्मरणीय है कि मई 2007 में ही मायावती उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ होकर मुख्यमंत्री बनी थीं, तथा दलित उत्पीडन अधिनियम का सर्वाधिक दुरूपयोग उसी समय में हुआ, ऐसा कहा जाता रहा है और उन्हीं आरोपों के चलते अगले चुनावों में उनकी करारी शिकश्त भी हुई थी। 

गौरव की अर्जी पर गृह मंत्रालय के जनसूचना अधिकारी आरबी सिंह ने बताया कि अनुसूचित जाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अंतर्गत 2007 में 6136 मामले दायर किए गए थे। इनकी जांच हुई तो 575 मामले फर्जी निकले। दलितों पर अत्याचार के आरोप में 15,917 लोग गिरफ्तार किए गए। 

उसके अगले साल सर्वाधिक दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज किए गए। ये आरोप भी लगे कि दलितों ने सवर्णो को फंसाने के लिए दलित उत्पीड़न एक्ट को हथियार मान लिया है। 2008 में दर्ज 7960 मामलों में 843 फर्जी निकले। इस दौरान 21,344 लोगों की गिरफ्तारी की गई। 

अगले साल 2009 में जन आक्रोश बढ़ने लगा, अतः दर्ज हुए 7461 में से जांच में फर्जी मामलों की संख्या बढी और 1227 मामले फर्जी निकले। गिरफ्तारी हुई 20,645 की। इसके बाद मुख्यमंत्री थोड़ी और सतर्क हुई, नतीजा यह निकला कि स्थितियां कुछ सुधरीं और 2010 में दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज कुछ कम होकर 6272 तक पहुंचा और गिरफ्तारी भी कम हुईं 18,774 की। इनमें से भी जांच में 906 केस फर्जी पाए गए। गिरफ्तार हुए लोगों में से 13,227 को सजा भी हुई। 

अर्थात 2007 में जांच के दौरान 9.37 प्रतिशत मुकदमे फर्जी माने गए, 2008 में 10.59 प्रतिशत फर्जी माने गए, 2009 में फर्जी मुकदमों का आंकड़ा था – 16.44 और 2010 में यह हो गया – 14.44। 

सीधी सी बात है कि तथाकथित दलित हितैषी सरकार के दौरान औसतन 12 प्रतिशत फर्जी मुकदमे दर्ज हुए। लेकिन ख़ास बात यह है कि शेष मामलों में अधिकांशतः सजा ही हुई | जैसा कि 2010 का उपरोक्त विवरण दर्शाता है। 18,774 में से 13,227 लोगों को सजा हुई, अर्थात न्यायालय ने आरोपों को सही माना। 

क्या इनसे निष्कर्ष यह नहीं निकाला जाना चाहिए के दलित उत्पीडन के लगभग 85 प्रतिशत मामले सही होते हैं ? बेशक औसतन 15 प्रतिशत फर्जी भी होते हैं। इन 15 प्रतिशत बदमाशों के चलते क्या 85 प्रतिशत सीधे साधे दलित / वनवासियों को प्रताड़ित होने देना चाहिए। 

सवर्णों में भी बदमाश होते हैं, जो कमजोरों को प्रताड़ित करते हैं, और अवर्णों में भी लगभग समान अनुपात में असामाजिक लोग होते हैं, जिनका पेशा ही है – अपराध, ब्लैकमैलिंग। 

अब सबसे अहम सवाल कि केवल बदमाश सजा पायें और निरपराध प्रताड़ित न हों, इसका तरीका क्या ? इसका क्या तंत्र बने ? इसके लिए क्या कांग्रेस - क्या भाजपा, क्या सत्ता - क्या विपक्ष, क्या आम नागरिक, सबको मिलकर चिंतन करना चाहिए और रास्ता खोजना चाहिए, अन्यथा समाज लगातार विद्वेष की आग में झुलसता रहेगा और यह चिंगारी हमारे सामाजिक ताने बाने को छिन्नभिन्न कर देगी। इस समय राजनीति की नहीं, सद्भाव की जरूरत है।

क्योंकि इस समस्या को दलगत राजनीति से नहीं देखा जा सकता। 22 अक्टूबर 2015 को नवभारत टाईम्स ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसके अनुसार भाजपा शासन आने के पूर्व भी दलित प्रताड़ना कोई कम नहीं थी। देखिये रिपोर्ट क्या कहती है – 

जब UPA सरकार सत्ता में थी तो उस दौरान अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराध की घटनाओं में वृद्धि दर्ज की गई थी। 

साल 2014 में दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों के 47,064, 2013 में 39,408, साल 2012 में 33,655, साल 2011 में 33,719, साल 2010 में 32,712 और साल 2009 में 33,594 मामले दर्ज किए गए थे। 

साल 2014 में 744, साल 2013 में 676, साल 2012 में 651, साल 2011 में 673, साल 2010 में 570 और साल 2009 में 624 दलितों की हत्या कर दी गई। 

तो यह साफ़ होता है कि समस्या का समाधान सत्ता के पास नहीं है, किसी सत्ता के पास नहीं है। 

समाधान केवल समाज के माध्यम से निकल सकता है, बशर्ते राजनेता रायता न फैलाएं। 

परन्तु क्या वे मानेंगे ? 

उसके लिए भी समाज को ही जागृत होकर उनकी बोलती बंद करनी होगी। 

आज जिस एक्ट को लेकर सबसे ज्यादा विवाद की स्थिति बनी है, उसमें केवल एक संशोधन सारे विवाद को समाप्त कर सकता है -

न्यायालय द्वारा आरोप झूठा साबित होने पर - शिकायत कर्ता को कठोर सजा का प्रावधान हो ! 

इससे झूठी शिकायतों पर रोक लगेगी और कोई भी अकारण प्रताड़ित नहीं होगा !

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