मायावती खतरे में ????


चोंकिये नहीं ! 

मैं उनके किसी किस्म के शारीरिक नुक्सान की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि उनके प्रभुत्व को चुनौती देने वाले एक शख्स के अभ्युदय की ओर इशारा कर रहा हूँ | कल जब जेल से रिहा होने के बाद भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर ने मायावती को अपनी भुआ बताया, तो मायावती ने तल्ख़ लहजे में इस रिश्ते को नकार दिया | क्या अर्थ निकलता है, इस समाचार का, यह जानने से पहले आईये भीम आर्मी और उसके संस्थापक चन्द्रशेखर के विषय में कुछ गौर करें | 

सहारनपुर में एक महाविद्यालय है, नाम है एएचपी कॉलेज | यहाँ से ही इस चर्चित शख्स चंद्रशेखर ने अपना केरियर शुरू किया | कॉलेज में दाखिला लेते ही चंद्रशेखर ने राजपूत विद्यार्थियों के खिलाफ मोर्चा संभालते हुए दलित छात्रों को संगठित करने का काम शुरू कर दिया | परिणाम हुआ कि हर रोज तू-तू, मैं-मैं, नोकझोंक और मारपीट होने लगी | छात्र महाविद्यालय में ही नहीं, अन्य स्थानों पर भी टकराने लगे | दोनों ओर के छात्र पिटने और पीटने लगे | इसमें कई बार राजपूत छात्र भी घायल हुए तो इससे दलित नौजवानों की हिम्मत बढ़ने लगी और देखते ही देखते यही कॉलेज भीम आर्मी का प्रेरक केंद्र बन गया | चंद्रशेखर ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए अपने नाम के साथ उपनाम “रावण” जोड़ लिया | 

पिछले वर्ष सहारनपुर के शब्बीरपुर में हुई जातीय हिंसा के बाद चंद्रशेखर उपाख्य “रावण” और उसके संगठन “भीम आर्मी” का नाम और अधिक सुर्ख़ियों में आ गया । पढ़े लिखे और पेशे से वकील चंद्रशेखर ने पहली बार दलित आन्दोलन में सोशल मीडिया का प्रभावी उपयोग किया और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दलितों में अपनी पैठ मजबूत कर ली । बैसे भी देश में विभाजनकारी तत्वों को मीडिया द्वारा सहज मान्यता मिल जाती है | अतः जब उसके नेतृत्व में दलितों ने हिंदू-धर्म को त्यागने तक का ऐलान किया तो पूरे देश की मीडिया ने उसे हीरो बना दिया । मई 2017 में सहारनपुर के तीन गांवों के 180 दलित परिवारों ने हिंदू-धर्म को त्यागकर बौद्ध-धर्म अपनाया। इसके बाद सहारनपुर के ही पांच गांवों के 50 लोगों ने बौद्ध-धर्म अपनाया। 

चंद्रशेखर ने फेसबुक और व्हाट्सअप के जरिए लोगों को भीम आर्मी से जोड़ने का काम किया। इसका असर तब देखने को भी मिला, जब सहारनपुर जातीय हिंसा के बहाने भीम आर्मी सेना ने 21 मई 2017 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन आयोजित किया | यह एक प्रकार से भीम आर्मी का शक्ति प्रदर्शन ही था, जिसमें हजारों की संख्या में युवा पहुंचे । जंतर-मंतर पर भीम आर्मी की भीड़ को देख राजनीतिक पार्टियां भी हैरान रह गई। पहली बार में ही इतनी भीड़ को साथ लाना कोई आसान काम नहीं था । 

देखते ही देखते भीम आर्मी की प्रेरणा से दलितों में अलग अलग स्थानों के नाम से भी भीम आर्मी गठित होने लगीं | जैसे कि भीम आर्मी मौदहा जिसकी औपचारिक रूप से स्थापना वर्ष 2018 में हुई | इस संगठन का उद्देश्य मौदहा में दलितों के हितों की रक्षा और दलित समुदाय के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना था | दलित चेतना के जागरण का एक उदाहरण ध्यान देने योग्य है | सहारनपुर-देहरादून रोड पर बसे घड़कौली गांव के बाहर एक बोर्ड लगा जिस पर लिखा था- ‘दे ग्रेट चमार’| यह बोर्ड एक प्रकार से ‘द ग्रेट राजपूताना’ नामसे पूर्व स्थापित संगठन को चुनौती ही थी | अब शुरू हुआ विवाद और राजपूत युवकों ने ‘दे ग्रेट चमार’ लिखे इस बोर्ड पर कालिख पोत दी | बात तू-तू, मैं-मैं से होते हुए मारपीट में तब्दील हो गयी | इसके बाद गांव में आंबेडकर की मूर्ति पर भी कालिख पोत दी गयी | जैसे ही ‘भीम आर्मी’ के सदस्यों को इसकी जानकारी मिली, उन्होंने मोर्चा संभाल लिया और नतीजा यह हुआ कि ‘द ग्रेट राजपूताना’ के सदस्यों को अपने पैर वापस खींचने पड़े | 

तो इस सब घटनाचक्र के वर्णन का उद्देश्य बस इतना भर बताना है कि आज दलितों में नए जुझारू नायक पैदा हो रहे हैं | कहाँ एक ओर महज कांसीराम के नाम का लाभ लेकर महारानी बनी धन की भूखी मायावती और उनका संगठन बहुजन समाज पार्टी और कहाँ यह जुझारू और मैदानी दलित कार्यकर्त्ता | अगर समाज मान्यता नए नेतृत्व को मिली, तो मायावती का अस्तित्व कहाँ बचेगा ? ग्वालियर चम्बल अंचल में भी भीम आर्मी की उपस्थिति पिछले दिनों हुए भारत बंद के दौरान स्पष्ट दिखाई दी है | पढ़े लिखे और सोशल मीडिया के जानकारों की यह मैदानी टोली, अहंकारी मायावती के अस्तित्व को सबसे बड़ा संकट बन सकती है | मायावती भी इसे समझती हैं, इसीलिए उन्होंने चंद्रशेखर के प्रति तल्खी दिखाई है |

जहाँ तक देश हित की बात है, विभाजनकारी हर ताकत एक संकट ही है | चाहे बहुजन समाज पार्टी हो चाहे भीम आर्मी | दुर्भाग्य पूर्ण परिस्थिति यह भी है कि सामाजिक समरसता की बात तो केवल और केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही करता दिखाई देता है, जबकि शेष सभी तो भाई भाई के बीच खाई खोदने में ही लगे हुए हैं |

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