नलसर, हैदराबाद के एक विधि छात्र श्री शुभम तिवारी का तर्कपूर्ण आग्रह – सबरीमला निर्णय की पुनः समीक्षा करे सर्वोच्च न्यायालय !

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तीन बामपंथी लेखकों ने समाचार पत्रों में आलेख लिखे - बरखा दत्त, वीर संघवी और शारवानी पंडित ! उन लेखों से पंजाब के बकीलों की एक पंजीकृत एसोसिएशन को जुलाई 2006 में यह जानकारी मिली सबरीमला में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध है । 

और इन लोगों ने आनन फानन में एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर कर दी, जबकि उनमें से कोई भी नातो केरल के स्थानीय निवासी हैं और नाही वे अयप्पा के भक्त हैं | इतना ही नहीं तो उन्होंने केरल सरकार के विरुद्ध याचिका लगाई, जो कि सभी जानते हैं कि बामपंथी ही है | तो लब्बो लुआब यह कि बामपंथी लेखकों ने लेख लिखे, बामपंथी बकीलों ने उन लेखों को कोट करते हुए, बामपंथी सरकार को पक्षकार बनाते हुए याचिका लगाई | बेचारे अयप्पा भक्तों को तो अपना पक्ष रखने का भी अवसर नहीं मिला । पक्ष भी मैं, विपक्ष भी मैं तो नतीजा क्या होगा ?

यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस निर्णय के बाद केरल जैसे ठेठ मातृसत्तात्मक समाज की लाखों महिलाएं अपने भगवान के ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए सड़कों पर आ गई हैं । दुर्भाग्य से स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया द्वारा इस भावना को पूरी तरह नजर अंदाज किया जा रहा है। 

सुप्रीम कोर्ट में एक पुनर्विचार याचिका भी दायर की गई है, दशहरा के बाद जिसकी सुनवाई का फैसला न्यायालय ने लिया है। यह एक ऐसा मामला है जहाँ निर्णय देते समय उन लोगों का पक्ष सुना ही नहीं गया, जो उससे सीधे तौर पर प्रभावित होने जा रहे हैं | इस निर्णय ने यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि क्या अब सर्वोच्च्च न्यायालय धार्मिक अनुष्ठान कैसे किये जाएँ और कैसे नहीं, इसमें भी हस्तक्षेप करेगा ? अगर करेगा तो इसके परिणाम क्या होंगे ? 

भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से विविध देश में, जहाँ लाखों देवता है, और उनमें से कई की पूजा की पद्धतियाँ भी अनेक स्थानों पर अलग अलग प्रकार की हैं, विशिष्ट और विविध मान्यतायें हैं, अनुष्ठान और प्रथाएं हैं। यह हिंदू धर्म की परंपरागत बहुलता की सुंदरता है जो अब्राहमिक लोगों के विपरीत है जिन्हें एक पुस्तक, एक पैगंबर और एक धर्म के एकीकृत आदेश के तहत सुव्यवस्थित किया गया है। 

उदाहरण के लिए भारत के 51 शक्ति पीठों में से एक असम में मां कामख्या मंदिर को देखें, जहां देवी के मासिक धर्म वाले रजस्वला स्वरुप रूप की पूजा की जाती है, और वहां महिलाओं को मासिक धर्म चक्र के दौरान भी परिसर में प्रवेश करने की अनुमति है और तो और उस दौरान इस मंदिर में किसी भी पुरुष को प्रवेश की अनुमति नहीं है। केवल महिला पुजारी या सन्यासी ही मंदिर में पूजन अर्चन आदि करती हैं | जहां देवी सती के मासिक धर्म को बहुत शुभ माना जाता है और भक्तों को वह वस्त्र वितरित किये जाते है। 

भारत में सब दूर मासिक धर्म की धारणा है, तथा उसे शरीर की प्रदूषित अवस्था के रूप में माना जाता है, किन्तु ये अतिउत्साही याचिकाकर्ता सबरिमला मामले में उसकी तुलना संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता की सीमा तक करने पहुँच गए । केरल में अटुकल भगवती मंदिर, राजस्थान के पुष्कर में जगत पिता ब्रह्मा मंदिर या कन्याकुमारी में भगवती मां मंदिर जैसे कई हिंदू मंदिर हैं जो पुरुषों को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की इजाजत नहीं देते हैं | यह कोई "भेदभाव के आधार पर लैंगिक असमानता” का मामला नहीं है, वस्तुतः पूजा के हिंदू तरीकों में मौजूद" पारंपरिक बहुलता " के आदर्श उदाहरण है। 

इसी प्रकार सबरीमाला में परिसर में प्रवेश करने के लिए 41 दिनों का व्रत अनिवार्य होता है और चूंकि युवावस्था के दौरान रजोनिवृत्ति के कारण महिलाएं इस व्रत का पालन नहीं कर सकती हैं, इसलिए उन्हें अनुमति नहीं है | इस प्रथा का मूल तत्व है – व्रत | यहां तक ​​कि जो पुरुष भी इसका पालन नहीं कर पाते, उन्हें भी अनुमति नहीं दी जाती है। यह प्रतिबन्ध अयप्पा के लगभग 1000 अन्य मंदिरों में नहीं है केवल इस प्रमुख मंदिर में ही है । 

सबरीमाला के निर्णय से यह आभास मिलता है, मानो अदालत अब यह निर्णय कर रही हो कि हमारा भगवान कैसे होना चाहिए? मानो उन्हें एक व्यक्ति और एक समुदाय की पूजा, आस्था और पूजन पद्धति को निर्धारित करने के लिए एक असीमित शक्ति हासिल हो । जहाँ तक हिंदूओं का सवाल है, वे तो असीमित धैर्य रखने वाले हैं, लेकिन उस समय क्या होगा, अगर अन्य धर्मों पर भी इसे लागू करने का प्रयास होगा ? सबरीमला प्रकरण संविधान और नैतिकता की कृत्रिम अवधारणाओं के माध्यम से लोगों की आस्था और लोगों के जीवन को न्यायालयों द्वारा निर्देशित करने की राज्य कोशिश का मामला है। 

आजकल हिंदू मंदिरों के राष्ट्रीयकरण का दौर चल रहा है और भारत में न्यायालयों की बहादुरी केवल हिंदुओं तक ही सीमित है। एक बहुत ही हैरतअंगेज मामले को देखिये | जोरोस्ट्रियन को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी ने निर्णय किया कि केवल पारसी समाज के लोग ही में उनकी सोसायटी के फ्लैट ले सकेंगे | इतना ही नहीं तो बाद में भी कोई फ्लैट मालिक केवल पारसियों को ही अपना फ्लेट बेच सकेंगे | अब यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 का स्पष्ट उल्लंघन है जो धर्म के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है | लेकिन माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हाउसिंग सोसाइटी की सार्वजनिक प्रकृति के तथ्य के बावजूद अनुबंध की आजादी तर्क को मानते हुए इसे कायम रखा । यह कितना दुर्भाग्य पूर्ण और दुखद है कि, हम ऐसे युग में रह रहे हैं जहां भारत में एक हाउसिंग सोसाइटी के पास हिंदू मंदिरों के मुकाबले अधिक अधिकार हैं। 

विश्व में एकमात्र भारत ऐसा सांस्कृतिक देश है जो देवी के रूप में महिला को मान्यता देता है | यदि आप हिंदू देवताओं के पूरे मंत्रिमंडल को देखेंगे, तो वित्त मंत्रालय लक्ष्मी, सरस्वती के लिए शिक्षा मंत्रालय और काली को रक्षा मंत्रालय दिया गया है। हमें आशा है कि हमारे सुप्रीम कोर्ट को यह एहसास होगा कि हिन्दू धर्म तो ईश्वर के "अर्धनारीश्वर स्वरुप" में विश्वास करता है, ब्रह्मांड की पुरुष और स्त्री ऊर्जा का संश्लेषण करता है और दिखाता है कि कैसे शिव से शक्ति अविभाज्य है | सबरीमला परंपराओं और मान्यताओं की बहुलता का एक विशिष्ट उदाहरण है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए, इसका लिंग आधारित भेदभाव या शुद्ध या प्रदूषित शरीर के कृत्रिम रूप से तैयार विचारों से कोई लेना-देना नहीं है, उम्मीद है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय इसे अपने संज्ञान में लेकर अपने निर्णय की समीक्षा करेगा ।

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क्रांतिदूत : नलसर, हैदराबाद के एक विधि छात्र श्री शुभम तिवारी का तर्कपूर्ण आग्रह – सबरीमला निर्णय की पुनः समीक्षा करे सर्वोच्च न्यायालय !
नलसर, हैदराबाद के एक विधि छात्र श्री शुभम तिवारी का तर्कपूर्ण आग्रह – सबरीमला निर्णय की पुनः समीक्षा करे सर्वोच्च न्यायालय !
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