मनों को जोड़ने वाले सेतु - भैय्या जी दाणी



राष्ट्रीय_स्वयंसेवक_संघ🚩 की परम्परा में प्रचारक अविवाहित रहकर काम करते हैं; पर कुछ अपवाद भी होते हैं। ऐसे गृहस्थ प्रचारकों की परम्परा के जनक प्रभाकर बलवन्त दाणी का जन्म नौ अक्तूबर, 1907 को उमरेड नागपुर में हुआ था। आगे चलकर ये भैया जी दाणी के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये अत्यन्त सम्पन्न पिता के इकलौते पुत्र थे। उनके पिता श्री बापू जी लोकमान्य तिलक के भक्त थे। अतः घर से ही देशप्रेम के बीज उनके मन में पड़ गये थे, जो आगे चलकर डा0 हेडगेवार के सम्पर्क में आकर पल्लवित पुष्पित हुए।


भैया जी ने मैट्रिक तक पढ़ाई नागपुर में की। इसके बाद डा0 हेडगेवार ने उन्हें पढ़ने के लिए काशी भिजवा दिया। वहाँ उन्होंने शाखा की स्थापना की। नागपुर के बाहर किसी अन्य प्रान्त में खुलने वाली यह पहली शाखा थी। इसी शाखा के माध्यम से श्री गुरूजी को भैयाजी दाणी ही संघ मे लाये थे, जो डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद सरसंघचालक बने।

काशी से लौटकर भैया जी ने नागपुर में वकालत की पढ़ाई की; पर संघ कार्य तथा घरेलू खेतीबाड़ी की देखभाल में ही सारा समय निकल जाने के कारण वे वकालत नहीं कर सके। विवाह के बाद भी उनका अधिकांश समय सामाजिक कामों में ही लगता था। कांग्रेस, कम्युनिस्ट, हिन्दू महासभा आदि सभी दलों में उनके अच्छे सम्पर्क थे। वे काम में आने वाली बाधाओं को दूर करने तथा रूठे हुए कार्यकर्ताओं को मनाने में बड़े कुशल थे। इसलिए कुछ लोग उन्हें ‘मनों को जोड़ने वाला सेतु’ कहते थे। साण्डर्स वध के बाद क्रान्तिकारी राजगुरू भी काफी समय तक उनके फार्म हाउस में छिप कर रहे थे।

1942 में श्री गुरुजी ने सभी कार्यकर्ताओं से समय देने का आह्नान किया। इस पर भैया जी गृहस्थ होते हुए भी प्रचारक बने। उन्हें मध्यभारत भेजा गया। वहाँ वे 1945 तक रहे। इसके बाद उनकी कार्यकुशलता देखकर उन्हें सरकार्यवाह जैसा महत्वपूर्ण दायित्व दिया गया। 1945 से 1956 तक इस दायित्व का उन्होंने भली प्रकार निर्वाह किया।

संघ कार्य तथा देश के लिए यह समय बहुत महत्वपूर्ण था। इसी काल में स्वतन्त्रता मिली और मातृभूमि का विभाजन हुआ। गान्धी जी की हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। प्रतिबन्ध हटने के बाद अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं ने संघ पर राजनीति में सक्रिय होने का दबाव डाला। देश में प्रथम आम चुनाव हुए। ऐसी अनेक समस्याओं और जटिलताओं को सरकार्यवाह भैया जी दाणी ने झेला।

गान्धी जी हत्या के बाद कांग्रेसी गुण्डों ने उमरेड स्थित उनके घर को लूट लिया। इस पर भी भैया जी स्थितप्रज्ञ की भाँति शान्त रहे। उन्हें अपने परिवार से अधिक श्री गुरुजी और संघ कार्य की चिन्ता थी। 1956 में पिताजी के देहान्त के बाद उन्हें घर की देखभाल के लिए कुछ अधिक समय देना पड़ा। अतः श्री एकनाथ रानाडे को सरकार्यवाह का दायित्व दिया गया। तब भी नागपुर के नरकेसरी प्रकाशन का काम उन पर ही रहा। 1962 से 1965 तक वे एक बार फिर सरकार्यवाह रहे; पर उनके खराब स्वास्थ्य को देखकर 1965 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने श्री बालासाहब देवरस को सरकार्यवाह चुना।

इसके बाद भी उनका प्रवास चलता रहा। 1965 में इन्दौर के संघ शिक्षा वर्ग में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और 25 मई, 1965 को कार्यक्षेत्र में ही उस कर्मयोगी का देहान्त हो गया।
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