आस्था पे चोट करती कानूनी दलीलें - अमित भार्गव

आलेख के लेखक श्री अमित भार्गव, प्रख्यात सिने अभिनेता व फिल्म सेंसर बोर्ड के सम्माननीय सदस्य हैं |

कभी कभी तो मुझे ये लगता है जैसे भारत के न्यायाधीश या तो निरे अबोध हैं या किसी अन्य देश से हाल ही में भारत आकर यहाँ पद भार संभाला है | क्योंकि नातो वे भारत की पौराणिक संस्कृति, सनातन धर्म को जानते, और ना ही उन्हें पुरातन सभ्यता या मान्यता का कोई ज्ञान है । इसी के चलते ये धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ याचिकाओं पर कुछ भी निर्णय कर लेते हैं। 

अभी ताज़ा मामला सबरीमला मंदिर का ही लीजिए जहां की मान्यता है कि १० वर्ष से ५० वर्ष की महिला वहां पूजा नहीं कर सकती। ये मान्यता आज की नहीं जब से भगवान अयप्पा का ये मंदिर अस्तित्व में है तभी से है जिसे कई सदियाँ बीत गयीं। 

विचारणीय बिंदु ये है कि हिंदू मान्यताओं में हर भगवान, देवता, देवी की अपनी पूजा विधि है जैसे कि शनि देव को तेल चढता है, गणेश देव को मोदक या मीठा भोग लगता है, शिवालय पर जल, दूध, बेल, पुष्प अर्पित किये जाते हैं वहीं भगवान विष्णु के मंदिर में वैष्णव पद्धति में तैयार भोज का ही भोग लगता है। 

इसी तरह अन्य और भी प्रसिद्ध मंदिर हैं जहां कि अपनी मान्यताएं हैं जैसे माता वैष्णो देवी के तीर्थ क्षेत्र कटरा में प्याज़, मांसाहार इत्यादि नहीं बिकता है। ठीक इसी तरह किसी भी गुरुद्वारे में कोई भी व्यक्ति नंगे सर प्रवेश नहीं कर सकता ये मंदिर, गुरुद्वारे की अपनी व्यवस्था है | 

अब यहां संविधान में प्रदत्त खाने, पहनने, घूमने के मौलिक अधिकार की दुहाई देकर मान्यताओं या व्यवस्था को नहीं बदला जा सकता है। सबसे ज्यादा समझने वाली बात यह है कि इन व्यवस्था या मान्यताओं को लैंगिक भेद बताकर नकारा नहीं जा सकता, क्यूंकि ये मान्यताएं किसी मंदिर विशेष तक ही सीमित हैं, न कि किसी कुरीति की तरह पूरे हिंदू धर्म समाज में फैली हैं। हिंदू धर्म तो इतना विराट और सहज है कि लोग हांथ जोड़कर भी पूजा कर सकते हैं और पूरे विधि विधान से भी कर सकते हैं और जो न करना चाहें तो किसी तरह से न करे कोई बाध्यता नहीं है। 

अब जिस संविधान की दुहाई देकर इन व्यवस्थाओं को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है वही संविधान उस मंदिर को भी वही अधिकार देता है कि उस मंदिर की अपनी विधि और परम्परा सुरक्षित रहे संरक्षित रहे | संविधान में स्पष्ट उल्लेख है कि विकास के नाम पर देश की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को नष्ट नहीं किया जा सकता है। अगर इसी तरह मान्ताओं और प्राचीन आस्थाओं के खिलाफ आदेश आते रहे, तो हिंदू धर्म का स्वरूप ही बदल जायेगा | 

क्या हिंदू धर्म बल्कि हर पंथ का स्वरूप ही बदल कर रख देंगे इस तरह के आदेश? क्यूं कि धर्म या पंथ का अस्तित्व उनके मानने वालों से है और जो इन में आस्था रखता है, तो आस्था का कारण और प्रमाण मांगना महा मूर्खता है। मैं भी इस फैसले के साथ होता गर ये किसी रूढ़ि के तौर पर पूरे हिंदू धर्म में छाया होता | मै इसलिए इस फैसले के साथ नहीं हूं क्यूंकि ये मंदिर विशेष की वहाँ विराजित भगवान की पूजा पद्धति का हिस्सा है न कि हिन्दू धर्म में फैली कोई कुरीति।

(कई पुराने परिवारों में महिलायें रजस्वला होने पर खाना बनाने रसोई में नहीं जातीं | यह उनका व्यक्तिगत मामला है, क्या उन्हें कोई विवश कर सकता है ? श्रद्धा अवैज्ञानिक हो सकती है, गलत हो सकती है, पर जब तक उन्हें स्वयं समझ में न आये, जैसे कि समाज को धीरे धीरे चेचक के विषय में समझ में आ गया, तब तक इसे संघर्ष का विषय बनाना उचित नहीं | ध्यान दीजिये कि मस्जिदों में भी महिलायें नहीं जातीं ! क्या कोई क़ानून बनाकर उन्हें जबरदस्ती भेज सकता है ? अंध श्रद्धा / आस्था के मामले भी न्यायालय में नहीं, समझाईस से और जन जागृति से ही हल किये जाना उचित है |- सम्पादक)

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1 टिप्पणियाँ

  1. आपका आलेख पढा। तर्क सम्मत बात कही आपने। सनातन के आधार की समस्त तथ्य आपने बताये जो कि निर्विवाद हैं निर्विकल्प हैं। उन्हें उसी रूप में अपनाना होगा।
    शेष आपके बारे में क्या कहूँ! Tv में आपका अभिनय देखा करती हूँ। आपकी फ़िल्म 'अपरिचित शक्ति' का बेसब्री से इंतज़ार है। यह ज्ञात नहीं था कि एक बेहतर अभिनेता के अंदर बेहतर सनातनी व्यक्तित्व के जानकार का भी वास है। प्रसन्नता हुई आपका यह लेख पढ़कर।
    शुभकामनाएं श्री अमित जी!

    आपकी एक अनन्य प्रशंसिका
    गीतिका वेदिका

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