समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में हिंदुत्व का प्रभाव - सेवा निवृत्त कर्नल मनोज जो पुराकेल

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Angkor Wat Hinduism Khmer



(लेखक आर्टिलरी रेजिमेंट के एक अनुभवी अधिकारी हैं, जिन्होंने ऑपरेशन पवन (श्रीलंका) में भी भाग लिया और अशांत पंजाब और जम्मू-कश्मीर में विद्रोहियों से निबटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । वह ब्लैक कैट कमांडो प्रशिक्षण केन्द्र में प्रशिक्षक भी रहे ।) 

दक्षिणपूर्व एशिया की संस्कृति और उसके इतिहास पर हिंदू धर्म का गहरा असर साफ़ दिखाई पड़ता है । ईसा से 100 से 500 साल पहले के जो शिलालेख दक्षिणपूर्व एशिया में मिलते हैं, उनमें भारत और भारतीय लिपियों का दिखाई देना इसी तथ्य की पुष्टि करता है । भारतीय सभ्यता ने इन राष्ट्रों के निवासियों, उनकी भाषाओं, लिपियों, परंपरा, साहित्य, कैलेंडर, विश्वास प्रणाली और कलात्मक पहलुओं को प्रभावित किया। लगभग 200 वर्ष ईसा पूर्व से लेकर 15 वीं शताब्दी तक यह भारतीय प्रभाव रहा, तथा वहां की स्थानीय राजनीति ने भी हिंदू-बौद्ध प्रभाव को गृहण किया। भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण-पूर्व तट के साम्राज्यों ने दक्षिणपूर्व एशियाई साम्राज्यों के साथ व्यापारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंध स्थापित किए। भारतीय उपमहाद्वीप के अंदरूनी भाग के हिंदू साम्राज्यों के विपरीत, प्रायद्वीप के दक्षिणी तट के पल्लव साम्राज्य में समुद्र पार करने पर कोई सांस्कृतिक प्रतिबंध नहीं था। अतः दक्षिण पूर्व एशिया में समुद्री मार्गों के माध्यम से यह भारतीय प्रभाव पहुंचा। 

पुरातन काल 

भारतीय विद्वानों ने 200 वर्ष ईसा पूर्व, जावा और सुमात्रा में द्वीपांतर या जावा द्वीप का उल्लेख किया है। भारत के सबसे शुरुआती महाकाव्य रामायण में भी "यावद्वीप" का उल्लेख किया गया है। राम की सेना के प्रमुख सुग्रीव ने सीता की तलाश में जावा के द्वीप यावद्वीप में भी अपने लोगों को भेजा था। इसलिए भारतीयों द्वारा इसे संस्कृत नाम "यावक द्वीप" दिया गया था। पूर्वी भारत, विशेष रूप से कलिंग, साथ ही दक्षिण भारत के साम्राज्यों के व्यापारी अक्सर दक्षिणपूर्व एशिया जाया करते थे । 

इंडोनेशियाई इतिहास के प्रारंभिक शिलालेखों से ज्ञात होता है कि पश्चिमी जावा में लगभग 400 के दशक में भारतीय मूल के तरुमानगर साम्राज्य की स्थापना हुई । क्षेत्र में 425 से बौद्ध प्रभाव प्रारम्भ हुआ । 6 वीं शताब्दी के आसपास, भारतीय पद्धति का कलिंगा साम्राज्य मध्य जावा के उत्तरी तट पर स्थापित हुआ । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है, इस साम्राज्य का नाम भारत के पूर्वी तट कलिंग के अनुरूप रखा गया था। ये दक्षिणपूर्व एशियाई समुद्री लोग भारत और चीन के साथ व्यापक व्यापार में संलग्न थे । इसी के चलते मंगोलों, चीनी और जापानी, साथ ही इस्लामी व्यापारियों का ध्यान भी इस ओर आकृष्ट हुआ, जो 12 वीं शताब्दी में सुमात्रा के इलाके में पहुंच गए थे । पूरे दक्षिणपूर्व एशिया में आज भी चोल राजवंश का हिंदू सांस्कृतिक प्रभाव अत्याधिक दिखाई देता है । उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया के प्रसिद्ध मंदिर प्रंबानन परिसर में दक्षिण भारतीय वास्तुकला की झलक दिखाई देती है। 

मलय क्रोनिकल सेजारह मेलायू के अनुसार, मलाका सल्तनत के शासक स्वयं को चोल साम्राज्य के राजाओं का वंशज मानते हैं । मलेशिया में भी चोल शासन को याद किया जाता है क्योंकि कई राजकुमारों के नाम चोलन या चुलन के साथ खत्म होते हैं, जैसे पेरक के राजा “राजा चुलन”। चोल कला दक्षिणपूर्व एशिया तक फैली हुई थी, और उसने दक्षिणपूर्व एशिया की वास्तुकला और कला को प्रभावित किया। कुछ विद्वानों का मानना है कि इक्ष्वाकू और सुमती की किंवदंतियों का जन्म भी दक्षिणपूर्व-एशियाई मिथक से हुआ हो सकता है, जिसमें मान्यता है कि मानवता का जन्म एक कड़वी लौकी या तुम्बे से हुआ । राजा सगर की पत्नी सुमती की किंवदंती भी कुछ इसी प्रकार की है, जिसमें कहा जाता है कि उन्होंने इसी प्रकार साठ हजार संतति उत्पन्न की थी । 

आधुनिक युग 

आज मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, इंडोनेशिया के मेडन शहर और फिलीपींस में बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं, जिसके कारण वहां हिंदू संस्कृति जीवंत है | सैकड़ों वर्ष पूर्व तमिल लोग भारतीय उपमहाद्वीप से दक्षिणपूर्व एशिया में स्थानांतरित हुए थे। दक्षिणपूर्व एशियाई त्यौहार थाईपुसम मुख्यतः तमिल हिंदूओं द्वारा मनाया जाता है. इसके अतिरिक्त दीवाली आदि अन्य हिंदू धार्मिक त्यौहार भी इस क्षेत्र में हिंदुओं द्वारा मनाए जाते हैं। थाईलैंड और कंबोडिया में, थाई और खमेर लोग अपने बौद्ध धर्म के साथ हिंदू अनुष्ठानों और परंपराओं का भी पालन करते हैं, और ब्रह्मा जैसे हिंदू देवताओं को भी व्यापक रूप से पूजा जाता है। 

इंडोनेशिया में, केवल भारतीय मूल के लोग ही हिंदू धर्म का पालन करते हों, ऐसा नहीं है, हिंदू धर्म आज भी बाली में प्रमुख धर्म के रूप में जीवित है, जहां देशी इंडोनेशियाई, बालिनी लोग आगम हिंदू धर्म का पालन करते हैं, जो प्राचीन जावा-बाली द्वीप में हिंदू परंपराओं से लगभग दो सहस्राब्दी में विकसित हुआ है, यह अलग बात है कि उसमें स्थानीय आध्यात्मिक तत्व भी सम्मिलित है । इसी प्रकार इंडोनेशिया के अन्य हिस्सों में, उसे हिंदू धर्म न कहकर देशी आध्यात्मिक मान्यताओं का रूप दिया गया है, जैसे कि हिंदू पौराणिक आख्यान “कालिय मर्दन” को वहां “कहरिंगन” कहा जाता है । इस रूप में हिंदू धर्म का पुनरुत्थान इंडोनेशिया के सभी हिस्सों में देखने को मिलता है। 

1970 के दशक की शुरुआत में, सुलावेसी के तोराजा लोग पहली बार 'हिंदू धर्म' की छतरी के नीचे आये, इसके बाद 1977 में सुमात्रा के करो बटक और 1980 में कालीमंतन के नगजू दायक । 1999 में नेशनल इंडोनेशियन ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स ने अपनी एक अप्रकाशित रिपोर्ट में, स्वीकार किया कि पिछले दो दशकों में करीब 100,000 लोगों ने आधिकारिक तौर पर इस्लाम से हिंदू धर्म में वापसी की, या उसे स्वीकार किया । 2007 में धार्मिक मामलों के मंत्रालय का अनुमान था कि इंडोनेशिया में कम से कम 10 मिलियन हिंदू हैं । 

सब्दापलन और जयबाया की प्रसिद्ध जावानी भविष्यवाणियों ने भी हिंदू धर्म की वृद्धि को प्रेरित किया । 1945 से 1967 तक इंडोनेशिया के प्रेसीडेंट रहे सुकर्णो की पार्टी के लोगों द्वारा अपने परिवारों के साथ हिंदू धर्म स्वीकार किया है, उनमें सुकर्णो की पुत्री मेगावती भी शामिल है । 'मजापहित के धर्म' (हिंदू धर्म) में वापसी को उन्होंने राष्ट्रीय गौरव का विषय बताया है। इंडोनेशियाई बालिनीज के बाद, आज दक्षिणपूर्व एशिया में बालामोन चाम एकमात्र देशी (गैर-इंडिक) हिंदू अस्तित्व में हैं। वियतनाम में चाम जाति के लोग अल्पसंख्यक हैं और उनकी संख्या लगभग 160,000 हैं, उनमें से अधिकतर हिंदू धर्म का पालन करते हैं जबकि कुछ मुसलमान हैं। सदियों तक शिन (वियतनाम) के प्रभुत्व में रहने के बाद, अब चाम संस्कृति को पुनर्जीवित करने के प्रयास चल रहे हैं । 

कम्पुचिया में हिंदू धर्म 

कंबोडिया (वर्तमान में कम्पुचिया) सबसे पहले फनान साम्राज्य की शुरुआत के दौरान हिंदू धर्म से प्रभावित हुआ। हिंदू धर्म खमेर साम्राज्य के आधिकारिक धर्मों में से एक था। कंबोडिया - अंगकोर वाट के पवित्र मंदिर से जाना जाता है, जो दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है। खमेर साम्राज्य में पालन किया जाने वाला मुख्य धर्म हिंदू धर्म था, इसके बाद बौद्ध धर्म लोकप्रिय हुआ। प्रारंभ में, साम्राज्य ने हिंदू धर्म को मुख्य राज्य धर्म के रूप में मान्य किया। विष्णु और शिव सबसे सम्मानित देवताओं में से थे, जिनकी खमेर हिंदू मंदिरों में पूजा करते थे। अंगकोर वाट जैसे मंदिर वास्तव में राजा सूर्यवर्धन द्वितीय की मृत्यु के बाद उनके सम्मान में बनवाये गए । वहां आयोजित होने वाले हिंदू समारोह और अनुष्ठान, ब्राह्मणों (हिंदू पुजारी) द्वारा किए जाते थे और आमतौर पर केवल राजा के परिजन, शासक वर्ग और अभिजात वर्गों के लोग ही उसमें सम्मिलित होते थे। हिंदू धर्म राज्य धर्म था, लेकिन राजनीति से प्रभावित था, खमेर राजाओं को पृथ्वी पर देवताओं की दिव्य गुणवत्ता रखने वाला, विष्णु या शिव के अवतार के रूप में माना जाता था । इस प्रकार राजा के शासन को दिव्य औचित्य प्रदान किया गया । इस मान्यता को और दृढ करने के लिए ही खमेर राजा विशाल वास्तुशिल्प परियोजनाओं को पूरा करने को उद्यत हुए, और राजा के दिव्य शासन का जश्न मनाने के लिए अंगकोर वाट और बायोन जैसे राजसी स्मारकों का निर्माण किया गया। 

कंबोडिया का अंगकोर वाट मंदिर परिसर 162.6 हेक्टेयर (1,626,000 मीटर 2,402 एकड़) में फैला हुआ है और दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक स्मारकों में से एक है। यह मूल रूप से खमेर साम्राज्य द्वारा भगवान विष्णु को समर्पित एक हिंदू मंदिर के रूप में बनाया गया था, लेकिन 12 वीं शताब्दी के अंत में धीरे-धीरे बौद्ध मंदिर के रूप में बदल रहा था। इसे 12 वीं शताब्दी की शुरुआत में राजा सूर्यवर्धन द्वितीय द्वारा खमेर साम्राज्य की राजधानी, यशोधरापुर (वर्तमान में अंगकोर) में, उनके राज्य मंदिर के रूप में बनाया गया था। पिछले राजाओं की शैव परंपरा को तोड़कर, उसके स्थान पर अंगकोर वाट विष्णु को समर्पित किया गया । अपने निर्माण के बाद से ही यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र बना रहा । मंदिर में उच्च स्तरीय खमेर वास्तुकला के दर्शन होते है। यह कंबोडिया का प्रतीक बन गया है, जिसे उसने अपने राष्ट्रीय ध्वज पर भी स्थान दिया है | स्वाभाविक ही यह पर्यटकों के लिए भी एक प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। अंगकोर वाट को हिंदू पौराणिक कथाओं में देवों के घर पर्वतराज सुमेरु के अनुरूप डिज़ाइन किया गया है। 

13 वीं शताब्दी में श्रीलंका से शुरू हुआ थेरावा बौद्ध धर्म समाज के निम्न वर्गों में प्रबल होने तक, साम्राज्य के आधिकारिक धर्मों में हिंदू धर्म और महायान बौद्ध धर्म शामिल थे । किन्तु उसके बाद कंबोडिया में हिंदू धर्म का धीरे-धीरे ह्रास होता गया और अंत में थेरावादान बौद्ध द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। किन्तु इसके बावजूद, हिंदू अनुष्ठान राज्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। पड़ोसी थाईलैंड की तरह, राज्य के समारोह ज्यादातर शाही ब्राह्मणों द्वारा आयोजित किये जाते है, जिसमें संप्रभु देवताओं की मूर्तियों के सामने प्राचीन राष्ट्रीय परंपराओं को बनाए रखने के लिए शपथ ली जाती हैं। 

साभार आधार : ओर्गेनाईजर

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क्रांतिदूत : समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में हिंदुत्व का प्रभाव - सेवा निवृत्त कर्नल मनोज जो पुराकेल
समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में हिंदुत्व का प्रभाव - सेवा निवृत्त कर्नल मनोज जो पुराकेल
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